Friday, November 18, 2011

जस्टिस काटजू से दिक्कत क्यों ?

जस्टिस काटजू से एडिटर्स नाराज़ हैं (सभी पत्रकार नहीं)। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का स्वयंभू झंडाबरदार बीएई एकदम हल्लाबोल की मुद्रा में है . . . पर क्यों- आखिर - भय बिन होत प्रीत न - पर ऐतराज़ क्या है. . . इसी सिद्धांत पर तो सारे न्यूज़ चैनल (कम से कम हिंदी के) चल रहे हैं . . . हर एडिटर सर्वेसर्वा है- जब चाहे जिसे चाहे ज़लील करे और विरोध पर निकाल फेंके.... संदेश साफ़ है नौकरी करनी है तो डर के करो वरना बाहर....

आप चाहें तो इस सच से इनकार भी कह सकते हैं... बहरहाल साधना न्यूज़ में नौकरी के दौरान मैं अपने साथियों (सामान्यतः आउटपुट, इनपुट इंचार्ज, पीसीआर हेड) से कहता था कि चाहे तो आप अधिकारी होने का भ्रम पाल सकते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इन चैनलों में सिर्फ़ एक ही अधिकारी होता है और बाकी सब चपरासी..... वो पीडी हों या एनके हों- जब चाहे किसी की भी पैंट न्यूज़रूम में उतार सकते थे/हैं, उतारते रहे हैं..... अब कुछ लोग ये स्वीकार करने लगे हैं, कुछ अब भी भ्रम में जीते हैं कि- नहीं जी आज तक हमको ऐसा नहीं कहा- एकबारगी मान भी लें, तो कोई गारंटी नहीं कि आगे भी नहीं कहा जाएगा......

टीवी न्यूज़ में साढ़े आठ साल काम करने के दौरान मैंने एक बात साफ़ समझ ली- कि ये चैनल ईगो पर चल रहे हैं, सिर्फ ईगो पर . . . न कोई सिस्टम- न सिद्धांत, बस एडिटर का ईगो . . . इन चैनलों में काम करने वाले लोग, ख़ासतौर पर एडिटोरियल के- हमेशा असुरक्षित महसूस करते हैं...... बाकी विभागों के साथ कोई दिक्कत नहीं- वो नौकरी कर रहे हैं, प्रेस के आईकार्ड से क्षमतानुसार फ़ायदे उठा रहे हैं.... लेकिन एडिटोरियल पर पत्रकारिता का दबाव भी है.... पत्रकार का लेबल लगने भर से ही इंटर्न भी दबाव में आ जाता है.... उसे समाज में (गैर पत्रकारीय) सम्मान से देखा जाने लगता है और बहुत जल्द ही वो खुद को दूसरों से थोड़ा 'ऊपर' महसूस करने लगता है.... लेकिन न्यूज़रूम में आते है उसे बता दिया जाता है कि वो कितना नीचे है....

तो अक्सर जब तक आदमी को समझ आता है कि अब यहां पत्रकारिता या ग्लैमर (जो जिस वजह से आया हो) नहीं है तब तक अक्सर वो इतना वक्त इसमें लगा चुका होता है कि बाहर निकलना संभव नहीं हो पाता.... फिर वो बस सिस्टम का एक पुर्जा बनकर रह जाता है...

और ये सिस्टम बहुत ज़ालिम और दोगला है.... दो दिन पहले जस्टिस काटजू के साथ बैठक का विरोध करने वालों में दैनिक जागरण के संजय गुप्ता और पंजाब केसरी के अश्विनी कुमार भी थे.... जागरण तो नहीं लेकिन मैंने पंजाब केसरी में काम किया है.... पहली नौकरी पंजाब केसरी, जालंधर में ही मिली थी.... मैं कह सकता हूं कि हिंदी में पेड न्यूज़ का खुला खेल शुरू इसी अख़बार में शुरू किया होगा.... पत्रकारों के शोषण के कीर्तिमान भी इसी ने रचे होंगे.....

लेकिन मुझे इन बनियों से ज़्यादा शिकायत भी नहीं है.... वो धंधा करने उतरे हैं... कोयले से ज़्यादा फ़ायदा ख़बरों में दिखा तो इसी में लग गए- दूसरी पीढ़ी ने संपादक का चोला ओढ़ा तो संपादकों वाली बोली भी बोलने लगे- और ये कोई मुश्किल काम नहीं.... संपादक कौन सा वही बोलता है जो करता है.... वो भी तो वही करता है जो ये मालिक-संपादक करते हैं.... मालिक संपादक नहीं तो संपादक वही करता है जो मालिक चाहता है.....

मजीठिया आयोग की सिफा़रिशें आईं तो अख़बार मालिक बेचैन हो गए... बिसूरने लगे कि हम तो लुट जाएंगे... हालांकि हर साल नए मॉडल की गाड़ी उनके घर आती है.... लेकिन कोई संपादक झंडा लेकर ऐसे खड़ा नहीं हुआ जैसे जस्टिस काटजू के खिलाफ़ खड़े हो गए हैं.....

दरअसल संपादकों, मालिकों की दिक्कत ये है कि वो भय बिन प्रीत न होत को सही तो मानते हैं और उस पर अमल भी करते हैं लेकिन सिर्फ़ वहीं तक जहां तक उनका भय कायम रहे....जब कोई और उन्हें नियमों में रहने, जवाबदेह होने का डंडा दिखाता है तो ये फाउल-फाउल चिल्लाने लगे हैं.....

बीईए में शामिल एक स्वनामधन्य एडिटर से बड़े न्यूज़ चैनल का एक छोटा सा उदाहरण..... एक स्वनामधन्य एंकर कम वैरी सीनियर प्रोड्यूसर ने प्रोग्रामिंग हेड से एक लड़के की शिकायत की कि वो उन्हें नमस्ते नहीं करता जबकि वो उन्हीं के प्रोग्राम की टीम में है..... सिर्फ़ शिकायत ही नहीं की मोहतरमा उस घमंडी लड़के को निकालने पर अड़ गईं..... प्रोग्रामिंग हेड ने उस लड़के से पूछा कि क्या यह सच है- उसने कहा कि जी आप हमारे इंचार्ज हैं, मैं आपको नमस्ते करता हूं..... बस प्रोग्रामिंग हेड ने उसे कह दिया कि कल से आने की ज़रूरत नहीं है..... न उन्होंने मैडम एंकर से ये पूछा कि काम में तो कोई दिक्कत नहीं, अनुशासनहीन तो नहीं..... न ही लड़के की किसी और बात को सुना- मैडम को नमस्ते नहीं करते- तो मत आना....

बीईए में शामिल एक और स्वनामधन्य एडिटर महोदय जो आजकल शायद सिर्फ़ काटजू विरोध पर जी रहे हैं के बारे में भी सुनिए..... पत्रकारिता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले महोदय का सबसे प्रिय शगल है अपने जूनियर्स को ज़लील करना..... एडिटोरियल मीटिंग्स से पहले सबसे ज़्यादा अटकल इसी बात पर रहती है कि आज किसकी लगेगी..... आदिवासियों के देवताओं सरीखे टीआरपी सिस्टम की श्रीमान आलोचना भी करते हैं और इसके आधार पर लोगों से गाली-गलौच भी करते हैं....ऐसा एक नहीं कई बार हुआ है कि किसी स्ट्रिंगर्स से ख़बर मिस हो गई तो उसे हटाने का फ़रमान जारी कर दिया गया- फ़ोन पर ही.... महिलाओं के सामने भी श्रीमान मां-बहन की गालियां देने लेगते हैं... क्यों- ताकि ख़ौफ़ कायम रहे..... ताकि आदमी ये पूछने में भी डरे कि सर मुझसे क्या ग़लती हो गई....

मैं जस्टिस काटजू से सहमत हूं कि पत्रकारिता में ज़्यादातर लोग कम पढ़े लिखे हैं. आखिर कई घंटे की नौकरी, ज़लालत से फ्रस्ट्रेशन और घटियापने की राजनीति के बाद किसे वक्त है कि अख़बार के सिवा कुछ पढ़ पाए.... लेकिन मुझे ये कहते हुए दुख होता है, शर्म आती है कि उससे भी ज़्यादा लोग नपुंसक हो गए हैं..... सवाल उठाने की विरोध करने की क्षमता ज़्यादातर खो चुके हैं..... ऐसे में अगर प्रेस परिषद इतना प्रभावी होता है कि वहां संपादकों-मालिकों के खिलाफ़ शिकायत की जा सके तो इसका स्वागत सबसे ज़्यादा पत्रकारीय जगत से ही होना चाहिए..... पर अफ़सोस की हममें इतनी हिम्मत भी नहीं बची है.....

Thursday, August 11, 2011

फटान

फटी हुई है.... बुरी तरह- फटी हुई है.... न बैठा जाता है, न खड़े रह पाते हैं और चलना-फिरना तो कhttp://www.blogger.com/img/blank.gifतई मुहाल हो गया है.... लेकिन फिर भी दौड़ना पड़ता है और नाचना पड़ता है.... क्योंकि हमारे तहखाने के बूढ़े आदमखोर को नौटंकी बहुत पसंद है... हमारे क्या हिंदी पत्रकारिता के सभी बूढ़े आदमखोरों को नौटंकी पसंद है.... भाषण देंगे पत्रकारिता की नैतिकता पर- लेकिन अपने ही अधीनस्थों को मौलिक अधिकार तक देना पसंद नहीं... लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ में सवाल पूछने की सख्त मनाही है... जी-जी, यस सर से आगे बढ़े तो आगे बढ़ने को (बाहर जाने को) ही कह दिया जाएगा.... हिंदी अख़बारों- चैनलों में काम कर रहे ज़्यादातर लोगों की मानसिक हालत सड़क किनारे कटने के इंतज़ार में पिंजरे में बंद मुर्गों सी होती है...http://www.blogger.com/img/blank.gif. पंख झड़ गए हैं- उम्मीद के, बांग लगाना भूल गए हैं- ज़्यादती के विरोध की और पिंजरे में अपनी बारी का इंतज़ार करते भूल गए हैं चलना- किसी नए विचार, किसी नए ख़्याल की ओर....

मेरी बात पर यकीन न हो तो भड़ास4मीडिया जैसी बेवसाइट्स पर पत्रकारों से जुड़ी ख़बरें, उनकी व्यथा पढ़िए.... ये गरीब हैं, डरे हुए हैं और किसी बाल श्रमिक की तरह असहाय हैं- जो न तो अपने हक की आवाज़ उठा सकते हैं, न एक साथ इकट्ठे हो सकते हैं, गालियां खाना- भूखे रहना जिन्हें अपनी किस्मत लगती है, जो ये नहीं समझ पा रहे कि जाएं तो जाएं कहां....
बहुत दुख की बात है- जो स्मार्ट हैं, मजबूत हैं, वो दलाल नज़र आते हैं....

जिस समाज का watchdog बीमार हो उस पर नज़र कौन रखेगा...

Saturday, June 18, 2011

अगले चैनल मोहे स्ट्रिंगर न कीजो

नमस्कार, मैं आपसे मदद चाहता हूँ. माननीय हाईकोर्ट जबलपुर में पत्रकारों पर फर्जी मामले लादे जाने के विषय में मेरी एक शिकायत के जवाब में सिवनी पुलिस प्रशासन द्वारा कहा गया है कि स्ट्रिंगर पत्रकारों की श्रेणी में नही आते हैं. अर्थात स्ट्रिंगर पत्रकार नहीं होते हैं. ऐसी स्थिति में तो सभी चैनलों में काम करने वाले स्ट्रिंगरों के सामने उनकी पहचान पर प्रश्नचिन्ह लग गया है.
जबकि सारे न्यूज़ चैनल स्ट्रिंगरों को संवाददाता कह कर पुकारते हैं. हर फ़ोनो में संवाददाता कह कर ही सम्बोधित किया जाता है. मेरी आपसे प्रार्थना है कि प्रेस लाइन से जुड़े कानूनविदों से इस विषय पर सलाह लेकर मुझे मार्ग बतायें ताकि पूरे देश में काम कर रहे स्ट्रिंगर भाइयों के हित के लिए मैं माननीय हाईकोर्ट में अपना पक्ष रख सकूं.
राजेश स्थापक
सिवनी

देश के सबसे लोकप्रिय मीडिया पोर्टल भड़ास4मीडिया पर 21 मार्च, 2011 को ये अपील छपी थी.... तीन कमेंट आए जिनमें से एक रिपीट था.... राजेश जी को उनकी ज़रूरत की सलाह देने वाला कोई कमेंट तो कोई नहीं था लेकिन दोनों कमेंट हौसला बढ़ाने वाले ज़रूर थे....
सरकार क्या कर सकती है ये तो रामलीला मैदान कांड के बाद तो ये सवाल पूछा जाना बेमानी है.... लेकिन आज का मेरा विषय सरकार नहीं स्ट्रिंगर्स ही हैं....
अख़बार-टीवी की दुनिया में स्ट्रिंगर बेहद महत्वपूर्ण होते हैं..... अख़बार-टीवी की सत्तर फ़ीसदी तक रिपोर्टिंग स्ट्रिंगर्स ही करते हैं.... मुझे नहीं पता कि ये धारणा न जाने कहां से आई और अब तक लगातार कायम कैसे है कि स्ट्रिंगर्स ‘चालू’ होते हैं.... ‘चालू’ मायने वो ‘इधर-उधर’ से कमा लेते हैं- उन्हें पैसे की ज़रूरत नहीं होती.... वो तो बस आईडी या आईकार्ड चाहते हैं और फिर वारे न्यारे करते रहते हैं.....
न जाने स्ट्रिंगर्स को पैसे लेकर रखवाने और फिर सिर्फ़ रौब ग़ालिब करने के लिए उन्हें हटा देने की शर्मनाक प्रथा कैसे अब तक कायम है....

हो सकता है कि कुछ स्ट्रिंगर्स भी गड़बड़ करते हों.... लेकिन कौन सा अख़बार या चैनल ये दावा कर सकता है कि उसके स्टाफ़र करप्ट नहीं हैं...

मैं बहुत से ऐसे स्टाफ़र्स को निजी तौर पर जानता हूं (आप सभी जानते होंगे) जो करप्शन में नेताओं को टक्कर देते हैं... लेकिन वो एक के बाद दूसरे चैनल में ज़्यादा तरक्की (ज़्यादा पैसा-बड़ा पद) पा जाते हैं.... पत्रकारिता की शुचिता पर भाषण देते हैं.... और तो और ये भी बताते हैं कि कैसे नेता उनके सवालों से कांप जाते हैं (?????)….

ख़बरों से पैसा उगाहने या धंधा जमाने-बढ़ाने के लिए खुलने वाले अख़बार या चैनल पैसा लेकर स्ट्रिंगर्स रख रहे हैं- ये करीब-करीब तय हो चुका है.... मध्यम दर्जे के चैनल रिपोर्टर्स-स्ट्रिंगर्स को एड का टारगेट दे रहे हैं- ये हम सभी जानते हैं..... और बड़े चैनलों के बड़े पत्रकार बड़े मामलों की सैटिंग कर रहे हैं ये नीरा राडिया ने पूरी दुनिया को बता दिया है...
सहारा और साधना में काम करते हुए मैंने कुछ अच्छे रिपोर्टर्स को जाना है, ऐसे रिपोर्ट्स जो स्थान, वक्त और संस्थान की ज़रूरत के अनुसार स्ट्रिंगर हैं..... मेरठ में आशीष शर्मा स्ट्रिंगर था... बहुत अच्छा रिपोर्टर - न्यूज़ और विज़ुअल दोनों सेंस अच्छी थी और मेरठ से लौटने के बाद (रिपोर्टिंग असाइनमेंट से) मैंने साफ शब्दों में ये बात अपने सभी सीनियर्स को कही थी कि वो ज़्यादातर स्टाफर्स से बेहतर है.... हालांकि मुझे ये बात बाद में समझ आई कि नौकरी पाना हो सकता है कि किस्मत हो लेकिन नौकरी में तरक्की पाना पूरी तरह स्किल है.... आप काम कैसा करते हैं, कितने समर्पण से करते हैं, कितने विद्वान या दक्ष हैं- इसका तरक्की से कोई वास्ता नहीं.... आप तरक्की करने वाले को कैसे सेट कर पाते हैं- बस यही काउंट करता है....
मैं कुछ स्ट्रिंगर्स के नाम याद करता हूं तो सहारा के स्ट्रिंगर्स में से मेरठ में आशीष शर्मा (शायद अब भी वहीं है), बिजनौर में ज्योतिलाल शर्मा, इटावा में दिनेश शाक्य, मुगलसराय में चंद्रमौली केसरी, देहरादून में अजय राणा, रामनगर में गणेश रावत, बागेश्वर में हेमंत रावत, विकासनगर में कुंवर जावेद, रुड़की में ईश्वर चंद, रुद्रपुर में भरत शाह, रुद्रप्रयाग में बृजेश सती....
साधना के स्ट्रिंगर्स में से हरिद्वार में धर्मेंद्र चौधरी, कोटद्वार में राजगौरव नौटियाल, रुड़की में आरिफ़ नियाज़ी, रुद्रप्रयाग में सुनित चौधरी, गोपेश्वर में देवेंद्र रावत, उत्तरकाशी में सुभाष चंद्र, अल्मोड़ा में बृजेश तिवारी, धर्मशाला में अनूप धीमान, किन्नौर में विशेषर नेगी, मंडी में अंकुश सूद.... के अलावा और भी बहुत से ऐसे साथी होंगे जिनके नाम अभी याद नहीं आ रहे....
इन सभी के बारे में मैं दावा कर सकता हूं कि ये बहुत अच्छे रिपोर्टर हैं और ये स्ट्रिंगर के नाम पर होने वाले शोषण, अपमान से मुक्त होने के हकदार हैं.....
ज़्यादातर स्ट्रिंगर हमेशा आर्थिक अनिश्चितता से जूझते रहते हैं.... एक स्ट्रिंगर ने एक बार मुझसे कहा था कि- सर चाहे पांच हज़ार महीने का मिले लेकिन प्लीज़ ऐसा कुछ करें कि ये हर महीने मिल जाए..... उधार करते-करते शर्म आने लगती है.....
लेकिन अब तो पुलिस और प्रशासन तक इनसे भेदभाव करने लगे हैं..... सिर्फ़ सिवनी के राजेश का ये दर्द नहीं है.... कई जगह अधिकारी रिपोर्टर्स से समूह से पूछने लगे हैं कि कौन स्टाफ़र है और कौन स्ट्रिंगर.... और दोनों से अलग बर्ताव भी करने लगे हैं.....
भड़ास में ही अगर आप स्ट्रिंगर सर्च करें तो आपको स्ट्रिंगर्स का दर्द नज़र आएगा..... हममें से बहुत सारे लोग अभी इन स्ट्रिंगर्स के लिए कुछ ठोस करने की स्थिति में नहीं होंगे.... लेकिन मैं अपने सभी साथियों से आग्रह करूंगा कि वो कम से कम स्ट्रिंगर्स को उसके पद के बजाय पत्रकारिता के ज्ञान और समर्पण के आधार पर तोलें.... हमारी मानसिकता बदलेगी तो ज़रूर कुछ बदलेगा......

Friday, April 15, 2011

संवेदना अपनी-अपनी

अरुणिमा सिन्हा उर्फ़ सोनू सिन्हा पर लंSSSSSबा भाषण सुना.... बहुत चिंता जताई गई कि संवेदनहीन हो रहा है समाज.... शर्म ज़ाहिर की गई, थू-थू किया गया.... समाज को बार-बार बोलकर सीख दी गई... चेतावनी दी गई कि सीख लो मूर्खों वरना देश तरक्की नहीं कर पाएगा... संवेदनशील बनो, संवेदनशील बनो, संवेदना के बिना आदमी इंसान नहीं लाश है- जिंदा चलती-फिरती लाश

मैं अभीभूत हो ही गया था... करीब-करीब हो ही गया था, लेकिन याद आया... याद आया कि कि अभीभूत नहीं होना है- भाषण को याद करना है और सामने पड़ने पर प्रशंसात्मक स्वर में रख देना है... अभीभूत होने का दिखावा करना है... कहना है कि सही कहा सर- संवेदनहीन हो रहा है समाज.... लेकिन संवेदनशील होना नहीं है, बिल्कुल नहीं होना- अगर नौकरी बचानी है तो....

सोचो कि अगर रास्ते में एक्सीडेंट हो जाए और आप रुक जाएं मदद करने के लिए... फिर क्या होगा... आदमी बचेगा या नहीं यह तो पता नहीं..... पर एक बात तो तय है कि आप ऑफ़िस पहुंचने में लेट हो जाएंगे.... लेट हो जाएंगे तो यहां भी एक्सीडेंट होगा.... बॉस का मूड ख़राब होगा- सुबह-सुबह पॉलिश किया गया चेहरा विकृत हो जाएगा.... तमीज चली जाएगी तेल लेने और वो घिनाते स्वर में आपको बताएगा कि काम के प्रति समर्पण नहीं है तुममें.... पत्रकारिता समर्पण मांगता है... संवेदनशीलता नहीं.....

समझ लो कि संवेदना जगे तो सिर्फ़ इसलिए कि शेव करते हुए बॉस का चेहरा थोड़ा कट गया..... इसलिए भावुक नहीं होना कि घर में बेटी बीमार है- डॉक्टर को दिखाना ज़रूरी हो गया है.....

ट्रेन में सोनू पर हमला हुआ सब चुप रहे.... इसमें आश्चर्य की क्या बात है....
पड़ोसी बीमार पड़ जाए तो आप परेशान हो जाते हैं कि साला अस्पताल जाना पड़ेगा.....
सालों बाद कोई दोस्त मिल जाए तो उससे कहना पड़ता है कि भाई रात को घर आना और सुबह चले जाना.... समझा करो इस नौकरी में दोस्ती नहीं होती.....

दोस्ती तो फिर दूर की बात है.... इस नौकरी में तो परिवार को भी भूल ही जाना पड़ेगा.... बीवी बीमार हो तो, बेटी बीमार हो तो, आप ख़ुद बीमार हों तो भी- डॉक्टर को दिखाने के लिए भी कई बार सोचना पड़ेगा- कई डायलॉग सुनने के लिए खुद को तैयार करना पड़ेगा.... पत्रकारिता में नौकरी करनी है तो- न काहू से दोस्ती, न काहू से प्यार की स्थिति को प्राप्त होना पडेगा..... अपने प्रति भी संवेदनाओं को मारना पड़ेगा.... ज़िंदा लाश बनना पड़ेगा....

ऐसा लग रहा होगा कि ज्यादा बोल रहा हूं..... तो ये किस्सा सुनो.....

दो महीने भर पहले मुंहअंधेरे (करीब पौने छे बजे) मेरी बीवी की गाड़ी से एक्सीडेंट हो गया.... नोएडा- सेक्टर 12 मेट्रो हॉस्पिटल से कुछ पहले 21-22 साल का एक लड़का नाइट शिफ्ट कर लौट रहा था- गाड़ी से टकरा गया.... विंड स्क्रीन पूरी तरह टूट गई, गाड़ी साइड से पिचक गई.... तो सोचो लड़के का क्या हाल हुआ होगा.... हाथ में, छाती में, सिर पर चोट लगी.... सुन कर मैं इंदिरापुरम से दौड़ा-दौड़ा आया.... सहारा के कुछ लोग पहले ही पहुंच चुके थे..... लड़के को प्राथमिक उपचार मेरे पहुंचने से पहले ही दिया जा चुका था.... लेकिन डॉक्टर कुछ कहने को तैयार नहीं थे..... वक्त लगा.... एक्सरे हुआ, एमआरआई हुआ और करीब चार-साढ़े चार घंटे बाद डॉक्टरों ने लड़के के भाई को उसे घर ले जाने की इजाज़त दे दी....

पांच घंटे के इस वक्त के दौरान मेरी बीवी तो बेहद तनाव में रही ही- मैं भी सामान्य दिखने की नाकाम कोशिश करता रहा..... ये तनाव हावी रहा कि अगर इस लड़के को कुछ हो गया तो.... तो क्या होगा.... एक जवान लड़के की मौत से क्या आप आसानी से हाथ झाड़कर निकल सकते हैं??? नहीं बिल्कुल नहीं.....
अब भी लगता है कि मान लो उस लड़के की मौत हो जाती और किसी तरह कानून के फंदे से निकल जाते तो.... तो भी क्या आप खुद को माफ़ कर पाते.... शायद कभी नहीं....

अब उस दिन यकीनन मैं ऑफ़िस वक्त पर नहीं पहुंच पाया.... आया लेकिन ढाई-तीन घंटे लेट.... यहां आकर मुझे सहानुभूति नहीं- फटकार मिली..... पत्रकारिता पर अर्थहीन भाषण मिला.... बताया गया कि कोई मरे या जिये- बॉस के दिए वक्त पर हाजिरी बजाना ही परम कर्तव्य होना चाहिए..... साथियों ने बताया कि मीटिंग में भी घृणा भरकर पूछा गया कि इसे (मुझे) इतनी भी तमीज नहीं कि मीटिंग में आना ज़रूरी है या अस्पताल जाना (!!!!!)

एक साथी की चाची मर गई.... पता चला कि नहीं आ पाया.... संवेदनशीलता की मिसाल देखिए- आजकल बहुत चाची-मामी मर रही हैं लोगों की.... ज़्यादा छुट्टियां चाहिएं तो.... (बोलते-बोलते रह गए शायद कि- मां-बाप को मार दो। बता दूं कि एक साथी के पिता की मृत्यु हो गई थी और वो लंबी- शायद 15 दिन- की छुट्टी पर थे)

नोएडा में घर में कैद दोनों बहनों में से एक की मौत हो गई.... तो समाज की चेतना पर सवाल उठाए गए..... संवेदनहीन होते जाने पर चिंता की गई..... सोनू सिन्हा को ट्रेन से फेंक दिया गया तो समाज को झकझोरने के लिए भाषण दिया गया.... मैं सोचता हूं कि अगर रोज़-रोज़ सरेआम ज़लील किए जाने से, बार-बार ख़ुद को नाकारा, मूर्ख बताए जाने से हम में से कोई अगर डिप्रेशन में आ गया.... अगर कोई घर-बार भूलकर यहीं, इसी ऑफिस में पड़ा रह गया.... भूखा-प्यासा जब तक हिम्मत रही दौड़ता रहा फिर गिर गया.... तो....

तो महान संवेदनशील आदमी क्या करेगा....

वो घिन करेगा- घृणित बातें बोलेगा और कहेगा कि इसे उठाकर बाहर फेंक दो- बदबू करने लगा है

Monday, March 28, 2011

एक बाबा की कहानी

बाबा को शौक़ था प्रवचन देने का... हालांकि वो प्रवचन देने वाला बाबा नहीं था.... वो एक मंदिर का मुख्य पुजारी बना था- हाल ही में। उसे मंदिर चलाते रहना था- बस यही करना था। इस मंदिर का धंधा जम चुका था। इसकी अपनी भक्त संख्या थी। इसमें दर्शन करने के लिए आने वाले भक्तों की संख्या करीब-करीब तय हो चुकी थी। इस मंदिर की ख़ासियत स्थानीय देवी-देवता थे, उनके प्रभाव का प्रचार था। स्थानीय लोग तो यहां आते ही थे- बाहर से आने वाले भी यहां मत्था टेकने ज़रूर आते।

ये मंदिर दरअसल तीन मंदिरों का समूह था..... अपने पापों को धोने के लिए या पैसे को ठिकाने लगाने के लिए एक बिज़नेसमैन ने इसकी स्थापना करवाई थी। एक दबंग किस्म के महंत को सेठ ने मंदिर बनवाने और जमाने का ठेका दिया था। महंत अपने काम में माहिर था। उसने ज़मीन खरीदी, दान में ली या कब्ज़ा ली... मतलब जो भी मंदिर के लिए ज़रूरी था किया। उसने मंदिर को सजाने वाले, पूजा और लंगर की व्यवस्था करने में कुशल, सुर में आरती गाने वाले और वक्त ज़रूरत जिज्ञासु भक्तों को स्थानीय देवताओं का महत्व बताने वाले पुजारी नियुक्त किए। इन सब पर वह ख़ुद नज़र रखता- धमकाता, पुचकारता, पिलाता-खिलाता, घुमाता यानि कि सबकी नकेल अपने हाथ में रखता.... महंत ने मंदिर जमा दिया.... एक से शुरू होकर तीन बड़े मंदिरों का समूह बना दिया...

मंदिरों से होने वाली कमाई और उनके प्रभाव (अधिकारी, नेता भी आखिर धर्मभीरू होते हैं) सेठ और महंत के रिश्तों में दरार डाल दी.... महंत अपनी ठसक के साथ उठकर चला गया....

सेठ को धंधा समझ आ चुका था.... उसने मंदिर ट्रस्ट का एक प्रबंधक नियुक्त किया जो उसका सही मायनों में प्रतिनिधि था... उसे पूजा, भक्ति, प्रवचन से मतलब नहीं था.... वो तो बस चढ़ावे, दर्शन के दौरान व्यवस्था, पुजारियों के वेतन, कपड़ों वगैरा-वगैरा का ध्यान रखता था। हां वो प्रसाद, पूजा सामग्री की दुकानें भी खोल रहा था और उन्हें जमा रहा था..... सेठ ने धर्म को बेशर्मी से कैश करना शुरू कर दिया था....

महंत के जाने के बाद पुजारियों पर नियंत्रण के लिए सेठ को एक भगवाधारी की ज़रूरत थी। बाबा की किस्मत खुल गई.... इससे पहले बाबा कभी भी किसी मंदिर का मुखिया नहीं रहा था.... वो मंदिरों में साधारण पुजारी रहा था बस.... लेकिन उसे प्रवचन देने का बहुत शौक था। इससे पहले उसे प्रवचन देने का मौका नहीं मिला था, आखिर पुजारी की कौन सुनता है.... दरअसल वो पिछले मंदिर से बाहर ही इसी प्रवचनी आदत के चलते हुआ.... दरअसल उसे समझ ही नहीं आया कि प्रवचन देने वालों की कैटेगिरी अलग है.... वो आरती, पूजा नहीं करते.... अगर कर ली तो फिर प्रवचन की मार्केट नहीं बन पाती.... बहुत शौक है तो मंदिर प्रबंधन जब कहे तब थोड़ा बहुत बोल दो- बस.... आदत मत डालो वो ख़तरनाक है..... पर ये ख़तरनाक आदत बाबा को पड़ चुकी थी.... वो मंदिर को चलाने वाले और प्रवचन देने वाले दो अलग किरदारों के बीच झूल रहा था.... जो काम था उसे छोड़ नहीं सकता था और जो शौक है वो उसे छोड़ नहीं रहा था....

तो शौक को मौका मिल गया और वो जिम्मेदारी पर हावी हो गया... बाबा ऐसे प्रवचन देने लगा जैसे कि सस्ती कविताएं कहने वाला सबको पकड़-पकड़ कर कविताएं सुनाता है....सुबह की आरती हो न हो उसने पुजारियों को चर्चा के लिए आना ज़रूरी कर दिया.... हालांकि बहाना ये था कि हर मंदिर का हर दिन नया होता है.... कब कौन सा त्यौहार है, किस देवता का दिन है उसके हिसाब से आरती, प्रसाद, भक्तों की भीड़ के हिसाब से व्यवस्था पर बात की जानी चाहिए.... लेकिन बाबा का ध्यान पुजारियों को प्रवचन देने पर ही रहता.... उन्हें मंदिर की व्यवस्था, भक्ति और आरती के स्तर, प्रसाद की गुणवत्ता से कोई मतलब नहीं रहता.... वो तो बस इस फ़िराक़ में रहते कि जो भी आज तक उन्होंने पढ़ा है- उसे दूसरों पर उड़ेल दें....

ये पुजारियों को कुछ वक्त बाद समझ आया कि बाबा के सवालों का जवाब नहीं देना है... बस चुपचाप बैठे रहना है या खींसे निपोर कर कह देना है कि महाराज नहीं जानते..... तब बाबा पुजारियों की बुद्धि पर तरस खाते हुए जवाब देते.... हां अगर आपने जवाब दे दिया तो आपकी खैर नहीं.....

जैसे कि एक दिन हनुमान की आरती के संबंध में बात हो रही थी कि बाबा ने पूछा कि हनुमान जी की मां कौन थी....
हनुमान मंदिर के पुजारी ने बता दिया- जी अंजनी....
बाबा ने थोड़े गुस्से से कहा नाम तो कोई भी गधा बता देगा.... मैंने पूछा कि मां कौन थी....
जी वो वानरराज कुंजर की बेटी थीं.... उनका विवाह वानरराज केसरी के साथ हुआ था और गुमला से 21 किमी दूर आंजन पहाड़ की चोटी पर एक गुफ़ा में उन्होंने परमवीर हनुमान को जन्म दिया था.....
जन्म दिया था... जन्म दिया था.... अरे जन्म दिया था तभी तो माता बनीं.... पता नहीं कहां से आ गए धर्म के क्षेत्र में....
अरे कोई साधारण वानरी कैसे पवनसुत, महाबली, हनुमान को जन्म दे सकती है.... माता अंजनी पूर्व जन्म में देवराज इंद्र के दरबार में एक अप्सरा थीं.... उनका नाम था पुंजिकस्थला.... वो परम सुंदरी थीं और स्वभाव से चंचल थीं। इसी अतिचंचलता के चलते वह कई बार दूसरों को नाराज़ कर देती थीं.... एक बार पुंजिकस्थला ने तपस्या में लीन एक ऋषि के साथ अभद्रता कर दी। ऋषि की तपस्या भंग हो गई तो उन्होंने श्राप दे दिया कि वानरी की तरह स्वभाव करने वाली जा तू वानरी हो जा। पुंजिकस्थला को अपनी गलती का अहसास हो गया और वह ऋषि से क्षमा याचना करने लगी। ऋषि का क्रोध शांत हुआ तो उन्होंने कहा कि श्राप का प्रभाव तो टल नहीं सकता परंतु तुम्हारा वह रूप भी परम तेजस्वी होगा। तुमसे एक ऐसे पुत्र का जन्म होगा जिसकी कीर्ति और यश से तुम्हारा नाम युगों-युगों तक अमर हो जाएगा। अंजनी के रूप में जन्म लेकर पुंजिकस्थला ने चैत्र मास की शुक्ल पूर्णिमा को महावीर हनुमान को जन्म दिया।
जी-जी महाराज... सही कहे आप कोई साधारण वानरी कैसे महाबली को जन्म देगी....
देखा तुमने (बाबा ने सभी पुजारियों को कहा) ऋषि का क्रोध देख तुरंत अक्ल आ जाती है आज भी (फिर हंसे.... ताकि बाकी भी हंसें)

तो बाबा ने शाम की आरती के बाद प्रवचन देने का नियम बना लिया.... इस प्रवचन में आस-पास के बूढ़े-बुजुर्ग, प्रसाद खाने के लिए लालायित गरीब बच्चे और मंदिर को लड़कियां देखने के लिए सबसे अच्छी जगह मानने वाले लंपट आने लगे...... बाबा उन्हें देख-देख कर ख़ुश होता और बाबा परमहंस जैसी मुद्रा में बैठता.... हालांकि अक्सर वो उन्हीं विषयों पर प्रवचन करता जो उस दिन के अख़बार में धर्म के पन्ने पर छप चुका होता.... पूरा दिन वह उस विषय पर नोट्स बनाने में लगा रहता.... इसके बाद भी शाम का प्रवचन किसी भी बेहद साधारण प्रवचन से बेहद ख़राब और बोरिंग होता.... दरअसल बाबा ये मान बैठा था कि उसके तेज से ही आरती और मंदिर के अन्य कार्यक्रम सफल होते हैं.... कमज़ोर और मजबूर पुजारियों, मुफ़्त का प्रसाद पाने वालों में इतनी हिम्मत थी नहीं कि वो बाबा को सच्चाई बताते.... बाकी मंदिर परिसर में दुकान करने वालों को बाबा से मतलब था नहीं.... वो बस भगवा देख उसे नमस्कार कर देते... बाबा सोचता कि ये सभी उसके भक्त हैं.... इस सबसे बाबा का दिमाग़ इतना ख़राब हो गया था कि वो शीशे में अपना प्रतिबिंब देखकर उसे भी आशीर्वाद देने लगता या फिर ऐसी बात पूछने लगता जो उसने अभी पढ़ी है.... फिर कहता कि चलो तुम्हें तो पता ही होगा तुमने अभी ही पढ़ा है...

ज़ाहिर है बाबा का तेज सिर्फ उन्हीं को महसूस होता था.... बाकी उनसे ऐसे ही दूर भागते जैसे कि किसी बदबूदार जानवर से दूर भागते हैं.... बाबा को लगता कि ये मेरे तेज से घबरा रहे हैं.... वो ख़ुश होता- और जोर से प्रवचन करने लगता.... उसे लगता कि तेज बढ़ रहा है लेकिन दरअसल बढ़ रही थी बदबू....

बाबा बात-बे-बात धर्मक्षेत्र का कोड़ा फटकारता..... अगर किसी पुजारी का पेट ख़राब हो गया और वो सुबह-शाम की चर्चा (यानि कि प्रवचन) में शामिल न हो पाए तो बाबा नाराज़ हो जाता- धर्म का काम करने का दावा करते हैं लेकिन पेट पर नियंत्रण तक नहीं रख सकते... घिन आती है...

पुजारियों को भी घिन आती थी.... बदबू बढ़ती जा रही थी.... अब डर इस बात का था कि किसी दिन कोई कै न कर दे....

Wednesday, January 5, 2011

फैसले का वक्त

मुश्किल है बहुत मुश्किल है....

हिंदी पत्रकारिता में नई जगह काम मिल पाना बहुत-बहुत मुश्किल है (अंग्रेज़ी की मुझे जानकारी नहीं)। चाहे आप हमारी तरह चौदह-पंद्रह साल गुज़ार चुके हो या चौदह-पंद्रह महीने काम किया हो.... नई नौकरी पाना सबके लिए मुश्किल है।
पिछले कुछ वक्त से तो स्थिति एकदम ख़राब हो गई है। किसी भी अख़बार, टीवी में देखें उसके मुख्य दरवाज़े पर कोई भारी-भरकम शख्सियत अपनी शख्सियत से भी भारी चूतड़ लेकर बैठी है। इस हकीकत को स्वीकार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल था कि कहीं भी एंट्री आप चूतड़ में घुसे बिना नहीं पा सकते..... मुख्य दरवाज़े तक पहुंचने के लिए जो छोटे रास्ते हैं... उसमें बड़ी शख्सियत के चूतड़ में घुसने वाले अपनी छोटे चूतड़ लेकर बैठे हैं.... छोटे में घुसोगे तो बड़े तक पहुंचोगे.... और फिर उसमें घुसकर ही काम की जगह निकल सकते हो....

अख़बार हो या टीवी... हर जगह स्थिति कमोबेश एक सी नज़र आती है.... आप अख़बारों के- टीवी के नाम गिनते जाओ आपको मुख्य दरवाज़े पर बैठे बड़े चूतड़ का नाम दिख जाएगा....

वैसे सच ये है कि उस सबसे बड़े चूतड़ वाली शख्सियत के मुंह पर कोई लाला पाद रहा है......

आप अब भी चाहो तो ये भ्रम कायम रख सकते हो कि पत्रकारिता की कोई जगह बची है....

तो..... क्या वक्त आ गया है.... पत्रकारिता नाम की चीज़ का भ्रम पाले रहें, गाड़ी पर प्रेस लिखने से मिलने वाली सुविधा के लिए चूतियापा करते
रहें, घर चलाने के लिए धोखे की नौकरी करते रहें....

या....

या विकल्प तलाशें, जिसमें जीवन गुज़ारने लायक पैसा हो और झूठ न बेचना पड़े