प्रतियोगिता दिनोंदिन बढ़ रही थी और इसी के चलते अपने अख़बार का प्रसार बढ़ाने के लिए यमराज के दौरे भी। ऐसे ही एक दौरे से लौटने के बाद उन्हें पता चला कि एक युवक पिछले तीन दिन से उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। बायो-डाटा देखते ही यम ने उसे बुलवा भेजा। ये देखकर कि शहर के सबसे सस्ते ढाबे और सबसे सस्ते होटल ने तीन दिन में ही उसकी हालत ख़स्ता कर दी है वह बेहद प्रसन्न हुए। प्रथम श्रेणी के छात्र और बेहद संभावनापूर्ण लेखक की मजबूरी को ताड़ते ही उनके मुंह में पानी आ गया। मुख पर गंभीरता ओढ़ इस पर बेहद दुख व्यक्त किया कि उसे तीन दिन इंतज़ार करना पड़ा। सख़्त ज़रूरत होते हुए भी कहा कि नौकरियों का बेहद टोटा है। उसकी निराशा और मजबूरी को बढ़ता देख आखिर यम ने उसकी इच्छा पूरी कर दी... उसे नौकरी दे दी और अपने अख़बार में अनंतकाल के लिए एक और प्रशिक्षु रख लिया।
(सुधीर राघव के लिए पंजाब केसरी (98-99) के दिनों में लिखी गई)
Saturday, October 23, 2010
Thursday, October 14, 2010
तहखाना (दो पीस)
वॉल्व
टांय और ठांय के बीच
फंसी हुई पत्रकारिता
बंदूक से निकले
तो दांतों में अटके
तहखाने में दो दरवाज़े हैं अब
दोनों अपने किस्म के
डेंज़र वॉल्व के साथ
=================================
पत्रकारिता और हिसाब
इसका मतलब वह नहीं
जो आप समझ रहे हैं
इसका मरने वालों,
हताहतों
पेट्रोल पंप पाने वालों
या इसी किस्म के
किसी भी आंकड़े से
कोई वास्ता नहीं
यह हिसाब प्रमोद कौंसवाल का है
ख़बर की बाइट गिनने
हेडिंग के शब्द गिनने का हिसाब
तहखाने के नए बाशिंदे की
अपनी पत्रकारिता है
(अमर उजाला (99-03) के दिनों में लिखी गई)
टांय और ठांय के बीच
फंसी हुई पत्रकारिता
बंदूक से निकले
तो दांतों में अटके
तहखाने में दो दरवाज़े हैं अब
दोनों अपने किस्म के
डेंज़र वॉल्व के साथ
=================================
पत्रकारिता और हिसाब
इसका मतलब वह नहीं
जो आप समझ रहे हैं
इसका मरने वालों,
हताहतों
पेट्रोल पंप पाने वालों
या इसी किस्म के
किसी भी आंकड़े से
कोई वास्ता नहीं
यह हिसाब प्रमोद कौंसवाल का है
ख़बर की बाइट गिनने
हेडिंग के शब्द गिनने का हिसाब
तहखाने के नए बाशिंदे की
अपनी पत्रकारिता है
(अमर उजाला (99-03) के दिनों में लिखी गई)
Monday, October 11, 2010
तहखाना
सिर्फ नए खून को निमंत्रण है यहां
वो तहखाने के कानूनों के खिलाफ बगावत
नहीं करता, नहीं कर सकता
हाथ नहीं उठाता, नहीं उठा सकता
इसलिए हां केवल इसलिए
नए खून को निमंत्रण हैं यहां
जलते हुए खून की गंध और स्वाद
हमारे बूढ़े आदमखोर को बेहद पसंद है
(अमर उजाला में अजय शर्मा ने ये कमाल का पीस लिखा था। आश्चर्य की बात ये है कि उसे ख़ुद भी याद नहीं कि ये उसने लिखा था। तहखाना में कुल चार पीस थे- ये मुझे याद रहा, रघुवीर सहाय की रामदास की तरह।)
वो तहखाने के कानूनों के खिलाफ बगावत
नहीं करता, नहीं कर सकता
हाथ नहीं उठाता, नहीं उठा सकता
इसलिए हां केवल इसलिए
नए खून को निमंत्रण हैं यहां
जलते हुए खून की गंध और स्वाद
हमारे बूढ़े आदमखोर को बेहद पसंद है
(अमर उजाला में अजय शर्मा ने ये कमाल का पीस लिखा था। आश्चर्य की बात ये है कि उसे ख़ुद भी याद नहीं कि ये उसने लिखा था। तहखाना में कुल चार पीस थे- ये मुझे याद रहा, रघुवीर सहाय की रामदास की तरह।)
Wednesday, October 6, 2010
मज़दूर मक्खी
हर रोज़ ऐसे कुछ लम्हे आते थे.... जब हम साइडलाइन्ड महसूस करते..... या गधों की तरह काम करते हुए देखते कि काम न करने वाले बॉस के आस-पास चहक रहे हैं जबकि यहां मूतने की फ़ुर्सत नहीं है.....
ऐसे ही एक लम्हे में उसने पूछा कि क्या यार..... हम ऐसे ही रह जाएंगे.... क्या हमारी ही तरक्की नहीं होगी.... बाकी चूतियों को देखो- कहां के कहां पहुंच गए. बोलो- क्या हमारी हालत कभी सुधरेगी भी.
रोज़ के विपरीत आज मैंने गाली नहीं दी.... रोज़ के विपरीत मैंने उसे सांत्वना नहीं दी.... रोज़ के विपरीत मैं आज मैं बोला- ऐसे कि जैसे मुझे बोधिसत्व प्राप्त हो गया है....
हां शायद हम ऐसे ही रह जाएंगे हमेशा..... जैसा कि मधुमक्खियों की दुनिया में होता है- मज़दूर मक्खी मज़दूरी ही करती है.
मतलब, उसने पूछा
देखो भाई- मधुमक्खियों का छत्ता एक पूरी दुनिया होता है. इसमें सिर्फ़ खाने वाले भी होते हैं और सिर्फ़ काम करने वाले भी. इसमें घर भी होते हैं. स्टोर रूम भी. राजमहल भी और मज़दूरों के घर भी. तो ज़रूर इसमें मीडिया हाउस भी होते होंगे-- अख़बार और टीवी भी होते होंगे. उनमें चैनल हेड होते होंगे और पैकेज प्रोड्यूसर होते होंगे. पत्रकारों को डंप करने के लिए इंजस्ट और व्हील जैसे तहखाने भी होते होंगे। लेकिन हमारी दुनिया की तरह उनमें कुछ नहीं होता होगा तो वो होगा असंतोष.
ये इसलिए कि मधुमक्खियों की दुनिया में चीज़ें साफ़ हैं. रानी मक्खी का काम है- प्रजनन करना और सेवा करवाना. तो मज़दूर मक्खी का काम है सेवा करना. इसमें सब तरह की सेवा शामिल है। नर मक्खी रानी के साथ मिलन करती है और मर जाती है-बिना किसी शिकायत के। यानि कि जिसके हिस्से जो काम आता है वो वही करता है. किसी को असंतोष नहीं, शिकायत नहीं।
तो मेरे दोस्त अगर आपको अपनी भूमिका पता हो तो कोई दिक्कत नहीं होगी. अगर आप पिछले पांच, दस, पंद्रह साल से मज़दूरी कर रहे हैं तो ज़रूर मज़दूर मक्खी ही होंगे। अपनी भूमिका ईमानदारी से निबाह लें वही बहुत है। जो रिपोर्टर मक्खी होते हैं वो इंजस्ट से भी रिपोर्टिंग में चले जाते हैं. प्रोड्यूसर मक्खी कुछ भी करके प्रोड्यूसरत्व को प्राप्त हो ही जाते हैं. और मज़दूर मक्खी को अगर प्रोड्यूसर बना भी दिया जाए तो वो वहां भी मज़दूरी ही करता है. इसी तरह प्रोड्यूसर मक्खी पैकेजिंग में भी प्रोड्यूसरी करती दिखेगी। अर्थात मज़दूर मक्खी कई साल के अनुभव और न्यूज़ सेंस के बाद भी पैकेज प्रोड्यूसर ही बनी रहेगी.
कुछ ऐसी मक्खियां भी हैं जो सिर्फ़ भिनभिना कर अपनी अहमियत बनाए रख सकती हैं. ये रानी मक्खी के आगे भिनभिनाती हैं फिर मज़दूर मक्खियों के आगे भिनभिनाती हैं और इतना भिनभिनाती हैं कि रानी और मज़दूर को एक-दूसरे की बात सुनाई नहीं देती. फिर ये दोनों को अलग-अलग कहानियां सुनाकर अपनी जगह बनाती और पक्की करती रहती हैं.....
ऐसी मक्खियां अपने आस-पास तो बड़ी तेजी से बढ़ रही हैं.... मधुमक्खियों की दुनिया में होती हैं या नहीं, इसका अभी पता नहीं.
तो बात साफ़ है कि अगर आपको अपनी स्थिति और भूमिका का पता हो तो फिर ऐसे सवाल बेमानी हो जाते हैं कि क्या हमारी स्थिति हमेशा ऐसी ही रहेगी. एक मज़दूर मक्खी जैसी.
(सहारा के दिनों में लिखी थी.... अब भी अपनी ही बात सही लगती है)
ऐसे ही एक लम्हे में उसने पूछा कि क्या यार..... हम ऐसे ही रह जाएंगे.... क्या हमारी ही तरक्की नहीं होगी.... बाकी चूतियों को देखो- कहां के कहां पहुंच गए. बोलो- क्या हमारी हालत कभी सुधरेगी भी.
रोज़ के विपरीत आज मैंने गाली नहीं दी.... रोज़ के विपरीत मैंने उसे सांत्वना नहीं दी.... रोज़ के विपरीत मैं आज मैं बोला- ऐसे कि जैसे मुझे बोधिसत्व प्राप्त हो गया है....
हां शायद हम ऐसे ही रह जाएंगे हमेशा..... जैसा कि मधुमक्खियों की दुनिया में होता है- मज़दूर मक्खी मज़दूरी ही करती है.
मतलब, उसने पूछा
देखो भाई- मधुमक्खियों का छत्ता एक पूरी दुनिया होता है. इसमें सिर्फ़ खाने वाले भी होते हैं और सिर्फ़ काम करने वाले भी. इसमें घर भी होते हैं. स्टोर रूम भी. राजमहल भी और मज़दूरों के घर भी. तो ज़रूर इसमें मीडिया हाउस भी होते होंगे-- अख़बार और टीवी भी होते होंगे. उनमें चैनल हेड होते होंगे और पैकेज प्रोड्यूसर होते होंगे. पत्रकारों को डंप करने के लिए इंजस्ट और व्हील जैसे तहखाने भी होते होंगे। लेकिन हमारी दुनिया की तरह उनमें कुछ नहीं होता होगा तो वो होगा असंतोष.
ये इसलिए कि मधुमक्खियों की दुनिया में चीज़ें साफ़ हैं. रानी मक्खी का काम है- प्रजनन करना और सेवा करवाना. तो मज़दूर मक्खी का काम है सेवा करना. इसमें सब तरह की सेवा शामिल है। नर मक्खी रानी के साथ मिलन करती है और मर जाती है-बिना किसी शिकायत के। यानि कि जिसके हिस्से जो काम आता है वो वही करता है. किसी को असंतोष नहीं, शिकायत नहीं।
तो मेरे दोस्त अगर आपको अपनी भूमिका पता हो तो कोई दिक्कत नहीं होगी. अगर आप पिछले पांच, दस, पंद्रह साल से मज़दूरी कर रहे हैं तो ज़रूर मज़दूर मक्खी ही होंगे। अपनी भूमिका ईमानदारी से निबाह लें वही बहुत है। जो रिपोर्टर मक्खी होते हैं वो इंजस्ट से भी रिपोर्टिंग में चले जाते हैं. प्रोड्यूसर मक्खी कुछ भी करके प्रोड्यूसरत्व को प्राप्त हो ही जाते हैं. और मज़दूर मक्खी को अगर प्रोड्यूसर बना भी दिया जाए तो वो वहां भी मज़दूरी ही करता है. इसी तरह प्रोड्यूसर मक्खी पैकेजिंग में भी प्रोड्यूसरी करती दिखेगी। अर्थात मज़दूर मक्खी कई साल के अनुभव और न्यूज़ सेंस के बाद भी पैकेज प्रोड्यूसर ही बनी रहेगी.
कुछ ऐसी मक्खियां भी हैं जो सिर्फ़ भिनभिना कर अपनी अहमियत बनाए रख सकती हैं. ये रानी मक्खी के आगे भिनभिनाती हैं फिर मज़दूर मक्खियों के आगे भिनभिनाती हैं और इतना भिनभिनाती हैं कि रानी और मज़दूर को एक-दूसरे की बात सुनाई नहीं देती. फिर ये दोनों को अलग-अलग कहानियां सुनाकर अपनी जगह बनाती और पक्की करती रहती हैं.....
ऐसी मक्खियां अपने आस-पास तो बड़ी तेजी से बढ़ रही हैं.... मधुमक्खियों की दुनिया में होती हैं या नहीं, इसका अभी पता नहीं.
तो बात साफ़ है कि अगर आपको अपनी स्थिति और भूमिका का पता हो तो फिर ऐसे सवाल बेमानी हो जाते हैं कि क्या हमारी स्थिति हमेशा ऐसी ही रहेगी. एक मज़दूर मक्खी जैसी.
(सहारा के दिनों में लिखी थी.... अब भी अपनी ही बात सही लगती है)
Friday, October 1, 2010
मैं बॉस नहीं
बॉसत्व एक भाव है.... स्थिति नहीं, पद नहीं.... भाव। कुछ लोग इसी भाव के साथ पैदा होते हैं (प्रोफेशन में)..... कुछ लोग उम्र गुज़ारने के बाद भी- पद पाने के बाद भी इस भाव को प्राप्त नहीं हो पाते.... कुछ जो ज़्यादा स्मार्ट होते हैं, मौका मिलते ही भाव को प्राप्त हो जाते हैं.... लेकिन ऐसे विरले ही होंगे जो पद न रहने पर इस भाव से मुक्ति पा जाएं.....
पहले भी सोचता रहा हूं- पिछले कुछ वक्त से ज़्यादा साफ़ दिख रहा है कि - अपन बॉस मटीरियल नहीं हैं। बॉसत्व प्राप्त लोगों से अपनी कभी अच्छी पटी भी नहीं.... कुछ मित्र भी बॉसत्व को प्राप्त हो गए हैं लेकिन वो तभी तक मित्र हैं जब तक उनके साथ काम न करना पड़े (एक के साथ करना पड़ा तो अब वो मित्र नहीं है)।
वैसे बॉसत्व की एक स्थिति को मैं भी प्राप्त हो गया हूं (करीब साल भर से) लेकिन भाव को प्राप्त नहीं हो पाया। अब भी मैं एक टीम लीडर ही हूं। वही टीम लीडर जो अमर उजाला में था (चाहे टीम दो-तीन आदमियों की क्यों न हो)। निश्चित काम, काम की निश्चित शर्तें और उसे डिलीवर करने का निश्चित समय। इन चीज़ों के साथ अपन ठीक रहे..... थोड़ी-बहुत जॉब सेटिस्फेक्शन भी मिलती रही। लेकिन बॉस के मन को पढ़ लेने की कला में अपन हमेशा ही पिछड़े रहे.... इसलिए करियर में भी पिछड़े ही रहे।
ये बात अब पुरानी हो गई है कि जिन्हें हम चूतिया कहते थे (काम के लिहाज से) वो आगे बढ़ते रहे..... अब वो इतने आगे बढ़ चुके हैं कि उन्हें चूतिया कहना दरअसल खुद बनना है। पहले तो समझ नहीं आता था अब साफ़ दिखता है.... काम करने वाला हमेशा काम ही करता रहेगा और तरक्की करने वाला तरक्की का रास्ता ढूंढ ही लेगा।
अभी कुछ वक्त पहले एक ने पूछा-
कहां हो
यहीं
मतलब काम कहां कर रहे हो
काम या नौकरी
मतलब
मतलब काम क्या और नौकरी कहां
अच्छा नौकरी कहां कर रहे हो
साधना न्यूज़ नोएडा
(मुझे पता था वो कहां है) तुम क्या कर रहे हो
वही जो हमेशा करते थे
मतलब- बकलोली
वो बुरा मान गया
लेकिन वो बॉस हो ही नहीं सकता जिसे बकलोली न आती हो..... बॉस से दबना और जूनियर्स को दबाना... ख़बर या अफ़वाह सही आदमी तक पहुंचाना.... बॉस के मूड के हिसाब से काम करना और सही वक्त पर सही आदमी चुनकर उसके लटक जाना..... इसके अलावा तरक्की का क्या कोई और नुस्खा है ?
अगर जानते हो तो मुझे भी बताना
पहले भी सोचता रहा हूं- पिछले कुछ वक्त से ज़्यादा साफ़ दिख रहा है कि - अपन बॉस मटीरियल नहीं हैं। बॉसत्व प्राप्त लोगों से अपनी कभी अच्छी पटी भी नहीं.... कुछ मित्र भी बॉसत्व को प्राप्त हो गए हैं लेकिन वो तभी तक मित्र हैं जब तक उनके साथ काम न करना पड़े (एक के साथ करना पड़ा तो अब वो मित्र नहीं है)।
वैसे बॉसत्व की एक स्थिति को मैं भी प्राप्त हो गया हूं (करीब साल भर से) लेकिन भाव को प्राप्त नहीं हो पाया। अब भी मैं एक टीम लीडर ही हूं। वही टीम लीडर जो अमर उजाला में था (चाहे टीम दो-तीन आदमियों की क्यों न हो)। निश्चित काम, काम की निश्चित शर्तें और उसे डिलीवर करने का निश्चित समय। इन चीज़ों के साथ अपन ठीक रहे..... थोड़ी-बहुत जॉब सेटिस्फेक्शन भी मिलती रही। लेकिन बॉस के मन को पढ़ लेने की कला में अपन हमेशा ही पिछड़े रहे.... इसलिए करियर में भी पिछड़े ही रहे।
ये बात अब पुरानी हो गई है कि जिन्हें हम चूतिया कहते थे (काम के लिहाज से) वो आगे बढ़ते रहे..... अब वो इतने आगे बढ़ चुके हैं कि उन्हें चूतिया कहना दरअसल खुद बनना है। पहले तो समझ नहीं आता था अब साफ़ दिखता है.... काम करने वाला हमेशा काम ही करता रहेगा और तरक्की करने वाला तरक्की का रास्ता ढूंढ ही लेगा।
अभी कुछ वक्त पहले एक ने पूछा-
कहां हो
यहीं
मतलब काम कहां कर रहे हो
काम या नौकरी
मतलब
मतलब काम क्या और नौकरी कहां
अच्छा नौकरी कहां कर रहे हो
साधना न्यूज़ नोएडा
(मुझे पता था वो कहां है) तुम क्या कर रहे हो
वही जो हमेशा करते थे
मतलब- बकलोली
वो बुरा मान गया
लेकिन वो बॉस हो ही नहीं सकता जिसे बकलोली न आती हो..... बॉस से दबना और जूनियर्स को दबाना... ख़बर या अफ़वाह सही आदमी तक पहुंचाना.... बॉस के मूड के हिसाब से काम करना और सही वक्त पर सही आदमी चुनकर उसके लटक जाना..... इसके अलावा तरक्की का क्या कोई और नुस्खा है ?
अगर जानते हो तो मुझे भी बताना
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