फटी हुई है.... बुरी तरह- फटी हुई है.... न बैठा जाता है, न खड़े रह पाते हैं और चलना-फिरना तो कhttp://www.blogger.com/img/blank.gifतई मुहाल हो गया है.... लेकिन फिर भी दौड़ना पड़ता है और नाचना पड़ता है.... क्योंकि हमारे तहखाने के बूढ़े आदमखोर को नौटंकी बहुत पसंद है... हमारे क्या हिंदी पत्रकारिता के सभी बूढ़े आदमखोरों को नौटंकी पसंद है.... भाषण देंगे पत्रकारिता की नैतिकता पर- लेकिन अपने ही अधीनस्थों को मौलिक अधिकार तक देना पसंद नहीं... लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ में सवाल पूछने की सख्त मनाही है... जी-जी, यस सर से आगे बढ़े तो आगे बढ़ने को (बाहर जाने को) ही कह दिया जाएगा.... हिंदी अख़बारों- चैनलों में काम कर रहे ज़्यादातर लोगों की मानसिक हालत सड़क किनारे कटने के इंतज़ार में पिंजरे में बंद मुर्गों सी होती है...http://www.blogger.com/img/blank.gif. पंख झड़ गए हैं- उम्मीद के, बांग लगाना भूल गए हैं- ज़्यादती के विरोध की और पिंजरे में अपनी बारी का इंतज़ार करते भूल गए हैं चलना- किसी नए विचार, किसी नए ख़्याल की ओर....
मेरी बात पर यकीन न हो तो भड़ास4मीडिया जैसी बेवसाइट्स पर पत्रकारों से जुड़ी ख़बरें, उनकी व्यथा पढ़िए.... ये गरीब हैं, डरे हुए हैं और किसी बाल श्रमिक की तरह असहाय हैं- जो न तो अपने हक की आवाज़ उठा सकते हैं, न एक साथ इकट्ठे हो सकते हैं, गालियां खाना- भूखे रहना जिन्हें अपनी किस्मत लगती है, जो ये नहीं समझ पा रहे कि जाएं तो जाएं कहां....
बहुत दुख की बात है- जो स्मार्ट हैं, मजबूत हैं, वो दलाल नज़र आते हैं....
जिस समाज का watchdog बीमार हो उस पर नज़र कौन रखेगा...
Thursday, August 11, 2011
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