मायावती और ओबामा की तुलना करने पर कई लोगों को ऐतराज़ है। ओबामा की पढ़ाई-लिखाई, सलीका और राष्ट्रपति पद तक पहुंचने की तैयारी के मुकाबले मायावती नहीं ठहरतीं... लेकिन चमत्कार करने की क्षमता मायावती में भी है....
हाल ही में मायावती ने एक बहुत मज़ेदार बयान दिया था... जिस पर हमारे कई मित्रों ने सवाल उठाया था कि कोई भी नेता सार्वजनिक रूप से इतना बेवकूफ़ाना बयान दे कैसे सकता है.... वो बयान था- कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब किसी दलित की झोपड़ी में ठहरता है तो अगले दिन उसे एक विशेष साबुन से नहलाया जाता है। -- सचमुच ऐसा बयान सिर्फ़ मायावती ही दे सकती हैं... लेकिन आप-हम इसे चाहे कितना ही बेवकूफ़ाना मानें लेकिन विश्लेषक मानते हैं कि मायावती के वोटर उनकी बात पर यकीन करते हैं।
क्यों करते हैं इसके लिए आपको मैं ओबामा की बात सुनाना चाहूंगा...
ओबामा ने अपनी आत्मकथा 'ऑडैसटी ऑफ होप' में कहा है कि उनसे मिलने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर ने साबुन से हाथ धोए थे--- उन्हीं के सामने। आत्मकथा के अनुसार चार साल पहले वह (ओबामा) अन्य नवनिर्वाचित सीनेटरों के साथ राष्ट्रपति बुश से नाश्ते पर मिलने के लिए गए थे। बुश ओबामा को अलग ले गए और अपनी पत्नी लौरा से मिलवाया। उन्होंने लौरा से कहा, 'तुम्हें याद है ओबामा, इन्हें हमने टीवी पर देखा था। बहुत अच्छा परिवार। और आपकी पत्नी - प्यारी महिला हैं।' इसके बाद बुश और ओबामा ने हाथ मिलाए। ओबामा के मुताबिक इसके बाद बुश तुरंत अपने एक सहायक की तरफ मुड़े़ जिसने उनके दाहिने हाथ पर सैनिटाइजर डाला। बुश ने ओबामा से कहा, 'हाइजीन का ख्याल रखते हुए मैंने सैनिटाइजर डाला।'
ख़बर अभी (ये पोस्ट 11 तारीख को ही लिख ली थी- तकनीकि दिक्कत की वजह से आज पोस्ट कर रहा हूं)आई है और इस पर बुश की प्रतिक्रिया नहीं मिली है। अब अगर बुश इस बात का खंडन करते हैं और जितनी चाहे ज़ोर से करें अमेरिका और पूरी दुनिया के ब्लैक लोग ओबामा की बात पर यकीन करेंगे। वो भी करेंगे जिन्होंने रंगभेद को देखा है- झेला है और किया है।
अब शायद मायावती और ओबामा में संबंध साफ़ होने लगे।
Wednesday, November 12, 2008
Wednesday, November 5, 2008
संवाद नहीं एकालाप
ये गुस्सा है जो मैं बरसों पालता रहा हूं.... एक वरिष्ठ बन चुके पत्रकार, ब्लॉगर के प्रति। मैं इसे यहां नहीं देना चाहता था। मैंने अनिल रघुराज के मशहूर ब्लॉग पर ही ये टिप्पणी के रूप में डाला था। उनके जन्मदिन की पोस्ट के कुछ दिन बाद। ये टिप्पणी उस पोस्ट पर की गई थी जिसमें उन्होंने जन्मदिन के बहाने खुद को भगत सिंह से तोलने की कोशिश की थी। लेकिन ये कमेंट पब्लिश नहीं हुआ। हो सकता है काफ़ी दिन बाद देखा भी न हो। लेकिन जो बात उनके प्रताड़ित लोग पीठ पीछे करते रहते हें उसे कम से कम एक बार सामने कह देना ज़रूरी है....
अनिल जी नमस्कार
आपको शायद याद न हो पर कुछ बातें और कुछ लोग और भी हैं जिन्हें आपको अपने जन्मदिन पर याद करना चाहिए। ऐसे लोग जिन पर आपके व्यक्तित्व की अमिट छाप पड़ी है।
वर्ष 1998 में अमर उजाला का हरियाणा संस्करण शुरू हो रहा था। राजेश रपरिया जी संपादक थे और आप उनके दाहिने हाथ। मैं भी पंजाब केसरी से एक रेफ़रेंस लेकर पहुंचा था। आपने ने ही कॉपी लिखवाई थी- पास किया था। उसके बाद आपने मुझसे जल्द से जल्द जॉयन करने के लिए कहा था तो मैंने पूछा था कि पैसा और पद बता देते तो इस्तीफ़ा देते वक्त दिक्कत नहीं होती। आपने अपने श्रीमुख से कहा था- सब एडिटर, साढ़े चार हज़ार रुपये। पंजाब केसरी छोड़ने और अमर उजाला से जुड़ने के मोह के चलते मैं तीन दिन बाद ही जालंधर को हमेशा के लिए छोड़ यहां पहुंच गया। हां ये भी बता दूं कि मेरे लिए अमर उजाला अख़बार पत्रकारिता करने की शानदार जगह और आप शायद मेरे तब तक के सीनियर्स में सबसे तमीजदार (और आदर्श भी) लग रहे थे। {पर उसके बाद जो मोहभंग, दोनों ही पुरानी प्रतिष्ठा के आस-पास भी नहीं पहुंच पाए हो}
पहली तनख्वाह मिली तो पता चला कि मैं तो ट्रेनी हूं और वेतन 4 हज़ार रुपये मात्र है। इस पर मैं फिर आपसे मिला- आपने कहा- देखो राजेश जी अभी राजेश जी (रपरिया जी)लोगों को जांच रहे हैं, परख रहे हैं। सभी को तो सब एडिटर नहीं बनाया जा सकता। कुछ को सब एडिटर, कुछ को जूनियर सब, कुछ को सीनियर सब बनाया जाएगा। पैसा भी ठीक हो जाएगा। आपकी तो 'स्पीड' भी अच्छी है- अगले महीने सब ठीक हो जाएगा।
अगला महीना पूरा होने से पहले आप जर्मनी चल दिए थे- वॉयस ऑफ़ जर्मनी में अपनी प्रतिभा का झंडा गाड़ने।
इसके बाद रपरिया जी से मिले तो उन्होंने हाथ झाड़ दिए।
भई अनिल से पूछो।
सर वो तो चले गए....
तो मैंने तो नहीं कहा था न.... और फिर तुम लोग कोई बहुत अच्छे भी नहीं हो।
सर हम लोग या मैं...
भई मैं तो सबका हिसाब नहीं रख सकता....
बहरहाल इसी दौरान मुझे पता चला कि मैं ही नहीं मृत्युंजय, इंदु जी, शील भारद्वाज और हां शुक्ला जी भी आपके ही शिकार थे।
इसके बाद मुझे पता चला कि आप कभी काफ़ी विद्रोही थे
(जो आप शायद अब भी गा-बेच रहे हो)
लेकिन फिर दुनिया बदलने का आपका मोह भंग हो गया... पर्वत सी पीर नहीं पिघल पाई, तो आप दूसरी दिशा में भागने लगे, आप वो सियार हो गए जो शेर के लिए गधों को फंसाकर लाता था। पूरी दुनिया को परिवार बनने के बजाय आप अपने परिवार और उससे भी ज़्यादा अपने लिए सोचने-करने लगे।
अब मुझे लगता है कि आपके ब्लॉग का नाम बिल्कुल सही है एक हिंदुस्तानी की डायरी। सही है हम हिंदुस्तानी स्वभाव से ढोंगी ही होते हैं, ज़ुबां में कुछ दिल में कुछ वाले। मुझे लगता है कि आपके मुकाबले आपके पिताजी काफ़ी ईमानदार आदमी रहे होंगे और आप उनकी उम्मीदों से काफ़ी आगे निकल गए हैं....
देर से ही सही जन्मदिन मुबारक
(आप जैसे लोग ज़रूरी हैं- ताकि बूढ़े होते शिकारी भूखे न मर जाएं)
अनिल जी नमस्कार
आपको शायद याद न हो पर कुछ बातें और कुछ लोग और भी हैं जिन्हें आपको अपने जन्मदिन पर याद करना चाहिए। ऐसे लोग जिन पर आपके व्यक्तित्व की अमिट छाप पड़ी है।
वर्ष 1998 में अमर उजाला का हरियाणा संस्करण शुरू हो रहा था। राजेश रपरिया जी संपादक थे और आप उनके दाहिने हाथ। मैं भी पंजाब केसरी से एक रेफ़रेंस लेकर पहुंचा था। आपने ने ही कॉपी लिखवाई थी- पास किया था। उसके बाद आपने मुझसे जल्द से जल्द जॉयन करने के लिए कहा था तो मैंने पूछा था कि पैसा और पद बता देते तो इस्तीफ़ा देते वक्त दिक्कत नहीं होती। आपने अपने श्रीमुख से कहा था- सब एडिटर, साढ़े चार हज़ार रुपये। पंजाब केसरी छोड़ने और अमर उजाला से जुड़ने के मोह के चलते मैं तीन दिन बाद ही जालंधर को हमेशा के लिए छोड़ यहां पहुंच गया। हां ये भी बता दूं कि मेरे लिए अमर उजाला अख़बार पत्रकारिता करने की शानदार जगह और आप शायद मेरे तब तक के सीनियर्स में सबसे तमीजदार (और आदर्श भी) लग रहे थे। {पर उसके बाद जो मोहभंग, दोनों ही पुरानी प्रतिष्ठा के आस-पास भी नहीं पहुंच पाए हो}
पहली तनख्वाह मिली तो पता चला कि मैं तो ट्रेनी हूं और वेतन 4 हज़ार रुपये मात्र है। इस पर मैं फिर आपसे मिला- आपने कहा- देखो राजेश जी अभी राजेश जी (रपरिया जी)लोगों को जांच रहे हैं, परख रहे हैं। सभी को तो सब एडिटर नहीं बनाया जा सकता। कुछ को सब एडिटर, कुछ को जूनियर सब, कुछ को सीनियर सब बनाया जाएगा। पैसा भी ठीक हो जाएगा। आपकी तो 'स्पीड' भी अच्छी है- अगले महीने सब ठीक हो जाएगा।
अगला महीना पूरा होने से पहले आप जर्मनी चल दिए थे- वॉयस ऑफ़ जर्मनी में अपनी प्रतिभा का झंडा गाड़ने।
इसके बाद रपरिया जी से मिले तो उन्होंने हाथ झाड़ दिए।
भई अनिल से पूछो।
सर वो तो चले गए....
तो मैंने तो नहीं कहा था न.... और फिर तुम लोग कोई बहुत अच्छे भी नहीं हो।
सर हम लोग या मैं...
भई मैं तो सबका हिसाब नहीं रख सकता....
बहरहाल इसी दौरान मुझे पता चला कि मैं ही नहीं मृत्युंजय, इंदु जी, शील भारद्वाज और हां शुक्ला जी भी आपके ही शिकार थे।
इसके बाद मुझे पता चला कि आप कभी काफ़ी विद्रोही थे
(जो आप शायद अब भी गा-बेच रहे हो)
लेकिन फिर दुनिया बदलने का आपका मोह भंग हो गया... पर्वत सी पीर नहीं पिघल पाई, तो आप दूसरी दिशा में भागने लगे, आप वो सियार हो गए जो शेर के लिए गधों को फंसाकर लाता था। पूरी दुनिया को परिवार बनने के बजाय आप अपने परिवार और उससे भी ज़्यादा अपने लिए सोचने-करने लगे।
अब मुझे लगता है कि आपके ब्लॉग का नाम बिल्कुल सही है एक हिंदुस्तानी की डायरी। सही है हम हिंदुस्तानी स्वभाव से ढोंगी ही होते हैं, ज़ुबां में कुछ दिल में कुछ वाले। मुझे लगता है कि आपके मुकाबले आपके पिताजी काफ़ी ईमानदार आदमी रहे होंगे और आप उनकी उम्मीदों से काफ़ी आगे निकल गए हैं....
देर से ही सही जन्मदिन मुबारक
(आप जैसे लोग ज़रूरी हैं- ताकि बूढ़े होते शिकारी भूखे न मर जाएं)
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