अरुणिमा सिन्हा उर्फ़ सोनू सिन्हा पर लंSSSSSबा भाषण सुना.... बहुत चिंता जताई गई कि संवेदनहीन हो रहा है समाज.... शर्म ज़ाहिर की गई, थू-थू किया गया.... समाज को बार-बार बोलकर सीख दी गई... चेतावनी दी गई कि सीख लो मूर्खों वरना देश तरक्की नहीं कर पाएगा... संवेदनशील बनो, संवेदनशील बनो, संवेदना के बिना आदमी इंसान नहीं लाश है- जिंदा चलती-फिरती लाश
मैं अभीभूत हो ही गया था... करीब-करीब हो ही गया था, लेकिन याद आया... याद आया कि कि अभीभूत नहीं होना है- भाषण को याद करना है और सामने पड़ने पर प्रशंसात्मक स्वर में रख देना है... अभीभूत होने का दिखावा करना है... कहना है कि सही कहा सर- संवेदनहीन हो रहा है समाज.... लेकिन संवेदनशील होना नहीं है, बिल्कुल नहीं होना- अगर नौकरी बचानी है तो....
सोचो कि अगर रास्ते में एक्सीडेंट हो जाए और आप रुक जाएं मदद करने के लिए... फिर क्या होगा... आदमी बचेगा या नहीं यह तो पता नहीं..... पर एक बात तो तय है कि आप ऑफ़िस पहुंचने में लेट हो जाएंगे.... लेट हो जाएंगे तो यहां भी एक्सीडेंट होगा.... बॉस का मूड ख़राब होगा- सुबह-सुबह पॉलिश किया गया चेहरा विकृत हो जाएगा.... तमीज चली जाएगी तेल लेने और वो घिनाते स्वर में आपको बताएगा कि काम के प्रति समर्पण नहीं है तुममें.... पत्रकारिता समर्पण मांगता है... संवेदनशीलता नहीं.....
समझ लो कि संवेदना जगे तो सिर्फ़ इसलिए कि शेव करते हुए बॉस का चेहरा थोड़ा कट गया..... इसलिए भावुक नहीं होना कि घर में बेटी बीमार है- डॉक्टर को दिखाना ज़रूरी हो गया है.....
ट्रेन में सोनू पर हमला हुआ सब चुप रहे.... इसमें आश्चर्य की क्या बात है....
पड़ोसी बीमार पड़ जाए तो आप परेशान हो जाते हैं कि साला अस्पताल जाना पड़ेगा.....
सालों बाद कोई दोस्त मिल जाए तो उससे कहना पड़ता है कि भाई रात को घर आना और सुबह चले जाना.... समझा करो इस नौकरी में दोस्ती नहीं होती.....
दोस्ती तो फिर दूर की बात है.... इस नौकरी में तो परिवार को भी भूल ही जाना पड़ेगा.... बीवी बीमार हो तो, बेटी बीमार हो तो, आप ख़ुद बीमार हों तो भी- डॉक्टर को दिखाने के लिए भी कई बार सोचना पड़ेगा- कई डायलॉग सुनने के लिए खुद को तैयार करना पड़ेगा.... पत्रकारिता में नौकरी करनी है तो- न काहू से दोस्ती, न काहू से प्यार की स्थिति को प्राप्त होना पडेगा..... अपने प्रति भी संवेदनाओं को मारना पड़ेगा.... ज़िंदा लाश बनना पड़ेगा....
ऐसा लग रहा होगा कि ज्यादा बोल रहा हूं..... तो ये किस्सा सुनो.....
दो महीने भर पहले मुंहअंधेरे (करीब पौने छे बजे) मेरी बीवी की गाड़ी से एक्सीडेंट हो गया.... नोएडा- सेक्टर 12 मेट्रो हॉस्पिटल से कुछ पहले 21-22 साल का एक लड़का नाइट शिफ्ट कर लौट रहा था- गाड़ी से टकरा गया.... विंड स्क्रीन पूरी तरह टूट गई, गाड़ी साइड से पिचक गई.... तो सोचो लड़के का क्या हाल हुआ होगा.... हाथ में, छाती में, सिर पर चोट लगी.... सुन कर मैं इंदिरापुरम से दौड़ा-दौड़ा आया.... सहारा के कुछ लोग पहले ही पहुंच चुके थे..... लड़के को प्राथमिक उपचार मेरे पहुंचने से पहले ही दिया जा चुका था.... लेकिन डॉक्टर कुछ कहने को तैयार नहीं थे..... वक्त लगा.... एक्सरे हुआ, एमआरआई हुआ और करीब चार-साढ़े चार घंटे बाद डॉक्टरों ने लड़के के भाई को उसे घर ले जाने की इजाज़त दे दी....
पांच घंटे के इस वक्त के दौरान मेरी बीवी तो बेहद तनाव में रही ही- मैं भी सामान्य दिखने की नाकाम कोशिश करता रहा..... ये तनाव हावी रहा कि अगर इस लड़के को कुछ हो गया तो.... तो क्या होगा.... एक जवान लड़के की मौत से क्या आप आसानी से हाथ झाड़कर निकल सकते हैं??? नहीं बिल्कुल नहीं.....
अब भी लगता है कि मान लो उस लड़के की मौत हो जाती और किसी तरह कानून के फंदे से निकल जाते तो.... तो भी क्या आप खुद को माफ़ कर पाते.... शायद कभी नहीं....
अब उस दिन यकीनन मैं ऑफ़िस वक्त पर नहीं पहुंच पाया.... आया लेकिन ढाई-तीन घंटे लेट.... यहां आकर मुझे सहानुभूति नहीं- फटकार मिली..... पत्रकारिता पर अर्थहीन भाषण मिला.... बताया गया कि कोई मरे या जिये- बॉस के दिए वक्त पर हाजिरी बजाना ही परम कर्तव्य होना चाहिए..... साथियों ने बताया कि मीटिंग में भी घृणा भरकर पूछा गया कि इसे (मुझे) इतनी भी तमीज नहीं कि मीटिंग में आना ज़रूरी है या अस्पताल जाना (!!!!!)
एक साथी की चाची मर गई.... पता चला कि नहीं आ पाया.... संवेदनशीलता की मिसाल देखिए- आजकल बहुत चाची-मामी मर रही हैं लोगों की.... ज़्यादा छुट्टियां चाहिएं तो.... (बोलते-बोलते रह गए शायद कि- मां-बाप को मार दो। बता दूं कि एक साथी के पिता की मृत्यु हो गई थी और वो लंबी- शायद 15 दिन- की छुट्टी पर थे)
नोएडा में घर में कैद दोनों बहनों में से एक की मौत हो गई.... तो समाज की चेतना पर सवाल उठाए गए..... संवेदनहीन होते जाने पर चिंता की गई..... सोनू सिन्हा को ट्रेन से फेंक दिया गया तो समाज को झकझोरने के लिए भाषण दिया गया.... मैं सोचता हूं कि अगर रोज़-रोज़ सरेआम ज़लील किए जाने से, बार-बार ख़ुद को नाकारा, मूर्ख बताए जाने से हम में से कोई अगर डिप्रेशन में आ गया.... अगर कोई घर-बार भूलकर यहीं, इसी ऑफिस में पड़ा रह गया.... भूखा-प्यासा जब तक हिम्मत रही दौड़ता रहा फिर गिर गया.... तो....
तो महान संवेदनशील आदमी क्या करेगा....
वो घिन करेगा- घृणित बातें बोलेगा और कहेगा कि इसे उठाकर बाहर फेंक दो- बदबू करने लगा है
Friday, April 15, 2011
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