जस्टिस काटजू से एडिटर्स नाराज़ हैं (सभी पत्रकार नहीं)। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का स्वयंभू झंडाबरदार बीएई एकदम हल्लाबोल की मुद्रा में है . . . पर क्यों- आखिर - भय बिन होत प्रीत न - पर ऐतराज़ क्या है. . . इसी सिद्धांत पर तो सारे न्यूज़ चैनल (कम से कम हिंदी के) चल रहे हैं . . . हर एडिटर सर्वेसर्वा है- जब चाहे जिसे चाहे ज़लील करे और विरोध पर निकाल फेंके.... संदेश साफ़ है नौकरी करनी है तो डर के करो वरना बाहर....
आप चाहें तो इस सच से इनकार भी कह सकते हैं... बहरहाल साधना न्यूज़ में नौकरी के दौरान मैं अपने साथियों (सामान्यतः आउटपुट, इनपुट इंचार्ज, पीसीआर हेड) से कहता था कि चाहे तो आप अधिकारी होने का भ्रम पाल सकते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इन चैनलों में सिर्फ़ एक ही अधिकारी होता है और बाकी सब चपरासी..... वो पीडी हों या एनके हों- जब चाहे किसी की भी पैंट न्यूज़रूम में उतार सकते थे/हैं, उतारते रहे हैं..... अब कुछ लोग ये स्वीकार करने लगे हैं, कुछ अब भी भ्रम में जीते हैं कि- नहीं जी आज तक हमको ऐसा नहीं कहा- एकबारगी मान भी लें, तो कोई गारंटी नहीं कि आगे भी नहीं कहा जाएगा......
टीवी न्यूज़ में साढ़े आठ साल काम करने के दौरान मैंने एक बात साफ़ समझ ली- कि ये चैनल ईगो पर चल रहे हैं, सिर्फ ईगो पर . . . न कोई सिस्टम- न सिद्धांत, बस एडिटर का ईगो . . . इन चैनलों में काम करने वाले लोग, ख़ासतौर पर एडिटोरियल के- हमेशा असुरक्षित महसूस करते हैं...... बाकी विभागों के साथ कोई दिक्कत नहीं- वो नौकरी कर रहे हैं, प्रेस के आईकार्ड से क्षमतानुसार फ़ायदे उठा रहे हैं.... लेकिन एडिटोरियल पर पत्रकारिता का दबाव भी है.... पत्रकार का लेबल लगने भर से ही इंटर्न भी दबाव में आ जाता है.... उसे समाज में (गैर पत्रकारीय) सम्मान से देखा जाने लगता है और बहुत जल्द ही वो खुद को दूसरों से थोड़ा 'ऊपर' महसूस करने लगता है.... लेकिन न्यूज़रूम में आते है उसे बता दिया जाता है कि वो कितना नीचे है....
तो अक्सर जब तक आदमी को समझ आता है कि अब यहां पत्रकारिता या ग्लैमर (जो जिस वजह से आया हो) नहीं है तब तक अक्सर वो इतना वक्त इसमें लगा चुका होता है कि बाहर निकलना संभव नहीं हो पाता.... फिर वो बस सिस्टम का एक पुर्जा बनकर रह जाता है...
और ये सिस्टम बहुत ज़ालिम और दोगला है.... दो दिन पहले जस्टिस काटजू के साथ बैठक का विरोध करने वालों में दैनिक जागरण के संजय गुप्ता और पंजाब केसरी के अश्विनी कुमार भी थे.... जागरण तो नहीं लेकिन मैंने पंजाब केसरी में काम किया है.... पहली नौकरी पंजाब केसरी, जालंधर में ही मिली थी.... मैं कह सकता हूं कि हिंदी में पेड न्यूज़ का खुला खेल शुरू इसी अख़बार में शुरू किया होगा.... पत्रकारों के शोषण के कीर्तिमान भी इसी ने रचे होंगे.....
लेकिन मुझे इन बनियों से ज़्यादा शिकायत भी नहीं है.... वो धंधा करने उतरे हैं... कोयले से ज़्यादा फ़ायदा ख़बरों में दिखा तो इसी में लग गए- दूसरी पीढ़ी ने संपादक का चोला ओढ़ा तो संपादकों वाली बोली भी बोलने लगे- और ये कोई मुश्किल काम नहीं.... संपादक कौन सा वही बोलता है जो करता है.... वो भी तो वही करता है जो ये मालिक-संपादक करते हैं.... मालिक संपादक नहीं तो संपादक वही करता है जो मालिक चाहता है.....
मजीठिया आयोग की सिफा़रिशें आईं तो अख़बार मालिक बेचैन हो गए... बिसूरने लगे कि हम तो लुट जाएंगे... हालांकि हर साल नए मॉडल की गाड़ी उनके घर आती है.... लेकिन कोई संपादक झंडा लेकर ऐसे खड़ा नहीं हुआ जैसे जस्टिस काटजू के खिलाफ़ खड़े हो गए हैं.....
दरअसल संपादकों, मालिकों की दिक्कत ये है कि वो भय बिन प्रीत न होत को सही तो मानते हैं और उस पर अमल भी करते हैं लेकिन सिर्फ़ वहीं तक जहां तक उनका भय कायम रहे....जब कोई और उन्हें नियमों में रहने, जवाबदेह होने का डंडा दिखाता है तो ये फाउल-फाउल चिल्लाने लगे हैं.....
बीईए में शामिल एक स्वनामधन्य एडिटर से बड़े न्यूज़ चैनल का एक छोटा सा उदाहरण..... एक स्वनामधन्य एंकर कम वैरी सीनियर प्रोड्यूसर ने प्रोग्रामिंग हेड से एक लड़के की शिकायत की कि वो उन्हें नमस्ते नहीं करता जबकि वो उन्हीं के प्रोग्राम की टीम में है..... सिर्फ़ शिकायत ही नहीं की मोहतरमा उस घमंडी लड़के को निकालने पर अड़ गईं..... प्रोग्रामिंग हेड ने उस लड़के से पूछा कि क्या यह सच है- उसने कहा कि जी आप हमारे इंचार्ज हैं, मैं आपको नमस्ते करता हूं..... बस प्रोग्रामिंग हेड ने उसे कह दिया कि कल से आने की ज़रूरत नहीं है..... न उन्होंने मैडम एंकर से ये पूछा कि काम में तो कोई दिक्कत नहीं, अनुशासनहीन तो नहीं..... न ही लड़के की किसी और बात को सुना- मैडम को नमस्ते नहीं करते- तो मत आना....
बीईए में शामिल एक और स्वनामधन्य एडिटर महोदय जो आजकल शायद सिर्फ़ काटजू विरोध पर जी रहे हैं के बारे में भी सुनिए..... पत्रकारिता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले महोदय का सबसे प्रिय शगल है अपने जूनियर्स को ज़लील करना..... एडिटोरियल मीटिंग्स से पहले सबसे ज़्यादा अटकल इसी बात पर रहती है कि आज किसकी लगेगी..... आदिवासियों के देवताओं सरीखे टीआरपी सिस्टम की श्रीमान आलोचना भी करते हैं और इसके आधार पर लोगों से गाली-गलौच भी करते हैं....ऐसा एक नहीं कई बार हुआ है कि किसी स्ट्रिंगर्स से ख़बर मिस हो गई तो उसे हटाने का फ़रमान जारी कर दिया गया- फ़ोन पर ही.... महिलाओं के सामने भी श्रीमान मां-बहन की गालियां देने लेगते हैं... क्यों- ताकि ख़ौफ़ कायम रहे..... ताकि आदमी ये पूछने में भी डरे कि सर मुझसे क्या ग़लती हो गई....
मैं जस्टिस काटजू से सहमत हूं कि पत्रकारिता में ज़्यादातर लोग कम पढ़े लिखे हैं. आखिर कई घंटे की नौकरी, ज़लालत से फ्रस्ट्रेशन और घटियापने की राजनीति के बाद किसे वक्त है कि अख़बार के सिवा कुछ पढ़ पाए.... लेकिन मुझे ये कहते हुए दुख होता है, शर्म आती है कि उससे भी ज़्यादा लोग नपुंसक हो गए हैं..... सवाल उठाने की विरोध करने की क्षमता ज़्यादातर खो चुके हैं..... ऐसे में अगर प्रेस परिषद इतना प्रभावी होता है कि वहां संपादकों-मालिकों के खिलाफ़ शिकायत की जा सके तो इसका स्वागत सबसे ज़्यादा पत्रकारीय जगत से ही होना चाहिए..... पर अफ़सोस की हममें इतनी हिम्मत भी नहीं बची है.....
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1 comment:
satya bachan
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