Friday, December 31, 2010

एक डाकू की कहानी

डाकू फाड़ू दुर्दांत आजकल बड़ी उहापोह में है.... फ़ैसले की घड़ी आ गई है.... अब उसे तय करना है कि शांति की ज़िंदगी ही गुज़ारे या रिटायरमेंट छोड़कर वापस जंगल लौट जाए....
दिमाग कहता है कि अब बस उम्र हो गई है- आराम करो.... लेकिन दिल है कि मानता नहीं.... वो हो-हल्ले की ज़िंदगी, वो मारकाट, वो अपने ही डकैतों को आपस में लड़वाने का खेल और वो हसीनाएं..... आsssह सब बहुत याद आते हैं....

बहुत दिन नहीं हुए फादु को अपनी जंगल की दुनिया छोड़े.... अपने इलाके में वो ख़ौफ़ का दूसरा नाम था.... हालांकि अब सरकार से उसकी पटरी नहीं बैठ रही थी और वो इलाका छोड़ना उसकी मजबूरी हो गया था.... लेकिन क्या हुआ.... पहले भी ऐसा हो चुका है.... वो पहले भी अपने बनाए साम्राज्य से बाहर किया गया है.... लेकिन अपने बाजुओं की ताकत और अपने शातिर दिमाग से उसने फिर नया साम्राज्य बना लिया - फिर नया जंगल बसा लिया....

बहुत हरामी, बहुत ऐय्याश, बहुत क्रूर..... अपने स्वभाव के जैसे डकैत उसके आस-पास हमेशा रहते थे.... लेकिन फादु ने कभी किसी पर पूरा भरोसा नहीं किया.... लोग तो कहते कि वो अपने दिल की बात सपने में भी खुद से नहीं बोलता था.... यही रहस्यमयी बर्ताव उसका रौब और ख़ौफ़ दोनों बना कर रखते..... उसके सबसे प्रिय डाकू को भी डर रहता कि फादु कहीं उसकी ही न फाड़ दे- बेबात के.... फादु को इसमें मज़ा आता.... अपने बनाए जंगल में जब वो चिल्लाता तो बड़ी-बड़ी रामलीलाओं के भयंकर से भयंकर रावण भी बच्चे नज़र आते.....

लेकिन अब थोड़ी-थोड़ी थकान होने लगी है.... शरीर भी आखिर कब तक साथ देगा.... फिर शरीर भी ऐसा जिसका आपने पचास साल से भी ज़्यादा जानवरों की तरह शोषण किया हो.... दारूखोरी, औरतखोरी और हाथापाई में..... कभी-कभी तो ऐसा लगता कि दिमाग भी थकने लगा है....

इसलिए इस बार... इस बार उसने सोचा कि बस अब आराम करने का वक्त आ गया है.... ऐसा नहीं कि उसे किसी दूसरे इलाके से, किसी और नेता ने अपने यहां आ बसने का न्यौता नहीं दिया.... फादु की ख्याति दूर-दूर तक है.... लोगों का चाहे जो हो- सरकारों के लिए वो हमेशा फ़ायदे का सौदा रहा..... फिर भी ये साली सरकारें ये नेता उसका इस्तेमाल करने के बाद उसे दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं.... हाssssssह.... फादु गुर्राया.... साला जंगलराज.... जिस काम का वो एक्सपर्ट है (दूसरों को इस्तेमाल कर निकाल फेंकने का) उसी का वो भी शिकार होता रहा है.....

बस अब और नहीं.... विरक्ति हो गई फादु को इस दुनिया से, इस जंगल से

अब तो बस इससे दूर जाना है- फादु ने सोचा.... लेकिन फाड़ू दुर्दांत रिटायर भी होगा तो स्टाइल के साथ....

फादु ने रिटायरमेंट का पक्का इंतज़ाम कर लिया..... एक पुराने नेता को... जिसे वो बीच-बीच में उपकृत करता रहा है..... उसने इस बार के जंगलराज में पूरी तरह सैट किया..... उसके इलाके में जाल बिछाया.... उसे घेरे में लिया और फिर एक दिन- जब सारे डकैत किसी नए इलाके को जंगल बनाने की तैयारी कर रहे थे... फादु ने समर्पण कर दिया.....

फाड़ू दुर्दांत ने समर्पण कर दिया.... ये ख़बर जंगल में आग तरह फैली और सभी डकैत इससे झुलस गए.... किसी को इसकी उम्मीद नहीं थी.... सब अपनी जान बचाने के नुस्खे जुगाड़ने लगे.... फादु की जगह जो नया सरदार बना था- उसे साफ़ करने का इरादे त्याग दिए गए.... पुराने बागी वफ़दार हो गए और नए सरदार की बंदूक साफ़ करने लगे....

दुर्दांत डाकू फाड़ू का समर्पण पूरी शान-ओ-शौकत के साथ हुआ.... उसकी उम्र, उसकी काबिलियत और सबसे बढ़कर नेता के प्रभाव को देखते हुए..... फादु को खुली जेल में रखा गया... उसे घूमने-फिरने, बात करने, मेहमानों से मिलने-जुलने की पूरी आजादी थी... शांति की ज़िंदगी... जैसे किसी रिटायर सरकारी अधिकारी की हो....

शांति जेल जैसी है- खीजकर कहता फादु.... गुर्राने की आदत जा नहीं रही... साली कुचलने की ताकत के बिना तो ये कुछ ही दिन में मज़ाक बन जाएगी.... ज़्यादा दिन ऐसे ही रहा तो पादू कहलाने लगूंगा.... साला यहां तो ऐसे-ऐसे लोगों की सुननी पड़ रही है कि मन करता है कि गर्दन मरोड़ दूं.... ऐसी रिटायरमेंट से तो मौत अच्छी....

पिछले कुछ वक्त से फादु सोच रहा था कि जल्दी में ले लिया रिटायरमेंट.... अपना उत्तराधिकारी भी नहीं बना पाया ठीक से... हां साले सब नालायक ही निकले.... कोई वफ़ादार है तो काम का नहीं... जो काम का निकला वो वफ़ादार नहीं.... साले चूतिये हैं सब....
हां ये नया लड़का है तेज.... अपनी ही जाति का भी है.... शातिर, क्रूर, षड्यंत्रकारी- गुण सारे हैं दुर्दांत बनने के..... बस थोड़ा जल्दबाज़ है.... तो क्या मैं भी तो था..... फादु को अपने नए सेनापति में अपना अक्स दिखता था कभी-कभी.... सोचता था कि इसे ही सेनापति नियुक्त कर जाऊंगा.... लेकिन जंगल से इतनी जल्दी भागना पड़ा कि तैयारी का वक्त ही नहीं मिला.... रिटायरमेंट की योजना पर जल्दी ही अमल करना पड़ा..... ग़लती हो गई साली.... पीछे कोई तो ऐसा हो कि जंगल में जाने पर राजा का सा स्वागत हो.... वरना तो भूल ही जाएंगे सब.... दुनिया ही ऐसी है.....

तो.....
ग़लती सुधारने का वक्त है....

नेता चिढ़ेगा- तो क्या.... चिढ़ने दो साले को.... जबसे जेल में आया हूं उसके भी भाव बदल गए हैं....

दुनिया हंसेगी... कि फादु सठिया गया है - तो क्या.... हंसने दो ऐसा आतंक मचाऊंगा कि हंसने वालों के होंट फट जाएंगे- दांत गिर जाएंगे....

हाssssssह....

फादु ने ऐलान कर दिया...... मैं वापस आ रहा हूं.....

डकैत एक बार फिर से उत्साह में आने लगे.....

इस बार फादु काम पूरा निपटा कर ही लौटेगा..... उत्तराधिकारी को स्थापित करके आएगा- आखिरी दुर्दांत...... और फिर पक्की रिटारयरमेंट.... लेकिन पहले तो कत्लेआम मचाना है..... चलो थोड़ी गुर्राने की, चिल्लाने की और हां पार्टीबाज़ी की भी तैयारी कर ली जाए....

Saturday, October 23, 2010

आधुनिक नचिकेता

प्रतियोगिता दिनोंदिन बढ़ रही थी और इसी के चलते अपने अख़बार का प्रसार बढ़ाने के लिए यमराज के दौरे भी। ऐसे ही एक दौरे से लौटने के बाद उन्हें पता चला कि एक युवक पिछले तीन दिन से उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। बायो-डाटा देखते ही यम ने उसे बुलवा भेजा। ये देखकर कि शहर के सबसे सस्ते ढाबे और सबसे सस्ते होटल ने तीन दिन में ही उसकी हालत ख़स्ता कर दी है वह बेहद प्रसन्न हुए। प्रथम श्रेणी के छात्र और बेहद संभावनापूर्ण लेखक की मजबूरी को ताड़ते ही उनके मुंह में पानी आ गया। मुख पर गंभीरता ओढ़ इस पर बेहद दुख व्यक्त किया कि उसे तीन दिन इंतज़ार करना पड़ा। सख़्त ज़रूरत होते हुए भी कहा कि नौकरियों का बेहद टोटा है। उसकी निराशा और मजबूरी को बढ़ता देख आखिर यम ने उसकी इच्छा पूरी कर दी... उसे नौकरी दे दी और अपने अख़बार में अनंतकाल के लिए एक और प्रशिक्षु रख लिया।

(सुधीर राघव के लिए पंजाब केसरी (98-99) के दिनों में लिखी गई)

Thursday, October 14, 2010

तहखाना (दो पीस)

वॉल्व
टांय और ठांय के बीच
फंसी हुई पत्रकारिता
बंदूक से निकले
तो दांतों में अटके
तहखाने में दो दरवाज़े हैं अब
दोनों अपने किस्म के
डेंज़र वॉल्व के साथ

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पत्रकारिता और हिसाब
इसका मतलब वह नहीं
जो आप समझ रहे हैं
इसका मरने वालों,
हताहतों
पेट्रोल पंप पाने वालों
या इसी किस्म के
किसी भी आंकड़े से
कोई वास्ता नहीं

यह हिसाब प्रमोद कौंसवाल का है
ख़बर की बाइट गिनने
हेडिंग के शब्द गिनने का हिसाब
तहखाने के नए बाशिंदे की
अपनी पत्रकारिता है

(अमर उजाला (99-03) के दिनों में लिखी गई)

Monday, October 11, 2010

तहखाना

सिर्फ नए खून को निमंत्रण है यहां

वो तहखाने के कानूनों के खिलाफ बगावत

नहीं करता, नहीं कर सकता

हाथ नहीं उठाता, नहीं उठा सकता

इसलिए हां केवल इसलिए

नए खून को निमंत्रण हैं यहां

जलते हुए खून की गंध और स्वाद

हमारे बूढ़े आदमखोर को बेहद पसंद है


(अमर उजाला में अजय शर्मा ने ये कमाल का पीस लिखा था। आश्चर्य की बात ये है कि उसे ख़ुद भी याद नहीं कि ये उसने लिखा था। तहखाना में कुल चार पीस थे- ये मुझे याद रहा, रघुवीर सहाय की रामदास की तरह।)

Wednesday, October 6, 2010

मज़दूर मक्खी

हर रोज़ ऐसे कुछ लम्हे आते थे.... जब हम साइडलाइन्ड महसूस करते..... या गधों की तरह काम करते हुए देखते कि काम न करने वाले बॉस के आस-पास चहक रहे हैं जबकि यहां मूतने की फ़ुर्सत नहीं है.....
ऐसे ही एक लम्हे में उसने पूछा कि क्या यार..... हम ऐसे ही रह जाएंगे.... क्या हमारी ही तरक्की नहीं होगी.... बाकी चूतियों को देखो- कहां के कहां पहुंच गए. बोलो- क्या हमारी हालत कभी सुधरेगी भी.

रोज़ के विपरीत आज मैंने गाली नहीं दी.... रोज़ के विपरीत मैंने उसे सांत्वना नहीं दी.... रोज़ के विपरीत मैं आज मैं बोला- ऐसे कि जैसे मुझे बोधिसत्व प्राप्त हो गया है....
हां शायद हम ऐसे ही रह जाएंगे हमेशा..... जैसा कि मधुमक्खियों की दुनिया में होता है- मज़दूर मक्खी मज़दूरी ही करती है.

मतलब, उसने पूछा

देखो भाई- मधुमक्खियों का छत्ता एक पूरी दुनिया होता है. इसमें सिर्फ़ खाने वाले भी होते हैं और सिर्फ़ काम करने वाले भी. इसमें घर भी होते हैं. स्टोर रूम भी. राजमहल भी और मज़दूरों के घर भी. तो ज़रूर इसमें मीडिया हाउस भी होते होंगे-- अख़बार और टीवी भी होते होंगे. उनमें चैनल हेड होते होंगे और पैकेज प्रोड्यूसर होते होंगे. पत्रकारों को डंप करने के लिए इंजस्ट और व्हील जैसे तहखाने भी होते होंगे। लेकिन हमारी दुनिया की तरह उनमें कुछ नहीं होता होगा तो वो होगा असंतोष.

ये इसलिए कि मधुमक्खियों की दुनिया में चीज़ें साफ़ हैं. रानी मक्खी का काम है- प्रजनन करना और सेवा करवाना. तो मज़दूर मक्खी का काम है सेवा करना. इसमें सब तरह की सेवा शामिल है। नर मक्खी रानी के साथ मिलन करती है और मर जाती है-बिना किसी शिकायत के। यानि कि जिसके हिस्से जो काम आता है वो वही करता है. किसी को असंतोष नहीं, शिकायत नहीं।

तो मेरे दोस्त अगर आपको अपनी भूमिका पता हो तो कोई दिक्कत नहीं होगी. अगर आप पिछले पांच, दस, पंद्रह साल से मज़दूरी कर रहे हैं तो ज़रूर मज़दूर मक्खी ही होंगे। अपनी भूमिका ईमानदारी से निबाह लें वही बहुत है। जो रिपोर्टर मक्खी होते हैं वो इंजस्ट से भी रिपोर्टिंग में चले जाते हैं. प्रोड्यूसर मक्खी कुछ भी करके प्रोड्यूसरत्व को प्राप्त हो ही जाते हैं. और मज़दूर मक्खी को अगर प्रोड्यूसर बना भी दिया जाए तो वो वहां भी मज़दूरी ही करता है. इसी तरह प्रोड्यूसर मक्खी पैकेजिंग में भी प्रोड्यूसरी करती दिखेगी। अर्थात मज़दूर मक्खी कई साल के अनुभव और न्यूज़ सेंस के बाद भी पैकेज प्रोड्यूसर ही बनी रहेगी.

कुछ ऐसी मक्खियां भी हैं जो सिर्फ़ भिनभिना कर अपनी अहमियत बनाए रख सकती हैं. ये रानी मक्खी के आगे भिनभिनाती हैं फिर मज़दूर मक्खियों के आगे भिनभिनाती हैं और इतना भिनभिनाती हैं कि रानी और मज़दूर को एक-दूसरे की बात सुनाई नहीं देती. फिर ये दोनों को अलग-अलग कहानियां सुनाकर अपनी जगह बनाती और पक्की करती रहती हैं.....
ऐसी मक्खियां अपने आस-पास तो बड़ी तेजी से बढ़ रही हैं.... मधुमक्खियों की दुनिया में होती हैं या नहीं, इसका अभी पता नहीं.

तो बात साफ़ है कि अगर आपको अपनी स्थिति और भूमिका का पता हो तो फिर ऐसे सवाल बेमानी हो जाते हैं कि क्या हमारी स्थिति हमेशा ऐसी ही रहेगी. एक मज़दूर मक्खी जैसी.

(सहारा के दिनों में लिखी थी.... अब भी अपनी ही बात सही लगती है)

Friday, October 1, 2010

मैं बॉस नहीं

बॉसत्व एक भाव है.... स्थिति नहीं, पद नहीं.... भाव। कुछ लोग इसी भाव के साथ पैदा होते हैं (प्रोफेशन में)..... कुछ लोग उम्र गुज़ारने के बाद भी- पद पाने के बाद भी इस भाव को प्राप्त नहीं हो पाते.... कुछ जो ज़्यादा स्मार्ट होते हैं, मौका मिलते ही भाव को प्राप्त हो जाते हैं.... लेकिन ऐसे विरले ही होंगे जो पद न रहने पर इस भाव से मुक्ति पा जाएं.....
पहले भी सोचता रहा हूं- पिछले कुछ वक्त से ज़्यादा साफ़ दिख रहा है कि - अपन बॉस मटीरियल नहीं हैं। बॉसत्व प्राप्त लोगों से अपनी कभी अच्छी पटी भी नहीं.... कुछ मित्र भी बॉसत्व को प्राप्त हो गए हैं लेकिन वो तभी तक मित्र हैं जब तक उनके साथ काम न करना पड़े (एक के साथ करना पड़ा तो अब वो मित्र नहीं है)।
वैसे बॉसत्व की एक स्थिति को मैं भी प्राप्त हो गया हूं (करीब साल भर से) लेकिन भाव को प्राप्त नहीं हो पाया। अब भी मैं एक टीम लीडर ही हूं। वही टीम लीडर जो अमर उजाला में था (चाहे टीम दो-तीन आदमियों की क्यों न हो)। निश्चित काम, काम की निश्चित शर्तें और उसे डिलीवर करने का निश्चित समय। इन चीज़ों के साथ अपन ठीक रहे..... थोड़ी-बहुत जॉब सेटिस्फेक्शन भी मिलती रही। लेकिन बॉस के मन को पढ़ लेने की कला में अपन हमेशा ही पिछड़े रहे.... इसलिए करियर में भी पिछड़े ही रहे।
ये बात अब पुरानी हो गई है कि जिन्हें हम चूतिया कहते थे (काम के लिहाज से) वो आगे बढ़ते रहे..... अब वो इतने आगे बढ़ चुके हैं कि उन्हें चूतिया कहना दरअसल खुद बनना है। पहले तो समझ नहीं आता था अब साफ़ दिखता है.... काम करने वाला हमेशा काम ही करता रहेगा और तरक्की करने वाला तरक्की का रास्ता ढूंढ ही लेगा।
अभी कुछ वक्त पहले एक ने पूछा-
कहां हो
यहीं
मतलब काम कहां कर रहे हो
काम या नौकरी
मतलब
मतलब काम क्या और नौकरी कहां
अच्छा नौकरी कहां कर रहे हो
साधना न्यूज़ नोएडा
(मुझे पता था वो कहां है) तुम क्या कर रहे हो
वही जो हमेशा करते थे
मतलब- बकलोली
वो बुरा मान गया
लेकिन वो बॉस हो ही नहीं सकता जिसे बकलोली न आती हो..... बॉस से दबना और जूनियर्स को दबाना... ख़बर या अफ़वाह सही आदमी तक पहुंचाना.... बॉस के मूड के हिसाब से काम करना और सही वक्त पर सही आदमी चुनकर उसके लटक जाना..... इसके अलावा तरक्की का क्या कोई और नुस्खा है ?
अगर जानते हो तो मुझे भी बताना

Monday, May 24, 2010

मेरी जिनी

बचपन से मैं सोचता रहा हूं (मतलब जबसे मैंने अपने बारे में सोचना शुरू किया होगा) कि क्या मैं सुंदर हूं (शायद सभी खुद से ये पूछते हों).... लेकिन कभी भी मैं खुद को भी आत्मविश्वास से, शीशे में देखकर, ये नहीं कह पाया कि-- हां तू खूबसूरत है.... हमेशा वही कमज़ोर सा, टाइमपास, जवाब निकलता रहा... ठीक तो हूं, उतना भी खराब नहीं हूं..... लेकिन अब.... अब शायद स्थिति कुछ बदल रही है.... लोग कहते हैं (मतलब मेरी दीदियां और भी कुछ लोग) कि मेरी बेटी की शक्ल मुझसे मिलती है..... तो उसे देखकर मैं सोचता हूं कि अगर मैं ऐसा रहा होउंगा तो यकीनन मैं प्यारा रहा होउंगा.....










Sunday, January 17, 2010

बेटी तू किस पर हंस रही है

पिछले कुछ वक्त से (करीब डेढ़ महीने से) मैं अपनी बेटी को ग़ौर से देख रहा हूं..... (वैसे सभी अपने बच्चों को गौर से देखते होंगे) मेरी तीन बड़ी बहनों के छे बच्चे हैं (जैसे की सरकारी नीति है- बच्चे दो ही अच्छे).... यानि कि मैंने करीब-करीब घर में छे बच्चों को बड़ा होते देखा है..... दो-एक दोस्तों को छोड़कर सभी मुझसे बहुत पहले बाप बन चुके थे..... उनके बच्चों के साथ भी खेलता-खिलाता रहा हूं.... लेकिन कभी इतना छोटे बच्चे को नहीं खिलाया.... मुझे लगता है कि हममें से ज़्यादातर लोगों ने अपने बच्चों के अलावा इतने छोटे बच्चे को कम ही खिलाया होगा..... तो इस के साथ ही मुझे ये भी अहसास हुआ कि इतने छोटे बच्चे मां-बाप के ही होते हैं (दरअसल मां के) जब वो सिर्फ़ खाना, निकालना और सोना करते हों तो कोई उनके साथ क्या खेलेगा.... दादा-दादी, नाना-नानी जो भी उन्हें संभाल सके उसके भी होते हैं (नहीं लिखूंगो तो पापा बुरा मान सकते हैं)
शायद इसीलिए कहते हैं कि मां-बाप बने बिना, इसकी ख़ुशी और दिक्कतें समझ नहीं आतीं।
बहरहाल पिछले कुछ दिन से मैं ये भी समझने की कोशिश कर रहा हूं कि बच्चे हंसते-रोते क्यों हैं..... पिछले कुछ दिनों से तो जिनी मेरी कई तरह की आवाज़ों और शक्लों पर थोड़ा रिस्पांस भी करने लगी है लेकिन पहले भी वो हंसती थी-रोती थी-डरती थी..... नींद में भी और आंखें खोल कर भी.... उसका हमसे या उसके आस-पास की परिस्थितियों से सीधा कोई लेना-देना नहीं होता था.....
मैंने मम्मी-पापा से पूछा- तो उन्होंने कहा कि बेमाता हंसाती-रुलाती है।
मेरी दीदी का कहना था कि बच्चे को दूध के सपने आते हैं.... मिल रहा है तो ख़ुश, नहीं तो परेशान। हो सकता है- लेकिन जो कुछ दिन का बच्चा अपनी मां को ही नहीं पहचान पाता, वो दूध मिलने या छिनने के साफ़ चित्र कैसे देख-समझ पाता होगा।
बहरहाल और भी कुछ मत होंगे लेकिन पहले मैं अपना मत रख दूं..... मुझे लगता है कि बच्चों का हंसना, रोना, डरना, शांत होना पेट पर निर्भर करता है। पूरी तरह पेट में चल रहे कैमिकल रिएक्शन पर.... वैसे तो बड़ों का मूड भी पेट पर बहुत ज़्यादा निर्भर करता है लेकिन जब तक बच्चा दूसरी चीज़ें (पलटना, बैठना, घुटनों के बल चलना) नहीं सीख लेता तब तक सब कुछ पेट पर ही निर्भर करता होगा- सब कुछ