Thursday, September 25, 2008

तस्वीर वही, नज़र अलग



ये तस्वीर बाढ़ पीड़ित उड़ीसा की है। उड़ीसा में भी बाढ़ आई है और इससे करीब 40 लाख लोग प्रभावित हुए हैं... करीब एक लाख लोगों तक अभी तक सहायता नहीं पहुंच पाई है, अब तक 50 लोगों की मौत हो गई है, 24 अरब रुपये का नुक्सान हुआ है।
लेकिन उड़ीसा की बाढ़ उस तरह ख़बर नहीं बन रही जैसे कि बिहार की।
क्या ये इसलिए कि बिहार की बाढ़ अप्रत्याशित थी, नई जगह आई थी और उड़ीसा का बाढ़ रुटीन है।
क्या ये इसलिए कि उड़ीसा की बाढ़ प्राकृतिक है और बिहार की बाढ़ आदमी की ग़लतियों का नतीजा है।
या ये इसलिए है कि मीडिया में उड़िया कम हैं, बिहारी ज़्यादा। हिंदी ब्लॉगिंग में भी।

तस्वीर वही, नज़र अलग

ये प्रचंड हैं। नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहाल यानि कि प्रचंड। प्रचंड नेपाली माओवादियों के नेता हैं और उन्हें शायद इस बात का मलाल होगा कि वो क्रांति करते-करते भी लोकतांत्रिक तरीक से ही सत्ता परिवर्तन कर सके। लेकिन सत्ता बहुत कुछ सिखाती है... और इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण ये तस्वीर है। सशस्त्र क्रांति के ये नेता सिर झुकाए जानते हैं न कहां खड़े हैं.... राजघाट पर।
जी हां अहिंसा के पुजारी को सशस्त्र क्रांति के सेनापति का नमन।
है न ख़ूबसूरत

{तस्वीर- साभार बीबीसी}

तस्वीर वही, नज़र अलग


ये तस्वीर उत्तर कोरिया की राजधानी प्योंगयांग में एक कार्यक्रम के दौरान बच्चों के एक आइटम की है। कभी हम भी स्कूल में पीटी करने जाया करते थे... इतना भव्य तो नहीं, लेकिन वो भी अच्छा दिखता था। ख़ास बात ये है कि तब भी हममें से कुछ दाएं कि बजाय बाएं रोल कर जाते थे, ग़लत हाथ या पैर उठा देते थे, ग़लत वक्त पर ताली बजा देते थे.... ये बच्चियां भी ऐसा ही कुछ कर रही हैं.... इतनी सारी लड़कियों में दो की रस्सी एक पोज़ीशन पर ढूंढना आसान नहीं है। मशीनें होतीं तो एक जैसी होतीं.....
ग़लतियां ही आदमी की ख़ूबसूरती है।
{तस्वीर- साभार बीबीसी}

Wednesday, September 24, 2008

सीईओ की मौत/update

बस कुछ देर पहले ख़बर आई कि श्रम मंत्री ऑस्कर फ़र्नांडीज़ ने अपने बयान के लिए माफ़ी मांग ली। बयान कि---
मैं कंपनियों के प्रबंधन से अपील करता हूं कि कर्मचारियों के मामले में संवेदनशीलता से सोचें। स्थायी कर्मचारियों और ठेके के कर्मचारियों के वेतन में भारी अंतर होता है। कर्मचारियों के साथ इस तरह का व्यवहार नहीं करना चाहिए जिससे ग्रेटर नोएडा जैसी घटना फिर से घटे।

दुखद घटनाक्रम है...

सीईओ की मौत

नोएडा में इतालवी कंपनी कंपनी ग्रेजियानो ट्रांसमिशियोनी के सीईओ एल. के. चौधरी की हत्या गुस्साए मज़दूरों ने कर दी.... ये दुर्घटना बेहद हिलाने वाली है। इस पर संक्षेप में दो-तीन बातें कहना चाहता हूं....
मेरी जानकारी में ये हाल के वक्त में ये इस तरह की पहली घटना (दुर्घटना) है। वरना अक्सर गुड़गांव में होंडा कर्मचारियों की पिटाई जैसी ही वारदातें होती रही हैं। इसका मतलब ये कतई नहीं कि मैं चौधरी साहब की हत्या को जस्टीफ़ाई कर रहा हूं- ये कभी नहीं हो सकता। कोई नहीं, ख़ुद मज़दूर भी नहीं- जो कभी-भी बाहर धकेल दिए जाते हैं- इसका समर्थन कर सकते हैं। फिर ये भी सही है कि इस दुर्घटना से ज़्यादा कॉर्पोरेट जगत से ज़्यादा नुक्सान मज़दूरों का ही होगा।
उद्योग जगत ने इस दुर्घटना की निंदा की है। निवेश पर ख़राब असर पड़ने वाला बताया है। यूपी छोड़ देने की चेतावनी दी है। ये भी कहा जा रहा है कि ज़्यादातर कंपनियां ऐसी समस्याओं से जूझ रही हैं। संभव है कि ये सही हो और जैसे-जैसे अमेरिका से मंदी हमारी नौकरियों तक आएगी, ये दिक़्क़तें बढ़ेंगी ही- मज़दूर-मैनेजमेंट दोनों के लिए।
ऐसे में श्रम मंत्री का बयान आश्चर्यजनक और राहत भरा है। ऑस्कर फ़र्नांडीज़ ने इस दुर्घटना को मैनेजमेंट के लिए चेतावनी बताया है। पर सवाल ये है कि सरकार ऐसा कब तक होने देगी।
दिक्कत ये है कि जब तक काम की शर्तें साफ़ नहीं होंगी, खुला मोल-तोल चलने दिया जाएगा तब तक लाठी के ज़ोर पर चीज़ें तय करने की कोशिश भी रहेगी। ठेकेदार होंगे- लठैत होंगे, विद्रोही पनपेंगे। अब या तो आप वर्ग संघर्ष के ज़रिये क्रांति का इंतज़ार करें या ज़िम्मेदार राज्य के नाते शर्तें साफ़ करें- जिसमें वंचितों का ख़्याल रखा जाए।
असंगठित क्षेत्र के मजदूरों से संबंधित विधेयक को इसी मानसून सत्र में पेश किया जाना है। दरअसल ये पेश हो जाना चाहिए था, लेकिन विश्वास मत के चलते मानसून सत्र जुलाई-अगस्त के बजाय अक्टूबर नवंबर में पहुंच गया। इस विधेयक से माध्यम से सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि सभी राज्य सरकारें राज्यों के असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा देने के लिए योजनाएं तैयार करें। यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि जो योजनाएं तैयार की जाएं उन्हें ठीक तरीके से लागू किया जाए। इन मजदूरों के लिए पृथक श्रमिक बोर्ड के गठन का भी प्रस्ताव है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए केंद्र के स्तर पर भी एक बोर्ड का गठन होगा जो पूरे देश में इस दिशा में उठाए जा रहे कदमों की समीक्षा करेगा। ये काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था लेकिन महिला आरक्षण की तर्ज पर कुछ विधेयकों के लिए कभी देर नहीं होती। देर लगती है तो सांसदों, विधायकों के भत्ते बढ़ाने में।
असंगठित क्षेत्र में देश के 93 (अब 94) फ़ीसदी श्रमिक हैं। चूंकि ये असंगठित हैं इसलिए इनकी कोई सामूहिक ताकत नहीं। इसलिए जितना शोर छठे वेतन आयोग को लेकर होता है उसका शतांश भी असंगठित क्षेत्र के लिए प्रस्तावित विधेयक पर नहीं उठता।
इस मसले पर इंटरनेट पर ख़बरें देख रहा था तो एक उल्लेखनीय तथ्य ये मिला कि अमेरिका में सर्वाधिक कमाऊ युवा सीईओ में दो भारतीय (मूल के) भी हैं। प्रसिद्ध बिजनेस पत्रिका फो‌र्ब्स द्वारा तैयार इस सूची में प्रकाशन क्षेत्र की माहिर साफ्टवेयर कंपनी एडोब के शांतनु नारायणन को 5 वां तथा बीपीओ दिग्गज काग्नीजेंट के फ्रांसिस्को डिसूजा को 15वां स्थान मिला है।
एक तथ्य ये भी है कि टॉप मैनेजमेंट और कर्मचारी के बीच में फ़र्क बढ़ रहा है.... एक कल्पना है डेमोलिशन मैन नाम की फ़िल्म में। इसमें भविष्य की दुनिया की तस्वीर है.... बहुत साफ़-सुथरी, लोग होने वाले अपराधों के नाम तक भूल गए हैं। खाने के नाम पर भरी हुई थालियां नहीं बस मुट्ठी भर चीज़ें हैं- जिनमें शरीर के लिए ज़रूरी सब चीज़ें हैं। सेक्स के लिए ये लोग शारीरिक संपर्क नहीं करते बल्कि दिमाग से ही उसकी अनुभूति कर संतुष्ट हो जाते हैं। लेकिन उसी वक्त में ज़मीन के नीचे एक और दुनिया है। ये लोग हमारे (तीसरी दुनिया के) ही ढंग से जीते हैं। गरीब और गंदगी से भरे हुए। ये लोग कभी-कभी अंडरग्राउंड दुनिया से बाहर आकर खाने की चीज़ों के लिए साफ़-सुथरे लोगों पर हमला करते हैं।
कभी-कभी मुझे डर लगता है कि क्या ये डरावनी कल्पना सही होने जा रही है

Thursday, September 18, 2008

राष्ट्रगान का विज्ञापन

एक विज्ञापन है, जनहित का--- राष्ट्रगान का सम्मान- राष्ट्र का सम्मान। ख़ूबसूरत ऐड है- बहुत बढ़िया बना है। (पता नहीं कहीं और दिखता है या नहीं हमारे चैनल पर तो अक्सर दिखता है क्योंकि नए लॉंच हुए इस चैनल पर विज्ञापन हैं नहीं अभी) स्कूल से लौट रही एक बच्ची अपनी मां के पेट पर हाथ मारती है और ...... खिलाने के लिए खींच ले जाती है.... अपनी कुछ महिलाएं गोलगप्पे खा रही हैं- गोलगप्पे उड़ने लगते हैं, ज़मीन पर उल्टे पड़े भिखारी के पास कोई लड्डू रख जाता है कि तभी हवा चलने लगती है- अचेतन दिख रहा भिखारी नोट पकड़ता है.... घड़ीसाज़ एक आंख पर लेंस लगाए पुर्ज़े बैठा रहा है कि चाय में पानी की बूंद टपकती है। बारिश होने लगी है। एक बूढ़ा मोची अपना सामान संभालता है... पन्नी से ढकता है। उसके बगल में तीन बच्चे बैठे हैं.... वो हंस रहे हैं.... बारिश तेज हो रही है बूढ़ा मोची रेडियो ट्यून करता है.... उसमें शुभा मुद्गल राष्ट्रगान गा रही हैं.... वो बच्चों की ओर देखता है फिर उठने लगता है.... बैसाखी पर बूढ़ा हाथ कसता है... अपनी डेढ़ टांग के साथ वो खड़ा हो जाता है.... उसे देख तीनों बच्चे भी खड़े हो जाते हैं..... बूढ़े के पुराने चश्मे पर पानी की बूंदें हैं जिनसे पार शायद ही दिख रहा हो.... इन चारों के बगल में लोग भीगने से बचने के लिए खड़े हो रहे हैं..... इनके आगे से एक लड़का और लड़की बारिश से बचते हुए दौड़ते हैं.... सिर्फ़ यही तीन खड़े रहते हैं.... फिर एड की पंचलाइन आती है.... राष्ट्रगान का सम्मान, राष्ट्र का सम्मान। मेड बाय........... सवाल ये है कि क्या ये राष्ट्र सिर्फ़ गरीब बूढ़े और उसके जैसे ही गरीब बच्चों का है.... या इस राष्ट्र का सम्मान सिर्फ़ इन्हीं के मन में रह गया है.... हो सकता है कि सिर्फ़ यही लोग इस संदेश का सम्मान करते हों। मेरी जानकारी में कम ही लोग हैं जो राष्ट्रगान सुनते ही खड़े हो जाएं... इसकी वजह अलग-अलग हो सकती हैं। कुछ को समझ नहीं आता कि इससे राष्ट्र के लिए समर्पण कैसे पता चलता है। कुछ शैलेष मटियानी को कोट करते हुए इस गीत को राष्ट्रगान के लिए ग़लत चयन बताते हैं। कुछ के लिए राष्ट्रगान पर सावधान होने के बजाय दूसरी चीज़ें महत्वपूर्ण हैं, ये बहस भी हो सकती है और मस्ती भी। कुछ तो इस देश में ग़लती से फंसे हुए हैं... उन्हें या तो कहीं क्रांति में शरीक होना था, डॉलर बटोरने थे। उनके लिए या तो ये देश संवेदनहीन मध्यवर्ग का है या ज़मीन पर लोगों को कुचलते नवधनाढ्यों का या विज्ञापन में दर्शित गरीबों का.... बहरहाल उनका नहीं।

पहले तो राष्ट्रगान टीवी पर अक्सर बजता था, रेडियो पर कभी-भी सुनाई देता था, सिनेमाहॉलों में फ़िल्म देखने जाओ तो वहां भी मिलता था.... लेकिन अब तो ज़्यादातर को ठीक से याद नहीं कि राष्ट्रगान कब सुना था... न ही इसकी ज़रूरत महसूस होती है। सचमुच !

Wednesday, September 17, 2008

टाइम ख़राब (द सीज)

कल पूरी रात बर्बाद हो गई (पूरी नहीं, बीयर नहीं होती तो पूरी बर्बाद होती)
कल 'द सीज' नाम की फ़िल्म देखी।
डेंज़ल वाशिंगटन और ब्रूस विलिस के चक्कर में ले गया था.... लेकिन अफ़सोस
हिंदी मसाला फ़िल्म की तरह ऊटपटांग। थोड़ी सी और आगे जाती तो मिथुन चक्रवर्ती की फ़िल्म हो जाती। सौ फ़ीसदी टाइम ख़राब
आतंकवाद अमेरिका में बहुत बिकने वाला विषय है। ख़ासतौर पर ९-११ के बाद। ये न सिर्फ़ लोगों की भावनाओं से जुड़ता है बल्कि इसमें एक्शन की भी भरपूर गुंजाइश होती थी। इस विषय पर कुछ अच्छी फ़िल्में भी बनी हैं... उनके नाम फिर कभी। तो इस विषय में पूरी गुंजाइश थी एक अच्छी-एंटरटेनिंग फ़िल्म बनने की। डेंज़ल वाशिंगटन, ब्रूस विलिस के अलावा सहायक रोल में एक्टर (नाम पता नहीं) बहुत अच्छी टीम बनती थी.... लेकिन कहानी का ही अता-पता नहीं। सिर्फ़ सब्जेक्ट से ही तो फ़िल्म नहीं बन जाती भाई।
ये वो वक्त भी नहीं कि लोगों के पास विकल्प नहीं होते थे रामानन्द सागर ने ऐतिहासिक रूप से घटिया प्रोडक्शन कर रामायण के नाम पर ऐतिहासिक कमाई कर डाली.... महाभारत भी बिका- पर उसका प्रोडक्शन अपेक्षाकृत बेहतर था। अब केकता कपूर तमाम मसालों के बावजूद कमाल नहीं कर पा रही....
हालांकि मुझे पता नहीं कि ये फ़िल्म अमेरिका में कितनी चली पर उम्मीद तो कर ही सकता हूं कि सुधी दर्शकों ने नकार दी होगी...

तो अगर मेरे अनुभव से फ़ायदा लेना है कि कृपया इस सीज़ से बचें।

Tuesday, September 9, 2008

dejavu

कल DEJAVU देखी। देजा वू यानि कि पूर्वानुभव। कुछ दिन हुए ट्रेलर देखा था एक डीवीडी में... दो वजहों से देखना तय किया... एक तो साइंस फ़िक्शन है- टाइम ट्रेवलिंग पर बेस्ड। दूसरी- डेंज़ल वाशिंगटन। ये दोनों वजहें मूवी को देखने लायक बनाती हैं- ये देखने के बाद कह रहा हूं। प्लॉट यूं है कि एक बोट (फ़ेरी) में विस्फ़ोट के बाद एक एटीएफ़ एजेंट (वाशिंगटन) जांच में जुटता है। इसी दौरान उसे एक लड़की की लाश भी मिलती है- जो विस्फ़ोट से पहले मारी गई थी, लेकिन ये दिखाने की कोशिश थी कि वो विस्फ़ोट में मरी है। इसी दौरान जांच को एफ़बीआई अपने हाथ में ले लेती है और वाशिंगटन को उसमें शामिल किया जाता है। फिर वैज्ञानिकों की एक टीम टाइम ट्रैवल सिस्टम (बैक टू द फ़्यूटर की तरह कार नहीं) के साथ बैठी मिलती है, जो सिर्फ़ वक्त में पीछे जाकर देख सकते हैं- बेशक कुछ शर्तों के साथ.... अब जद्दोजहद, वाशिंगटन वक्त में वापस जाने में कामयाब हो जाता है.... वगैरा-वगैरा
साइंस फ़िक्शन मुझे हमेशा से अपील करता है (हालांकि बेसिक थ्योरी भी समझ नहीं आ पाती), ख़ासतौर पर टाइम ट्रैवल। शायद दुनिया में सबसे ज़्यादा पसंद की जाने वाली थ्योरी भी यही होगी..... हर आदमी अपनी ग़लतियां सुधार लेना चाहता है.... चाहे वो गांधी हो या हिटलर। लेकिन एक बार टाइम ट्रैवलिंग की सभी कहानियों (मेरे लिए फ़िल्मों) में एक समान है... वो ये कि टाइम ट्रैवलिंग ज़रूर घटनाओं का क्रम तय करती है। यानि कि अगर मैं अगर कुछ घटित हो चुका बदलने भूतकाल में जाता हूं तो होता ये है कि जो मैं बदलता हूं उसका असर पहले ही मेरे वर्तमान पर दिखाई देता है.... टर्मिनेटर, देजा वू, बैक टू द फ़्यूचर सबमें ये एक तथ्य कॉमन है...
अलबत्ता तजवीज़ ये है कि देजा वू देखी जाने योग्य फ़िल्म है।

Monday, September 1, 2008

धर्म

कल धर्म देखी। पंकज कपूर सचमुच कमाल है। भावना तलवार नाम की महिला का मैं पहले परिचय में ही फ़ैन हो गया। डायरेक्शन सूपर्ब है, एक्टरस शानदार हैं, सिनेमेटोग्राफ़ी लाजवाब है। कुल मिला कर तुरंत देखने लायक फ़िल्म है।