Sunday, June 28, 2009

अलविदा जैक्सन


माइकल जैक्सन के करोड़ों फ़ैन्स में से एक मैं भी हूं। जैक्सन की मौत की चाहे जो वजह सामने आए, मुझे लगता है कि वो कमोबेश ऐसी ही होनी थी...... म्यूज़िक और पर्फ़ार्मेंस की विपरीत उसने अपने शरीर, अपनी ज़िंदगी के साथ जो एक्सपैरिमेंट्स किए मुझे नहीं लगता कि वो सफल हुए.... वो एक परेशान आदमी था- एक बेहद कन्फ़्यूज़्ड शख़्सियत और दिनोंदिन ख़राब होती जा रही शारीरिक मानसिक स्थिति के साथ वो इसी तरह के अंत की दिशा में बढ़ रहा था.....
पिछले शनिवार (20-06-09) को ही मैं अपने भांजों के साथ जैक्सन के गानों की डीवीडी देख रहा था....जब भी मैं जैक्सन की पुरानी तस्वीरों को देखता हूं, पुराने वीडियो देखता हूं तो मुझे एक काला, ख़ूबसूरत और सहज लड़का दिखता है..... `थ्रिलर’ तक उसकी मुस्कान बेहद प्यारी दिखती है.... वो बहुत ख़ूबसूरत, बहुत प्यारा दिखता है। लेकिन `बैड’ में मुझे उसमें ग्रहण लगता दिखता है..... जैक्सन ने अपनी चमड़ी का रंग तो बदल लिया लेकिन हर बार प्लास्टिक सर्जरी के साथ उसके अंदर का सहज आदमी मरता गया..... बंबई में उसके कन्सर्ट के दौरान दिख रहा था कि उसका हाथ भारतीयों के हाथों से गोरा था..... हो सकता है ये देख कर वो ख़ुश होता हो ?
`डेंजरस’ के गानों के वीडियो में मुझे लगता है कि वो अपना पूरा बदन दिखाना चाहता है.... पूरा गोरा बदन..... `यू आर नॉट अलोन’ गाने में उसने करीब-करीब अपना पूरा शरीर दिखाया है- प्लास्टिक सर्जरी का चमत्कार।
`थ्रिलर’ की रिकॉर्डतोड़ बिक्री के बाद भी, दुनिया भर के लोगों को प्यार मिलने के बाद भी जैक्सन को अपना काला रंग बदलने की सूझी तो क्यों..... क्या उस दबाव को, क्या उस मानसिकता को समझना आसान होगा- जो उस पर रहा होगा..... मुझे ऐसा कोई प्रसंग सुनने-पढ़ने को नहीं मिला कि कैशियस क्ले की तरह उसे स्टार होने के बाद भी रंगभेद का शिकार होना पड़ा.... लेकिन पूरी उम्र वो काला होने के दबाव को झेलता रहा और अपने रंग को स्वीकार न कर पाने की वजह से ही उसने आखिर जान गंवा दी...... मुझे यकीन है कि माइकल जैक्सन की मौत की वजह सिर्फ़ और सिर्फ़ रंगभेद है..... ऐसी हकीकत जिससे ये महान कलाकार तारतम्य नहीं बैठा पाया.....
जैस्कन के बारे में सोचता हूं तो मुझे छोटे-छोटे सीन दिखते हैं-
जैक्सन शीशे के आगे खड़ा होकर अपना बदन निहार रहा है.... एक गोरा आदमी। कभी वो ख़ुश होता है, कभी लगता है कि नहीं साला गोरा तो नहीं हो पा रहा..... और फिर अगली सर्जरी की तैयारी- इस बार थोड़ी लालिमा भी चाहिए।
जैक्सन अपनी पुरानी तस्वीरों को देखता है..... प्यारी, ख़ूबसूरत, सहज मुस्कान.... देखकर वो सहज ही मुस्कुराने की कोशिश करता है.... लेकिन होंठ अटक जाते हैं। अब वो वैसे नहीं फैल सकते। उसकी मुस्कान बंधी हुई है, गु़लाम है शरीर के नए कानून की।
जैस्कन की नई गोरी चमड़ी में दिक्कत पैदा होने लगी है.... वो खिंचती है, उसमें दाने हो रहे हैं, स्पर्श का अहसास कम होता जा रहा है..... वो डॉक्टरों को फ़ोन करता है.... घबराता है.... रोता है.... रोते-रोते सो जाना चाहता है, लेकिन नींद नहीं आती.... वो कमरे में लगे अपने थ्रिलर के पोस्टर को देखता है..... शायद वो वेयरवोल्फ़ बन जाता तो बेहतर होता.....
जैक्सन के घर उसके भाई और उनके बच्चे आए हैं..... सब जैक्सन को चाहते हैं- वो भी उन्हें चाहता है..... उनमें से कई में उसे अपना बचपन दिखता है...... सब साथ खेलते हैं, बातें करते हैं, गाने गाते हैं..... लेकिन लगातार उसे महसूस होता रहा है कि वो इन लोगों में से नहीं है..... उसे ये भी अहसास होता रहता है कि ये बात बाकी सभी को भी महसूस हो रही है...... अचानक उसका मूड ख़राब हो जाता है और वो अपने कमरे में जाकर कैद हो जाता है.....

मुझे माइकल के वर्ल्ड टूर के वक्त के वीडियो याद आते हैं..... लड़कियां, लड़के माइकल आई लव यू चिल्लाते दिखते हैं.... वो भी पलट कर कहता है आई लव यू और कई लड़कियां बेहोश हो जाती हैं..... मैं कभी इमोशनल तो नहीं रहा लेकिन हां ये कहने में मुझे कोई हिचक नहीं कि-- माइकल आई लव यू

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dRajesh

Monday, January 5, 2009

स्टाइलशीटिया

पाश क्या तुम्हें पता है की दुनिया बदल रही है?
क्या तुम जानते हो पत्रकारिता के इस जगत में
सबसे खतरनाक क्या है?

सबसे खतरनाक है...
न जानना ख़बर को बस करसर घुमाना
आना और मशीन की तरह जुट जाना
सही-ग़लत भूल, वर्तनी दोहराना
फुट्टे से नाप कर
सिंगल, डीसी बनाना
ख़ुद कुछ न आए, दूसरों को सिखाना
न बोलना, न सोचना, बस आदेश बजाना
बॉस के हर अच्छे बेहूदे मजाक पर मुंह फाड़ हँसना
अठन्नी बचाने के नाम पर, हजारों का नुकसान कराना
काम के बोझ से मर जाने के नखरे कर, दूसरों पर लदवाना
घोड़े की तरह आँख के दोनों ओर तख्ती लगवा लेना
चूतियापे को स्वीकार करना, चूतियों को सर नवाना
हर प्रश्न, हर मौलिक विचार की जड़ों में मट्ठा डाल देना
अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना कर, सप्रयास दबाना
वास्तविक काम को स्टाइलशीट की तलवार से
चुपचाप कटते देखना
नए खून को स्टाइलशीट के रेफ्रीजरेटर में
ठंडा होते महसूस करना
बौद्धिक विद्रोह को स्टाइलशीट के रोलर तले
कुचलने में मददगार होना
ख़ुद स्वयं को मरते देखना और आंखे फेर लेना
हाँ ! सबसे खतरनाक है
एक पत्रकार का स्टाइलशीटिया हो जाना।

(ये कविता मेरे मित्र पशुपति ने अपने ब्लॉग पर छापी है.... और अब मैं इसे अपने ब्लॉग पर डाल रहा हूं उसकी अनुमति के साथ.... ये कविता (जिसे दरअसल मैं पाश की कविता की पैरोडी मानता था- मानता हूं) मैंने अमर उजाला के दिनों में लिखी थी। दो-एक दिन बाद मैं अजय शर्मा की कविता तहखाना भी डालूंगा- जो कि मेरी पसंदीदा है। एक कविता मैं सुधाकर पांडे की भी ढूंढ रहा हूं जो मिल नहीं रही- मिल गई तो ज़रूर डालूंगा, मुझे बेहद पसंद है और हमारे उन दिनों को पूरी तल्ख़ी से रखती है।
यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि अब मुझे स्टाइलशीट उतनी ख़राब चीज़ नहीं लगती। शायद उम्र हो गई है- शायद आग मर गई है लेकिन अब भी मुझे लगता है कि स्टाइलशीट सब पर लागू नहीं होती। चूतियों की भरमार- पत्रकारिता में- भी कम नहीं, उन्हें थामने के लिए स्टाइलशीट होनी चाहिए लेकिन ये सब पर लागू नहीं हो सकती। जैसे कि हमारे एक बॉस कहते थे कि ऐसा नहीं होगा और ये आदेश सब पर लागू होगा.... बशर्ते आप मुझे ऐसा न करने के लिए समझा न पाएं)