नमस्कार, मैं आपसे मदद चाहता हूँ. माननीय हाईकोर्ट जबलपुर में पत्रकारों पर फर्जी मामले लादे जाने के विषय में मेरी एक शिकायत के जवाब में सिवनी पुलिस प्रशासन द्वारा कहा गया है कि स्ट्रिंगर पत्रकारों की श्रेणी में नही आते हैं. अर्थात स्ट्रिंगर पत्रकार नहीं होते हैं. ऐसी स्थिति में तो सभी चैनलों में काम करने वाले स्ट्रिंगरों के सामने उनकी पहचान पर प्रश्नचिन्ह लग गया है.
जबकि सारे न्यूज़ चैनल स्ट्रिंगरों को संवाददाता कह कर पुकारते हैं. हर फ़ोनो में संवाददाता कह कर ही सम्बोधित किया जाता है. मेरी आपसे प्रार्थना है कि प्रेस लाइन से जुड़े कानूनविदों से इस विषय पर सलाह लेकर मुझे मार्ग बतायें ताकि पूरे देश में काम कर रहे स्ट्रिंगर भाइयों के हित के लिए मैं माननीय हाईकोर्ट में अपना पक्ष रख सकूं.
राजेश स्थापक
सिवनी
देश के सबसे लोकप्रिय मीडिया पोर्टल भड़ास4मीडिया पर 21 मार्च, 2011 को ये अपील छपी थी.... तीन कमेंट आए जिनमें से एक रिपीट था.... राजेश जी को उनकी ज़रूरत की सलाह देने वाला कोई कमेंट तो कोई नहीं था लेकिन दोनों कमेंट हौसला बढ़ाने वाले ज़रूर थे....
सरकार क्या कर सकती है ये तो रामलीला मैदान कांड के बाद तो ये सवाल पूछा जाना बेमानी है.... लेकिन आज का मेरा विषय सरकार नहीं स्ट्रिंगर्स ही हैं....
अख़बार-टीवी की दुनिया में स्ट्रिंगर बेहद महत्वपूर्ण होते हैं..... अख़बार-टीवी की सत्तर फ़ीसदी तक रिपोर्टिंग स्ट्रिंगर्स ही करते हैं.... मुझे नहीं पता कि ये धारणा न जाने कहां से आई और अब तक लगातार कायम कैसे है कि स्ट्रिंगर्स ‘चालू’ होते हैं.... ‘चालू’ मायने वो ‘इधर-उधर’ से कमा लेते हैं- उन्हें पैसे की ज़रूरत नहीं होती.... वो तो बस आईडी या आईकार्ड चाहते हैं और फिर वारे न्यारे करते रहते हैं.....
न जाने स्ट्रिंगर्स को पैसे लेकर रखवाने और फिर सिर्फ़ रौब ग़ालिब करने के लिए उन्हें हटा देने की शर्मनाक प्रथा कैसे अब तक कायम है....
हो सकता है कि कुछ स्ट्रिंगर्स भी गड़बड़ करते हों.... लेकिन कौन सा अख़बार या चैनल ये दावा कर सकता है कि उसके स्टाफ़र करप्ट नहीं हैं...
मैं बहुत से ऐसे स्टाफ़र्स को निजी तौर पर जानता हूं (आप सभी जानते होंगे) जो करप्शन में नेताओं को टक्कर देते हैं... लेकिन वो एक के बाद दूसरे चैनल में ज़्यादा तरक्की (ज़्यादा पैसा-बड़ा पद) पा जाते हैं.... पत्रकारिता की शुचिता पर भाषण देते हैं.... और तो और ये भी बताते हैं कि कैसे नेता उनके सवालों से कांप जाते हैं (?????)….
ख़बरों से पैसा उगाहने या धंधा जमाने-बढ़ाने के लिए खुलने वाले अख़बार या चैनल पैसा लेकर स्ट्रिंगर्स रख रहे हैं- ये करीब-करीब तय हो चुका है.... मध्यम दर्जे के चैनल रिपोर्टर्स-स्ट्रिंगर्स को एड का टारगेट दे रहे हैं- ये हम सभी जानते हैं..... और बड़े चैनलों के बड़े पत्रकार बड़े मामलों की सैटिंग कर रहे हैं ये नीरा राडिया ने पूरी दुनिया को बता दिया है...
सहारा और साधना में काम करते हुए मैंने कुछ अच्छे रिपोर्टर्स को जाना है, ऐसे रिपोर्ट्स जो स्थान, वक्त और संस्थान की ज़रूरत के अनुसार स्ट्रिंगर हैं..... मेरठ में आशीष शर्मा स्ट्रिंगर था... बहुत अच्छा रिपोर्टर - न्यूज़ और विज़ुअल दोनों सेंस अच्छी थी और मेरठ से लौटने के बाद (रिपोर्टिंग असाइनमेंट से) मैंने साफ शब्दों में ये बात अपने सभी सीनियर्स को कही थी कि वो ज़्यादातर स्टाफर्स से बेहतर है.... हालांकि मुझे ये बात बाद में समझ आई कि नौकरी पाना हो सकता है कि किस्मत हो लेकिन नौकरी में तरक्की पाना पूरी तरह स्किल है.... आप काम कैसा करते हैं, कितने समर्पण से करते हैं, कितने विद्वान या दक्ष हैं- इसका तरक्की से कोई वास्ता नहीं.... आप तरक्की करने वाले को कैसे सेट कर पाते हैं- बस यही काउंट करता है....
मैं कुछ स्ट्रिंगर्स के नाम याद करता हूं तो सहारा के स्ट्रिंगर्स में से मेरठ में आशीष शर्मा (शायद अब भी वहीं है), बिजनौर में ज्योतिलाल शर्मा, इटावा में दिनेश शाक्य, मुगलसराय में चंद्रमौली केसरी, देहरादून में अजय राणा, रामनगर में गणेश रावत, बागेश्वर में हेमंत रावत, विकासनगर में कुंवर जावेद, रुड़की में ईश्वर चंद, रुद्रपुर में भरत शाह, रुद्रप्रयाग में बृजेश सती....
साधना के स्ट्रिंगर्स में से हरिद्वार में धर्मेंद्र चौधरी, कोटद्वार में राजगौरव नौटियाल, रुड़की में आरिफ़ नियाज़ी, रुद्रप्रयाग में सुनित चौधरी, गोपेश्वर में देवेंद्र रावत, उत्तरकाशी में सुभाष चंद्र, अल्मोड़ा में बृजेश तिवारी, धर्मशाला में अनूप धीमान, किन्नौर में विशेषर नेगी, मंडी में अंकुश सूद.... के अलावा और भी बहुत से ऐसे साथी होंगे जिनके नाम अभी याद नहीं आ रहे....
इन सभी के बारे में मैं दावा कर सकता हूं कि ये बहुत अच्छे रिपोर्टर हैं और ये स्ट्रिंगर के नाम पर होने वाले शोषण, अपमान से मुक्त होने के हकदार हैं.....
ज़्यादातर स्ट्रिंगर हमेशा आर्थिक अनिश्चितता से जूझते रहते हैं.... एक स्ट्रिंगर ने एक बार मुझसे कहा था कि- सर चाहे पांच हज़ार महीने का मिले लेकिन प्लीज़ ऐसा कुछ करें कि ये हर महीने मिल जाए..... उधार करते-करते शर्म आने लगती है.....
लेकिन अब तो पुलिस और प्रशासन तक इनसे भेदभाव करने लगे हैं..... सिर्फ़ सिवनी के राजेश का ये दर्द नहीं है.... कई जगह अधिकारी रिपोर्टर्स से समूह से पूछने लगे हैं कि कौन स्टाफ़र है और कौन स्ट्रिंगर.... और दोनों से अलग बर्ताव भी करने लगे हैं.....
भड़ास में ही अगर आप स्ट्रिंगर सर्च करें तो आपको स्ट्रिंगर्स का दर्द नज़र आएगा..... हममें से बहुत सारे लोग अभी इन स्ट्रिंगर्स के लिए कुछ ठोस करने की स्थिति में नहीं होंगे.... लेकिन मैं अपने सभी साथियों से आग्रह करूंगा कि वो कम से कम स्ट्रिंगर्स को उसके पद के बजाय पत्रकारिता के ज्ञान और समर्पण के आधार पर तोलें.... हमारी मानसिकता बदलेगी तो ज़रूर कुछ बदलेगा......
Saturday, June 18, 2011
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