Monday, January 5, 2009

स्टाइलशीटिया

पाश क्या तुम्हें पता है की दुनिया बदल रही है?
क्या तुम जानते हो पत्रकारिता के इस जगत में
सबसे खतरनाक क्या है?

सबसे खतरनाक है...
न जानना ख़बर को बस करसर घुमाना
आना और मशीन की तरह जुट जाना
सही-ग़लत भूल, वर्तनी दोहराना
फुट्टे से नाप कर
सिंगल, डीसी बनाना
ख़ुद कुछ न आए, दूसरों को सिखाना
न बोलना, न सोचना, बस आदेश बजाना
बॉस के हर अच्छे बेहूदे मजाक पर मुंह फाड़ हँसना
अठन्नी बचाने के नाम पर, हजारों का नुकसान कराना
काम के बोझ से मर जाने के नखरे कर, दूसरों पर लदवाना
घोड़े की तरह आँख के दोनों ओर तख्ती लगवा लेना
चूतियापे को स्वीकार करना, चूतियों को सर नवाना
हर प्रश्न, हर मौलिक विचार की जड़ों में मट्ठा डाल देना
अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना कर, सप्रयास दबाना
वास्तविक काम को स्टाइलशीट की तलवार से
चुपचाप कटते देखना
नए खून को स्टाइलशीट के रेफ्रीजरेटर में
ठंडा होते महसूस करना
बौद्धिक विद्रोह को स्टाइलशीट के रोलर तले
कुचलने में मददगार होना
ख़ुद स्वयं को मरते देखना और आंखे फेर लेना
हाँ ! सबसे खतरनाक है
एक पत्रकार का स्टाइलशीटिया हो जाना।

(ये कविता मेरे मित्र पशुपति ने अपने ब्लॉग पर छापी है.... और अब मैं इसे अपने ब्लॉग पर डाल रहा हूं उसकी अनुमति के साथ.... ये कविता (जिसे दरअसल मैं पाश की कविता की पैरोडी मानता था- मानता हूं) मैंने अमर उजाला के दिनों में लिखी थी। दो-एक दिन बाद मैं अजय शर्मा की कविता तहखाना भी डालूंगा- जो कि मेरी पसंदीदा है। एक कविता मैं सुधाकर पांडे की भी ढूंढ रहा हूं जो मिल नहीं रही- मिल गई तो ज़रूर डालूंगा, मुझे बेहद पसंद है और हमारे उन दिनों को पूरी तल्ख़ी से रखती है।
यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि अब मुझे स्टाइलशीट उतनी ख़राब चीज़ नहीं लगती। शायद उम्र हो गई है- शायद आग मर गई है लेकिन अब भी मुझे लगता है कि स्टाइलशीट सब पर लागू नहीं होती। चूतियों की भरमार- पत्रकारिता में- भी कम नहीं, उन्हें थामने के लिए स्टाइलशीट होनी चाहिए लेकिन ये सब पर लागू नहीं हो सकती। जैसे कि हमारे एक बॉस कहते थे कि ऐसा नहीं होगा और ये आदेश सब पर लागू होगा.... बशर्ते आप मुझे ऐसा न करने के लिए समझा न पाएं)

10 comments:

महुवा said...

एक बात जिंदगी ने मुझे सिखाई है कि आप भयंकर से भयंकर दिक्कत के ज़्यादती के भी आदी हो जाते हैं.... ख़तरनाक है- लेकिन सच है। और अगर नहीं हो पाते तो या तो मर जाते हैं या आप मिसाल (legend) बन जाते हैं।

ये एक भयानक सच लगा....

राज भाटिय़ा said...

भाई आप का यह स्टाइलशीटिया बहुत पसंद आया.
धन्यवाद

Anonymous said...

aapne ye kavita mujhse mangee... is kavita ko dhoondha... apne blog par fir chhapa...
aap kahen kuchh bhi, lapten bhale na dikhe lekin aag dhdhak rahee hai...

Ek ziddi dhun said...

gareebi ke mast din achhe the...

Smart Indian said...

बिल्कुल सहमत हूँ. कुछ लोगों को चाहे पद्धति की दरकार न हो परन्तु बहुत से लोगों का काम पद्धति के बिना चल ही नहीं सकता.

Unknown said...

अरे वाह, यह तो बहुत पुरानी कविता है। इसे पढ़कर आपने यादों को ताजा कर दिया। कविता शानदार है। यह बात तो हम बरसों पहले कर चुके हैं। शुक्रिया इस एक बार फिर पढ़ाने के लिए।

bharat bhushan said...

complete poetry of paash in hindi is available at my blog on Paash at http://paash.wordpress.com

RSUDESH said...

पुराने दिनों को याद दिलाने के लिए शुक्रिया, वैसे वे दिन भी क्या शानदार थे.

राज भाटिय़ा said...

माईकेल जेकसन वाली पोस्ट पर कोमेंट बक्स नही खुल रहा...
भाई ना तो मे इस का फ़ेन हुं, ओर ना ही इस का विरोधी, हा इस ने प्लास्टिक सर्जरी करवाई थी, लेकिन गोरा होने के लिये नही, बल्कि रोग को छुपाने के लिये, इसे सफ़ेद दाग जेसा रोग था, यह बाते अब पता चली है, ओर लोग समझते थे कि गोरा होने के लिये.
धन्यवाद

Unknown said...

सर क्या कविता है... पत्रकारिता के सबसे खतरनाक के बारे में बताया... वाकई ये खतरनाक है... लेकिन करना पड़ता है ..वक्त के साथ दुनिया जो बदल रही है...