बाबा को शौक़ था प्रवचन देने का... हालांकि वो प्रवचन देने वाला बाबा नहीं था.... वो एक मंदिर का मुख्य पुजारी बना था- हाल ही में। उसे मंदिर चलाते रहना था- बस यही करना था। इस मंदिर का धंधा जम चुका था। इसकी अपनी भक्त संख्या थी। इसमें दर्शन करने के लिए आने वाले भक्तों की संख्या करीब-करीब तय हो चुकी थी। इस मंदिर की ख़ासियत स्थानीय देवी-देवता थे, उनके प्रभाव का प्रचार था। स्थानीय लोग तो यहां आते ही थे- बाहर से आने वाले भी यहां मत्था टेकने ज़रूर आते।
ये मंदिर दरअसल तीन मंदिरों का समूह था..... अपने पापों को धोने के लिए या पैसे को ठिकाने लगाने के लिए एक बिज़नेसमैन ने इसकी स्थापना करवाई थी। एक दबंग किस्म के महंत को सेठ ने मंदिर बनवाने और जमाने का ठेका दिया था। महंत अपने काम में माहिर था। उसने ज़मीन खरीदी, दान में ली या कब्ज़ा ली... मतलब जो भी मंदिर के लिए ज़रूरी था किया। उसने मंदिर को सजाने वाले, पूजा और लंगर की व्यवस्था करने में कुशल, सुर में आरती गाने वाले और वक्त ज़रूरत जिज्ञासु भक्तों को स्थानीय देवताओं का महत्व बताने वाले पुजारी नियुक्त किए। इन सब पर वह ख़ुद नज़र रखता- धमकाता, पुचकारता, पिलाता-खिलाता, घुमाता यानि कि सबकी नकेल अपने हाथ में रखता.... महंत ने मंदिर जमा दिया.... एक से शुरू होकर तीन बड़े मंदिरों का समूह बना दिया...
मंदिरों से होने वाली कमाई और उनके प्रभाव (अधिकारी, नेता भी आखिर धर्मभीरू होते हैं) सेठ और महंत के रिश्तों में दरार डाल दी.... महंत अपनी ठसक के साथ उठकर चला गया....
सेठ को धंधा समझ आ चुका था.... उसने मंदिर ट्रस्ट का एक प्रबंधक नियुक्त किया जो उसका सही मायनों में प्रतिनिधि था... उसे पूजा, भक्ति, प्रवचन से मतलब नहीं था.... वो तो बस चढ़ावे, दर्शन के दौरान व्यवस्था, पुजारियों के वेतन, कपड़ों वगैरा-वगैरा का ध्यान रखता था। हां वो प्रसाद, पूजा सामग्री की दुकानें भी खोल रहा था और उन्हें जमा रहा था..... सेठ ने धर्म को बेशर्मी से कैश करना शुरू कर दिया था....
महंत के जाने के बाद पुजारियों पर नियंत्रण के लिए सेठ को एक भगवाधारी की ज़रूरत थी। बाबा की किस्मत खुल गई.... इससे पहले बाबा कभी भी किसी मंदिर का मुखिया नहीं रहा था.... वो मंदिरों में साधारण पुजारी रहा था बस.... लेकिन उसे प्रवचन देने का बहुत शौक था। इससे पहले उसे प्रवचन देने का मौका नहीं मिला था, आखिर पुजारी की कौन सुनता है.... दरअसल वो पिछले मंदिर से बाहर ही इसी प्रवचनी आदत के चलते हुआ.... दरअसल उसे समझ ही नहीं आया कि प्रवचन देने वालों की कैटेगिरी अलग है.... वो आरती, पूजा नहीं करते.... अगर कर ली तो फिर प्रवचन की मार्केट नहीं बन पाती.... बहुत शौक है तो मंदिर प्रबंधन जब कहे तब थोड़ा बहुत बोल दो- बस.... आदत मत डालो वो ख़तरनाक है..... पर ये ख़तरनाक आदत बाबा को पड़ चुकी थी.... वो मंदिर को चलाने वाले और प्रवचन देने वाले दो अलग किरदारों के बीच झूल रहा था.... जो काम था उसे छोड़ नहीं सकता था और जो शौक है वो उसे छोड़ नहीं रहा था....
तो शौक को मौका मिल गया और वो जिम्मेदारी पर हावी हो गया... बाबा ऐसे प्रवचन देने लगा जैसे कि सस्ती कविताएं कहने वाला सबको पकड़-पकड़ कर कविताएं सुनाता है....सुबह की आरती हो न हो उसने पुजारियों को चर्चा के लिए आना ज़रूरी कर दिया.... हालांकि बहाना ये था कि हर मंदिर का हर दिन नया होता है.... कब कौन सा त्यौहार है, किस देवता का दिन है उसके हिसाब से आरती, प्रसाद, भक्तों की भीड़ के हिसाब से व्यवस्था पर बात की जानी चाहिए.... लेकिन बाबा का ध्यान पुजारियों को प्रवचन देने पर ही रहता.... उन्हें मंदिर की व्यवस्था, भक्ति और आरती के स्तर, प्रसाद की गुणवत्ता से कोई मतलब नहीं रहता.... वो तो बस इस फ़िराक़ में रहते कि जो भी आज तक उन्होंने पढ़ा है- उसे दूसरों पर उड़ेल दें....
ये पुजारियों को कुछ वक्त बाद समझ आया कि बाबा के सवालों का जवाब नहीं देना है... बस चुपचाप बैठे रहना है या खींसे निपोर कर कह देना है कि महाराज नहीं जानते..... तब बाबा पुजारियों की बुद्धि पर तरस खाते हुए जवाब देते.... हां अगर आपने जवाब दे दिया तो आपकी खैर नहीं.....
जैसे कि एक दिन हनुमान की आरती के संबंध में बात हो रही थी कि बाबा ने पूछा कि हनुमान जी की मां कौन थी....
हनुमान मंदिर के पुजारी ने बता दिया- जी अंजनी....
बाबा ने थोड़े गुस्से से कहा नाम तो कोई भी गधा बता देगा.... मैंने पूछा कि मां कौन थी....
जी वो वानरराज कुंजर की बेटी थीं.... उनका विवाह वानरराज केसरी के साथ हुआ था और गुमला से 21 किमी दूर आंजन पहाड़ की चोटी पर एक गुफ़ा में उन्होंने परमवीर हनुमान को जन्म दिया था.....
जन्म दिया था... जन्म दिया था.... अरे जन्म दिया था तभी तो माता बनीं.... पता नहीं कहां से आ गए धर्म के क्षेत्र में....
अरे कोई साधारण वानरी कैसे पवनसुत, महाबली, हनुमान को जन्म दे सकती है.... माता अंजनी पूर्व जन्म में देवराज इंद्र के दरबार में एक अप्सरा थीं.... उनका नाम था पुंजिकस्थला.... वो परम सुंदरी थीं और स्वभाव से चंचल थीं। इसी अतिचंचलता के चलते वह कई बार दूसरों को नाराज़ कर देती थीं.... एक बार पुंजिकस्थला ने तपस्या में लीन एक ऋषि के साथ अभद्रता कर दी। ऋषि की तपस्या भंग हो गई तो उन्होंने श्राप दे दिया कि वानरी की तरह स्वभाव करने वाली जा तू वानरी हो जा। पुंजिकस्थला को अपनी गलती का अहसास हो गया और वह ऋषि से क्षमा याचना करने लगी। ऋषि का क्रोध शांत हुआ तो उन्होंने कहा कि श्राप का प्रभाव तो टल नहीं सकता परंतु तुम्हारा वह रूप भी परम तेजस्वी होगा। तुमसे एक ऐसे पुत्र का जन्म होगा जिसकी कीर्ति और यश से तुम्हारा नाम युगों-युगों तक अमर हो जाएगा। अंजनी के रूप में जन्म लेकर पुंजिकस्थला ने चैत्र मास की शुक्ल पूर्णिमा को महावीर हनुमान को जन्म दिया।
जी-जी महाराज... सही कहे आप कोई साधारण वानरी कैसे महाबली को जन्म देगी....
देखा तुमने (बाबा ने सभी पुजारियों को कहा) ऋषि का क्रोध देख तुरंत अक्ल आ जाती है आज भी (फिर हंसे.... ताकि बाकी भी हंसें)
तो बाबा ने शाम की आरती के बाद प्रवचन देने का नियम बना लिया.... इस प्रवचन में आस-पास के बूढ़े-बुजुर्ग, प्रसाद खाने के लिए लालायित गरीब बच्चे और मंदिर को लड़कियां देखने के लिए सबसे अच्छी जगह मानने वाले लंपट आने लगे...... बाबा उन्हें देख-देख कर ख़ुश होता और बाबा परमहंस जैसी मुद्रा में बैठता.... हालांकि अक्सर वो उन्हीं विषयों पर प्रवचन करता जो उस दिन के अख़बार में धर्म के पन्ने पर छप चुका होता.... पूरा दिन वह उस विषय पर नोट्स बनाने में लगा रहता.... इसके बाद भी शाम का प्रवचन किसी भी बेहद साधारण प्रवचन से बेहद ख़राब और बोरिंग होता.... दरअसल बाबा ये मान बैठा था कि उसके तेज से ही आरती और मंदिर के अन्य कार्यक्रम सफल होते हैं.... कमज़ोर और मजबूर पुजारियों, मुफ़्त का प्रसाद पाने वालों में इतनी हिम्मत थी नहीं कि वो बाबा को सच्चाई बताते.... बाकी मंदिर परिसर में दुकान करने वालों को बाबा से मतलब था नहीं.... वो बस भगवा देख उसे नमस्कार कर देते... बाबा सोचता कि ये सभी उसके भक्त हैं.... इस सबसे बाबा का दिमाग़ इतना ख़राब हो गया था कि वो शीशे में अपना प्रतिबिंब देखकर उसे भी आशीर्वाद देने लगता या फिर ऐसी बात पूछने लगता जो उसने अभी पढ़ी है.... फिर कहता कि चलो तुम्हें तो पता ही होगा तुमने अभी ही पढ़ा है...
ज़ाहिर है बाबा का तेज सिर्फ उन्हीं को महसूस होता था.... बाकी उनसे ऐसे ही दूर भागते जैसे कि किसी बदबूदार जानवर से दूर भागते हैं.... बाबा को लगता कि ये मेरे तेज से घबरा रहे हैं.... वो ख़ुश होता- और जोर से प्रवचन करने लगता.... उसे लगता कि तेज बढ़ रहा है लेकिन दरअसल बढ़ रही थी बदबू....
बाबा बात-बे-बात धर्मक्षेत्र का कोड़ा फटकारता..... अगर किसी पुजारी का पेट ख़राब हो गया और वो सुबह-शाम की चर्चा (यानि कि प्रवचन) में शामिल न हो पाए तो बाबा नाराज़ हो जाता- धर्म का काम करने का दावा करते हैं लेकिन पेट पर नियंत्रण तक नहीं रख सकते... घिन आती है...
पुजारियों को भी घिन आती थी.... बदबू बढ़ती जा रही थी.... अब डर इस बात का था कि किसी दिन कोई कै न कर दे....
Monday, March 28, 2011
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