Wednesday, January 5, 2011

फैसले का वक्त

मुश्किल है बहुत मुश्किल है....

हिंदी पत्रकारिता में नई जगह काम मिल पाना बहुत-बहुत मुश्किल है (अंग्रेज़ी की मुझे जानकारी नहीं)। चाहे आप हमारी तरह चौदह-पंद्रह साल गुज़ार चुके हो या चौदह-पंद्रह महीने काम किया हो.... नई नौकरी पाना सबके लिए मुश्किल है।
पिछले कुछ वक्त से तो स्थिति एकदम ख़राब हो गई है। किसी भी अख़बार, टीवी में देखें उसके मुख्य दरवाज़े पर कोई भारी-भरकम शख्सियत अपनी शख्सियत से भी भारी चूतड़ लेकर बैठी है। इस हकीकत को स्वीकार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल था कि कहीं भी एंट्री आप चूतड़ में घुसे बिना नहीं पा सकते..... मुख्य दरवाज़े तक पहुंचने के लिए जो छोटे रास्ते हैं... उसमें बड़ी शख्सियत के चूतड़ में घुसने वाले अपनी छोटे चूतड़ लेकर बैठे हैं.... छोटे में घुसोगे तो बड़े तक पहुंचोगे.... और फिर उसमें घुसकर ही काम की जगह निकल सकते हो....

अख़बार हो या टीवी... हर जगह स्थिति कमोबेश एक सी नज़र आती है.... आप अख़बारों के- टीवी के नाम गिनते जाओ आपको मुख्य दरवाज़े पर बैठे बड़े चूतड़ का नाम दिख जाएगा....

वैसे सच ये है कि उस सबसे बड़े चूतड़ वाली शख्सियत के मुंह पर कोई लाला पाद रहा है......

आप अब भी चाहो तो ये भ्रम कायम रख सकते हो कि पत्रकारिता की कोई जगह बची है....

तो..... क्या वक्त आ गया है.... पत्रकारिता नाम की चीज़ का भ्रम पाले रहें, गाड़ी पर प्रेस लिखने से मिलने वाली सुविधा के लिए चूतियापा करते
रहें, घर चलाने के लिए धोखे की नौकरी करते रहें....

या....

या विकल्प तलाशें, जिसमें जीवन गुज़ारने लायक पैसा हो और झूठ न बेचना पड़े