Monday, October 11, 2010

तहखाना

सिर्फ नए खून को निमंत्रण है यहां

वो तहखाने के कानूनों के खिलाफ बगावत

नहीं करता, नहीं कर सकता

हाथ नहीं उठाता, नहीं उठा सकता

इसलिए हां केवल इसलिए

नए खून को निमंत्रण हैं यहां

जलते हुए खून की गंध और स्वाद

हमारे बूढ़े आदमखोर को बेहद पसंद है


(अमर उजाला में अजय शर्मा ने ये कमाल का पीस लिखा था। आश्चर्य की बात ये है कि उसे ख़ुद भी याद नहीं कि ये उसने लिखा था। तहखाना में कुल चार पीस थे- ये मुझे याद रहा, रघुवीर सहाय की रामदास की तरह।)

1 comment:

सुधीर राघव said...

जो खून पच जाए वही पौष्टिक माना जाता है। अच्छा लिखा है। तहखाने तेजी से फैल रहे हैं।