Friday, February 15, 2013

ऑफ़िस की यात्रा के नाम

सालों बाद ऑफ़िस टाइम में यात्रा करनी पड़ रही है.... मैं एक बार फिर सलाम करता हूं उन लोगों को जो सालों से रोज़ यह काम कर रहे हैं। बहुत हिम्मत चाहिए ऐसे यात्रा करने के लिए या चाहिए सिर्फ़ मजबूरी !
इंदिरापुरम से उद्योग भवन तक का सफ़र मुझे बार-बार प्याज और कोड़े वाली कहानी याद दिलाता है। मैट्रो में खड़े-खड़े यात्रा कर पैर दुखने लगते हैं तो लगता है कि बाइक से आना बेहतर है... बाइक से आओ तो जाम की घिटपिच से परेशान हो मैट्रो ही बेहतर लगने लगती है।
मैट्रो का सफ़र दिल्ली (मतलब एनसीआर) के सार्वजनिक परिवहन से बस थोड़ा ही अलग है.... बस इस मायने में कि इसके दरवाज़े बंद होते हैं और यह एसी है। लेकिन अब इसमें भी भीड़ भरे सफ़र के वही मज़े आने लगे हैं जो ब्ल्यू लाइन बसों में या भीड़ भरी ट्रेनों में आते हैं।
दरअसल पिछले कुछ वक्त से दिमाग शांत है। ज़िम्मेदारियां तो हैं लेकिन यह विश्वास भी है कि निबाह लेंगे। इसलिए अब रास्ते की भीड़ को देखकर गुस्सा नहीं आता मज़ा आता है।
आजकल मैट्रो की भीड़ को देखकर भी मज़ा आता है और एक सी रफ़्तार में एक-दूसरे से होड़ लगाती, टेढ़ी-मेढ़ी चलती गाड़ियों-बाइकों को देखकर भी।
वैसे मज़ा मैट्रो में ज़्यादा आता है। भीड़ है न, इसके अपने मज़े हैं।
यहां आपको सूट पहने हुए लोग भी मिलते हैं और प्लास्टिक की चप्पल पहने हुए भी।
ज़्यादातर लोग खुद ही बोरों की तरह डब्बे में ठुंस जाते हैं। लगता है कि एक अघोषित सोच व्याप्त हो गई है- यही आखिरी मौका है, चढ़ लो फिर पता नहीं मौका मिले न मिले।
मैं खुद भी अगली मैट्रो का इंतज़ार करना पसंद नहीं करता, क्योंकि मुझे पता है कि मैट्रो से ज़्यादा लोग हैं। मैट्रो तो दो मिनट में एक आती है लोग हर मिनट में सैकड़ों।
पिछले तीन हफ़्ते की मैट्रो की यात्रा ने ने सालों पुरानी यादें ताज़ा कर दी हैं। लोग अब भी वैसे ही हैं जैसे रेड लाइन लाइन बसों के वक्त थे (बस वाहन और उसका ऑपरेटर बदला हुआ है।
लोग तो कुछ ऐसे हैं कि खुद घुस गए तो बाहर वालों को अगली गाड़ी में आने की सलाह देने लगते हैं।
कुछ ऐसे हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए इसमें घुस कर ही मानेंगे।
कुछ को भीड़ से ऐतराज होता है।
कुछ भीड़ में मज़े लेते हैं- हाथ छोड़ देते हैं, भीड़ के साथ झूलते रहते हैं।
कुछ भीड़ में भी अकेले व्यक्ति को ढूंढ लेते हैं और धक्का देने की तमीज सिखाने लगते हैं।
ऐसे लोग भी हैं जो यह मानकर चलते हैं कि उन्हीं जैसों को मैट्रो जैसी साफ़ और शानदार सवारी में घुसने की इजाज़त होनी चाहिए- सबको नहीं। ऐसे लोग सबसे आसानी से पहचाने जाते हैं।
इस सबके बीच आप शांत रहें तो आपको बहुत से मज़ेदार पल जीने को मिल सकते हैं।
आप देख सकते हैं कि कैसे लोग मैट्रो में जबरन घुस रहे हैं और फिर इस कोशिश में लगे हैं कि बस किसी तरह दरवाज़ा बंद हो जाए। दरवाज़ा बंद तो आप इस गाड़ी वाले हो गए।
दरवाज़ा बंद न हो रहा हो तो कम से कम दो आवाज़ें ज़रूर आएंगी कि अगली गाड़ी में आ जाना भाई, यही अकेली थोड़े है। हालांकि यह बोलने वाले खुद गाड़ी छोड़ते होंगे इसमें मुझे संदेह रहता है।
बंद होते दरवाज़े के बीच में हाथ डालना दंडनीय अपराध है, लेकिन लिफ़्ट की तरह मैट्रो के गेट को भी रोज़ सैकड़ों या हज़ारों बार बंद होने से रोका जाता है- कभी हाथ डालकर, कभी पैर डालकर, कभी खुद पूरा आधा बीच में घुसकर। एक बार तो एक युवती ने तो अपना सिर डालकर गेट को बंद होने से रोका- बाकी का शरीर पता नहीं रह गया था।
बहरहाल मैट्रो ने दिल्ली वालों का तमीज वाला पक्ष उजागर किया है। मैंने कभी किसी को महिला के लिए सीट देने में आनाकानी करते नहीं देखा।
हालांकि अब मैट्रो में अक्सर यह सुनाई देने लगा है कि मैट्रो और ब्ल्यू लाइन में कोई फ़र्क नहीं रह गया। लेकिन हम सब जानते हैं कि दरअसल फर्क बहुत है।
मैट्रो के प्रशासन-संचालन-भीड़ से इतर एक सवाल मुझे समझ नहीं आ रहा- मेरा मैट्रो या मेरी ?