सैणी साब का कहना था कि ग़ालिब की कुछ अपनी पसंदीदा ग़ज़लें डालो। सहारा के शुरूआती निठल्लेपन के दिनों में मैं ये कुछ पीस लिखा करता था.... तभी लिखा था कि ग़ालिब की शायरी में माशूक की जगह बॉस को रख दो तो भी ये उतनी ही मौजूं है.... आज भी ये बात सही लगती है। ये ग़ालिब के कुछ अश्आर हैं.... मुझे पसंद रहे हैं- हमेशा से...
हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो ये अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो राख, जुस्तजू क्या है
बना है शाह का मुनसिब फिरे है इतराता
वरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है
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है बस की हर इक उनके इशारे में निशां और
करते हैं मोहब्बत तो गुज़रता हैं गुमां और
या रब ! वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझको ज़ुबां और
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और
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कहते तो हो यूं कहते-यूं कहते जो यार आता
सब कहने की बात है कुछ भी न कहा जाता
बात भी आपके सामने ज़ुबां से न निकली
लीजिए आए थे हम क्या क्या सोच के दिल में
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