Wednesday, November 5, 2008

संवाद नहीं एकालाप

ये गुस्सा है जो मैं बरसों पालता रहा हूं.... एक वरिष्ठ बन चुके पत्रकार, ब्लॉगर के प्रति। मैं इसे यहां नहीं देना चाहता था। मैंने अनिल रघुराज के मशहूर ब्लॉग पर ही ये टिप्पणी के रूप में डाला था। उनके जन्मदिन की पोस्ट के कुछ दिन बाद। ये टिप्पणी उस पोस्ट पर की गई थी जिसमें उन्होंने जन्मदिन के बहाने खुद को भगत सिंह से तोलने की कोशिश की थी। लेकिन ये कमेंट पब्लिश नहीं हुआ। हो सकता है काफ़ी दिन बाद देखा भी न हो। लेकिन जो बात उनके प्रताड़ित लोग पीठ पीछे करते रहते हें उसे कम से कम एक बार सामने कह देना ज़रूरी है....


अनिल जी नमस्कार

आपको शायद याद न हो पर कुछ बातें और कुछ लोग और भी हैं जिन्हें आपको अपने जन्मदिन पर याद करना चाहिए। ऐसे लोग जिन पर आपके व्यक्तित्व की अमिट छाप पड़ी है।

वर्ष 1998 में अमर उजाला का हरियाणा संस्करण शुरू हो रहा था। राजेश रपरिया जी संपादक थे और आप उनके दाहिने हाथ। मैं भी पंजाब केसरी से एक रेफ़रेंस लेकर पहुंचा था। आपने ने ही कॉपी लिखवाई थी- पास किया था। उसके बाद आपने मुझसे जल्द से जल्द जॉयन करने के लिए कहा था तो मैंने पूछा था कि पैसा और पद बता देते तो इस्तीफ़ा देते वक्त दिक्कत नहीं होती। आपने अपने श्रीमुख से कहा था- सब एडिटर, साढ़े चार हज़ार रुपये। पंजाब केसरी छोड़ने और अमर उजाला से जुड़ने के मोह के चलते मैं तीन दिन बाद ही जालंधर को हमेशा के लिए छोड़ यहां पहुंच गया। हां ये भी बता दूं कि मेरे लिए अमर उजाला अख़बार पत्रकारिता करने की शानदार जगह और आप शायद मेरे तब तक के सीनियर्स में सबसे तमीजदार (और आदर्श भी) लग रहे थे। {पर उसके बाद जो मोहभंग, दोनों ही पुरानी प्रतिष्ठा के आस-पास भी नहीं पहुंच पाए हो}

पहली तनख्वाह मिली तो पता चला कि मैं तो ट्रेनी हूं और वेतन 4 हज़ार रुपये मात्र है। इस पर मैं फिर आपसे मिला- आपने कहा- देखो राजेश जी अभी राजेश जी (रपरिया जी)लोगों को जांच रहे हैं, परख रहे हैं। सभी को तो सब एडिटर नहीं बनाया जा सकता। कुछ को सब एडिटर, कुछ को जूनियर सब, कुछ को सीनियर सब बनाया जाएगा। पैसा भी ठीक हो जाएगा। आपकी तो 'स्पीड' भी अच्छी है- अगले महीने सब ठीक हो जाएगा।

अगला महीना पूरा होने से पहले आप जर्मनी चल दिए थे- वॉयस ऑफ़ जर्मनी में अपनी प्रतिभा का झंडा गाड़ने।

इसके बाद रपरिया जी से मिले तो उन्होंने हाथ झाड़ दिए।
भई अनिल से पूछो।
सर वो तो चले गए....

तो मैंने तो नहीं कहा था न.... और फिर तुम लोग कोई बहुत अच्छे भी नहीं हो।
सर हम लोग या मैं...
भई मैं तो सबका हिसाब नहीं रख सकता....

बहरहाल इसी दौरान मुझे पता चला कि मैं ही नहीं मृत्युंजय, इंदु जी, शील भारद्वाज और हां शुक्ला जी भी आपके ही शिकार थे।

इसके बाद मुझे पता चला कि आप कभी काफ़ी विद्रोही थे
(जो आप शायद अब भी गा-बेच रहे हो)
लेकिन फिर दुनिया बदलने का आपका मोह भंग हो गया... पर्वत सी पीर नहीं पिघल पाई, तो आप दूसरी दिशा में भागने लगे, आप वो सियार हो गए जो शेर के लिए गधों को फंसाकर लाता था। पूरी दुनिया को परिवार बनने के बजाय आप अपने परिवार और उससे भी ज़्यादा अपने लिए सोचने-करने लगे।

अब मुझे लगता है कि आपके ब्लॉग का नाम बिल्कुल सही है एक हिंदुस्तानी की डायरी। सही है हम हिंदुस्तानी स्वभाव से ढोंगी ही होते हैं, ज़ुबां में कुछ दिल में कुछ वाले। मुझे लगता है कि आपके मुकाबले आपके पिताजी काफ़ी ईमानदार आदमी रहे होंगे और आप उनकी उम्मीदों से काफ़ी आगे निकल गए हैं....
देर से ही सही जन्मदिन मुबारक

(आप जैसे लोग ज़रूरी हैं- ताकि बूढ़े होते शिकारी भूखे न मर जाएं)

6 comments:

डा. अमर कुमार said...

अरे.. क्या यह सच है ? अभी अभी तो पढ़ कर आरहा हूँ कि वह 70-80 हज़ार की चाकरी पर, केवल आत्मसंतोष के चलते लात मार आये हैं !
आपकी बातों में भी कु्छ तथ्य तो होगा ही..
बड़ी विचित्र माया है,हम हिन्दुस्तानियों की !

महुवा said...

बाप रे बाप.......
इतना गुस्सा..

Ek ziddi dhun said...

ye atmsantosh sabke liye badee alag-alag see cheej hai aur krantikarita bhi. Vidrohi ji aur samarth ji ek hi vyaktitv mein fit karna kala hai aur aise kalakar kafi hain. haramjade lala ki dukano mein baithkar masoomo ka khoon pete-pilate hain...

राजन said...

कशमकश में था कि क्या टिप्पडी दूँ - कारण यह कि जिस जनाब की यहाँ मुक्त भाव से प्रशंसा की गयी हैं, वो अपरिचित हैं मेरे लिए. हालाँकि यह भी जानता हूँ कि बात कुछ रही ज़रूर होगी, हमारा शेर खामख्वाह ही नहीं भड़कता किसी पर. एक दूसरा ख्याल भी आया - वो यह कि तस्वीर का दूसरा रुख भी रखा जाए.
मैं कुछ आशावादी किस्म का प्राणी हूँ जो मानता हैं कि दुनिया बदलेगी. यह भी मानना हैं मेरा कि आदमी जैसा भी हो, उसकी एक आदर्श दुनिया ज़रूर होती हैं. जिन जनाब का यहाँ ज़िक्र हैं, उनकी भी रही होगी कभी. कुछेक लोग तमाम उम्र लड़ते रहते हैं वयवस्था से, तो कुछ तो बुढापा जल्दी आ जाता हैं. एक समस्या हैं प्रबंधन की जिसे मैंने बहुत अनुभव किया हैं. बहुत बार ना चाहते हुए भी आप वो बेचते हो, जो ऊपर से आपको सरकाया जाता हैं - चाहे आपका अपना विश्वाश उस सरकाए माल में हो या ना हो. कोरे आदर्श इतने रूखे होते हैं कि बिना समझौते के पानी के उन्हें निगलने की कोशिश करो तो गले में अटक जाते हैं. देखिये जनाब, असल बात तो यह हैं की मरा आदमी ना तो सच बोलता हैं और ना झूठ, वो ना आदर्शवादी होता हैं और ना समझौतावादी. तो कुछ भी करने के लिए आपका जिंदा रहना ज़रूरी हैं और जिंदा रहने की अनिवार्य शर्त हैं - इस तंत्र का हिस्सा बने रहना. तो संकट यहाँ आस्तित्व-रक्षा का हैं. आप में अभी भी जोश कायम हैं, सो लड़ाई जारी हैं, उन जनाब के आदर्श और जोश आस्तित्व-रक्षा में उलझ कर कहीं खो गए - ये उनकी बेचारगी हैं. और बेचारों पर गुस्सा नहीं किया जाता, वे तो दया के पात्र होते हैं.

वर्षा said...

वैसे ऐसे बूढ़े शिकारी तो हर जगह मिलते हैं, इनसे निपटना ही पड़ता है

Anonymous said...

media me kafi pratibhashali log hai.rajesh raparia to aise the nahi.