बस कुछ देर पहले ख़बर आई कि श्रम मंत्री ऑस्कर फ़र्नांडीज़ ने अपने बयान के लिए माफ़ी मांग ली। बयान कि---
मैं कंपनियों के प्रबंधन से अपील करता हूं कि कर्मचारियों के मामले में संवेदनशीलता से सोचें। स्थायी कर्मचारियों और ठेके के कर्मचारियों के वेतन में भारी अंतर होता है। कर्मचारियों के साथ इस तरह का व्यवहार नहीं करना चाहिए जिससे ग्रेटर नोएडा जैसी घटना फिर से घटे।
दुखद घटनाक्रम है...
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5 comments:
यह कैसे नेता हैं, जिन्हें क्या भाषा प्रयोग करें यह ही नहीं आता? मानव संवेदनाएं तो हैं ही नहीं इन के अन्दर. वोट के लिए राजनीति करते-करते अब इंसान ही नहीं रहे यह नेता.
ग्रेज़ियानो कंपनी के सीईओ की मौत और उसके बाद श्रम मंत्री आस्कर फर्नांडिस का बयान विरोधाभासों से भरा है। हालांकि उन्होंने हत्या को महिमामंडन करने वाले अपने बयान पर माफी मांग ली है। लेकिन उनका बयान अपने पीछे कई सवाल छोड़ गया है। सवाल ये है कि क्या इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को रोका जा सकता था। मेरा मानना है कि हां... अगर समय रहते मंत्री जी ने कुछ किया होता।
देश आज श्रम कानून में सुधार के लिए त्राहिमाम कर रहा है। लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बांधने को कोई तैयार नहीं। नीचे कुछ उदाहरण पेश हैं जिनसे साफ होता है कि आज श्रम कानून में बदलाव कितना जरूरी है।
न्यूनतम मजदूरी एक्ट- 1948
ट्रेड यूनियन एक्ट- 1926
कॉनट्रेक्ट लेबर एक्ट- 1970
सप्ताहिक छुट्टियां एक्ट- 1942
बीड़ी और सिगार मजदूर एक्ट- 1966
और इन सबके ऊपर है उद्योग विवाद एक्ट(IDA)-1947. इसे भारत की आजादी मिलने के कुछ महीने पहले बनाया गया था। इसी कानून के तहत कोई कंपनी मजदूरों की भर्ती कर सकती है या फिर उन्हें निकाल सकती है। एक उदाहरण हैं कि कैसे एक आउटडेटेड कानून से हम लेबर मार्केट के रेगुलेट कर रहे हैं। IDA के तहत कोई कंपनी किसी मजदूर को भर्ती तो कर सकती है कि लेकिन उसे निकालना काफी मुश्किल होता है।
हालांकि IDA में अस्सी के दशक में बदलाव किया गया जिसके तहत सौ से ज्यादा लोगों को नौकरी देने वाली कोई कंपनी राज्य सरकार की अनुमति के बाद मजदूरों को नौकरी से निकाल सकती है.. लेकिन हकीकत में ऐसी अनुमति नहीं मिलना दिन में ख्वाब देखना सरीखा है। इसमें और बाकी कई श्रम कानूनों में कान्ट्रेक्ट का कोई प्रावधान नहीं है। मसलन कोई कंपनी ऐसा प्रोडक्ट बनाती है जिसका डिमांड हमेशा एक जैसा नहीं रहना। ऐसे में कंपनी मजदूरों के साथ कंट्रेक्ट करना चाहती है कि जरूरत नहीं होने पर उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाएगा। लेकिन IDA के तहत कंपनी के लिए ये संभव नहीं होगा।
पहली नजर में तो ऐसा लगता है कि इससे मजदूरों के अधिकार की रक्षा हो रही है लेकिन सच्चाई कुछ और है। IDA से बचने के लिए कंपनियां ठेकेदारों का सहारा लेती हैं, जैसा कि ग्रेजियानो के मैनेजमेंट ने किया। कंपनी प्रबंधन ने ठेकेदार के जरिये मजदूरों को रखा। यानी मजदूर काम तो ग्रेज़ियानो के लिए कर रहे थे लेकिन वो कंपनी के कर्मचारी नहीं थे। ऐसे में कंपनी और मजदूरों के बीच ठेकेदार आ गया।
अगर श्रम कानून थोड़ा लचीला होता तो ग्रेजियानो मजदूरों को सीधे भर्ती करती और उनकी जरूरत नहीं होने पर एक या दो महीने का नोटिस देकर निकालती। ऐसे में मजदूरों को सैलरी भी ठीक मिलती और एकाएक नौकरी जाने का भय भी नहीं रहता।
लेकिन कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के चलते श्रम सुधार कानून पिछले कई सालों से लटका पड़ा है। मेरा कहना है कि अगर श्रम मंत्री थोड़ा इस ओर सोचते तो हम ग्रेजियानो और हीरो होंडा कांड से बच जाते।
और आखिर में... हम मजदूरों से और कुर्बानियां नहीं मांग सकते... वो पहले से ही सोसाइटी के सबसे निचले पायदान पर हैं। अगर हम श्रम कानून में सही तरीके से बदलाव करते हैं तो इसका फायदा मजदूरों को ही मिलेगा।
आज ही आलोक पुराणिक ने लिखा है कि नेता चुनने का आधार - सिर्फ़ सूट की चिंता है- व्यंग्य उनका शानदार है, हंसी भी आती है लेकिन ये सच भी है। हमारे ज़्यादातर नेताओं को चिंता अपने सूट और सूइट की ही है।
अब उम्मीद करते हैं कि कम से कम इस बार ये विधेयक पास हो जाएगा... न हो उम्मीदों के अनुरूप पर कुछ तो आगे बढ़ें, शुरुआत तो हो।
देवेंद्र वर्मा जी टिप्पणियों में इतनी जानकारी देते हैं, कुछ अपने ब्लॉग पर भी डालते तो ज्यादा लोग उसे पढ़ पाते। ऑस्कर फर्नांडीज़ और शिवराज पाटिल जैसे नेताओं को बोलने की क्लास लालू यादव से ले लेनी चाहिए।
इस हत्या पर मार्सवादी होने का दावा करने वाले जरूर खुश हो सकते हैं कि चलो जिस वर्ग संघर्ष की बात कही गई थी, वो शुरू तो हुआ। बाबा की बात सही निकली। वर्ना ये कैंजे और उसके बाद आए पूंजीवादी लगातार उन्हें गलत साबित करने पर उतारू थे। पर मैं यह दावे से कह सकता हूं कि मार्क्स इस हत्या से खुश नहीं होते। मार्क्स का सिद्धांत समाज विग्यान का इतना साइंटफिक अध्ययन उसे ऐसी हत्याएं सबित करती हैं और न ही कोई पूंजीवाद झुठला सकता है। उनकी अवधारणा ने उस समय यूरोप के पूंजीवादियों को जो आइना दिखाया उसका ही असर है कि आज श्रमिक भलाई की बात होती है। मजदूरों के लिए घंटे और अन्य सुविधाओं की बात चली। श्रम और पूंजी के रिश्ते के बीच जो थोड़ी सी मानवता दिखती है, वह इस समाज को मार्क्स की ही देन है। मार्क्स ने उस समय बाजार के कारकों की व्याख्या की थी, और उनका समाजवाद बाजार से हो कर ही आ रहा है। बाजार की सुविधाएं ज्यादा से ज्यादा तक पहुंचें और बाजार का भी अंतिम लक्ष्य इन्हें हर आदमी तक बेचना है। लालझंडा लेकर चलने वाले तो सोवियत संघ के पतन के साथ ही करीब-करीब दिशाहीन हो गए।
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