Saturday, June 1, 2013

मिक स्लैटर और एनडी जोशी

बीबीसी में फ्रीलॉंसिंग (ओसी) के दौरान एक बात फिर से समझ आई है. भ्रष्टाचार, अनुशासन की तरह तमीज भी ऊपर से नीचे की ओर ही चलती है.
निजी रूप से मुझे इस बात से थोड़ी तकलीफ़ भी होती थी कि जिस मूल तमीज के लिए मैं जिन छह संस्थाओं (या पत्रकारिता की दुकानों) में तरसता रहा वह अंग्रेजों की एक संस्था में में ही नज़र आई है.
यह ठीक है कि मैंने बहुत शानदार जगहों पर काम नहीं किया लेकिन जहां काम किया (पंजाब केसरी, अमर उजाला, दैनिक जागरण, सहारा, वीओआई और साधना) वह सभी सबसे ख़राब नहीं थे.
यूं भी अन्य संस्थाओं (या पत्रकारिता की दुकानों) में काम करने वाले मित्रों के साथ बातचीत में पता चलता रहता है कि मूल तमीज करीब-करीब हर जगह से गायब है.
पिछले दो-तीन साल में मैंने बार-बार यह कहा है कि पत्रकारिता या कम से कम हिंदी पत्रकारिता किसी मूल्य या दृष्टि के बजाय व्यक्ति की सनक या अहम् से निर्देशित हो रही है.
अक्सर वह व्यक्ति संपादक होता है या दिखता है ( और दरअसल लाला होता है).

ऐसे में मिक स्लैटर से मिलना एक सुखद और आश्चर्यजनक अनुभव रहा.
मिक स्लैटर ने बीबीसी में 25 साल किया है और वह रिपोर्टर से मैनेजिंग एडिटर तक रहे हैं.
अब वह अपने दो साथियों के साथ मिलकर उन्होंने एक कंपनी बनाई है जो संपादकीय प्रशिक्षण, सलाह जैसे काम करती है.
हालांकि मुझे इस पर आश्चर्य होता है कि भारत में बीबीसी के अलावा कौन उनकी सेवाएं लेना चाहेगा.
अपनी बेहद संक्षिप्त मुलाकात के दौरान मैंने यह पूछ भी लिया- और बदले में उन्होंने मुझे अपना विज़िटिंग कार्ड दिया, कि अगर हमें कभी ज़रूरत हो तो ज़रूर बताएं.

मैंने मिक को यह नहीं कहा कि प्रशिक्षण की ज़रूरत तो सबको है यहां- ख़ासतौर पर शीर्ष नेतृत्व को. पत्रकारिता की बाद में मूल संस्कार के प्रशिक्षण की पहले.
न ही मैंने उन्हें यह बताया कि एक अंग्रेज से प्रशिक्षण शिविर तो सब आयोजित करवाना चाहेंगे, क्योंकि इसका काफ़ी अच्छा प्रभाव पड़ता है, लेकिन पैसे उन्हें कोई नहीं (शायद नहीं- यह तय है) देना चाहेगा.

शायद यह बीबीसी के ही संस्कार रहे होंगे कि बीबीसी में मैनेजिंग एडिटर जैसे पद पर रह चुका व्यक्ति इतना विनम्र हो कि वह यहां सबसे छोटे पद -ओसी (बोले तो स्ट्रिंगर)- पर काम कर रहे व्यक्तियों के साथ खड़ा होकर बात कर सके और उसकी बात भी सुन सके.. (या कम से कम ऐसा महसूस करा सके).
हालांकि यह कहा जा सकता है कि उन्हें पैसा मिल रहा होगा, जिसके लिए वह काम कर रहे हैं.
यकीनन यह सही है लेकिन सवाल यह है कि जो संपादक अपने यहां बदतमीजी की नित नई मिसालें कायम करे हैं क्या उन्हें पैसा नहीं मिल रहा?
मैं कह रहा हूं- मिल ही नहीं रहा, पूरी टीम का पैसा सिर्फ़ कुछ ही लोगों को मिल रहा है.
बहरहाल पत्रकारिता में काम कर रहे लोगों के पास इस तर्क के समर्थन में उदाहरणों की कमी नहीं होगी- इसलिए मैं उनके चक्कर में नहीं पड़ रहा हूं.

अब मैं जोशी जी को याद करना चाहता हूं.

गढ़वाल के जौनसार बाबर के चकराता में अमर उजाला के स्ट्रिंगर हैं नारायण दत्त जोशी या एनडी जोशी.
वह अख़बार शुरू होने के समय से ही अमर उजाला से जुड़े हुए हैं.
दैनिक जागरण शुरू हुआ तो उसने जोशी जी को अपने साथ आने का प्रलोभन भी दिया लेकिन ईमानदारी (या वफादारी) के चलते जोशी ने उससे इनकार कर दिया.
उन्होंने अपने परिवार में (संयुक्त परिवार में) किसी बच्चे को पुलिस की नौकरी में नहीं जाने दिया- ताकि लोग इसका ग़लत अर्थ न निकालें.
उन्होंने किसी बच्चे को राज्य सरकार की नौकरी में जाने को प्रोत्साहित नहीं किया क्योंकि इससे संदेश ग़लत जा सकता था.

करीब तीन साल पहले चकराता की यात्रा के दौरान जोशी जी से मुलाकात हुई थी.
चकराता जैसी छोटी जगह में जोशी जी की छोटी सी प्रिंटिंग प्रेस थी. यह प्रेस अख़बार में जुड़ने से पहले की ही, तब की जब वह अमर उजाला में नियमित चिट्ठियां लिखा करते थे.
वह तब (जब हमसे मिले थे) दो-तीन जोड़ी कपड़ों में ही रहते थे, जो वह साप्ताहिक बाज़ार में मिलने वाले सस्ते कपड़ों के ढेर में से छांटकर लेते थे.

हर रिपोर्टर की तरह जोशी के पास भी कई किस्से हैं कि कैसे उनकी ख़बर का असल हुआ था. लेकिन यह किस्से उनके प्रभाव को नहीं बताते बल्कि हर बार यह बताते हैं कैसे पत्रकारिता के माध्यम से लोगों की मदद की जा सकती है.
जोशी जी जैसे पत्रकारों के लिए समय दिन ब दिन मुश्किल होता जा रहा है.

फिलहाल यहां- जोशी जी के दो किस्से...
एक बार एक वृद्ध दंपत्ति चकराता बाज़ार के पास आए. उनके बच्चों ने उन्हें घर से निकाल दिया था. चकराता में पड़ने वाली भारी ढंग में उनके पास ढंग के कपड़े तक नहीं थे.
जोशी जी को पता चला तो सबसे पहले तो उन्होंने अपने घर से एक कंबल निकाला और दस रुपये (वह कहते हैं जो मेरी जेब में थे) वृद्ध दंपत्ति को थमाए.
इसके बाद और भी कपड़े और पैसे इकट्ठे हुए. एक दुकानदार ने कमरे में रुकने का इंतज़ाम भी कर दिया. इसके बाद प्रशासन और लोगों ने मिलकर बच्चों को समझाया और माता-पिता को ससम्मान वापस पहुंचाया.

बहलहार जोशी जी का अखबार (अमर उजाला- जो मुझे अब जोशी जी जैसे आदमियों का नहीं लगता) बहुत पहले देहरादून से निकलना शुरू हो चुका था.
कई संपादक बदल चुके थे, चकराता में भी युवा पत्रकारों की एक टोली खड़ी हो चुकी थी.
जोशी जी वहीं थे और वही थे लेकिन पत्रकारिता तेजी से बदल रही थी और बहुत ज़्यादा बदल चुकी थी.

राज्य में दूसरे चुनाव से पहले सभी रिपोर्टरों, स्ट्रिंगरों को देहरादून बुलाया गया.
यहां नए संपादक थे. युवा थे, तेज तर्रार माने जाते थे, साहित्यकार टाइप भी गिने जाते थे.
लेकिन दरअसल वह थे दिल्ली में बैठने वाले मुख्य संपादक के लग्गे-भग्गे.
जोशी जी का कहना था कि उन्हें अंदाज़ था कि क्या होगा, लेकिन इसका सामना पहली बार होने जा रहा था.

मीटिंग में सबको चुनाव विज्ञापन के लिए टार्गेट दिया जा रहा था. उत्साही रिपोर्टर खुद बढ़ा-चढ़ा कर टार्गेट बता रहे थे. जोशी जी यथासंभव छुपे हुए चुपचाप बैठे रहे.
संपादक चिढ़ गया. उसने चिल्ला कर पूछा कि आप कुछ क्यों नहीं बोल रहे हैं जोशी जी (जी शायद उम्र का ख़्याल करके, हो सकता है न भी कहा हो).
जोशी जी ने कहा मैं क्या बोल सकता हूं- जो आप तय कर देंगे वह कर देंगे.
बहरहाल जोशी जी को भी एक टार्गेट दिया गया.
लेकिन उन्होंने तय कर लिया था कि न वो किसी से विज्ञापन मांगने जाएंगे और न ही पैसे अपने हाथ से लेंगे.
देहरादून से एक मार्केटिंग का बंदा भेज दिया गया था, जो जोशी जी के असहयोग के बावजूद इलेक्शन में पैसे जुटाता रहा.
साफ़ है कि मैनेजमेंट जोशी जी से ख़ुश नहीं हुआ लेकिन जोशी जी पहले ही अंतिम छोर पर थे इसलिए उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया.
मेरी जानकारी में जोशी जी अब भी अपने ढंग से काम कर रहे हैं और पत्रकारिता के माध्यम से लोगों की मदद कर रहे हैं.

कोठी-बंगले कमाने वाले, अधिकारी-मंत्री बनाने वाले पत्रकारों के किस्से तो आपने बहुत सुने होंगे लेकिन जोशी जी जैसे लोगों के किस्से कम ही सुने-सुनाए जाते हैं.

तो मैं मिक स्लैटर और बीबीसी का शुक्रिया अदा करता हूं हिंदी पत्रकारों की बेहतर स्थिति दिखाने के लिए और
जोशी जी को सलाम करता हूं मुश्किल परिस्थितियों में भी पत्रकारिता और इंसानियत की लौ जलाए रखने के लिए.

Monday, May 27, 2013

स्पीड ब्रेकर

स्पीड ब्रेकर यानि कि रफ़्तार को कम करने के लिए बनाया गया उपकरण.
सामान्यतः सड़कों पर स्पीड ब्रेकर ही प्रकार के होते हैं, सड़कें चाहे कई प्रकार की होती हों. सड़क पर एक छोटी सी बाधा (ढलान के साथ) खड़ी की जाती है जिससे वाहन आराम से तो गुज़र पाएं लेकिन रफ़्तार से गुज़रने पर उछलने का ख़तरा हो.
लेकिन अपने देश में स्पीड ब्रेकर दो प्रकार के होते हैं.
एक तो वह जो सड़क पर ऊपर की ओर उठा होता है और दूसरा वह जो सड़क के नीचे की ओर घुसा होता है.
दूसरे प्रकार के स्पीड ब्रेकर को गड्ढा भी कहते हैं.
दोनों प्रकार के स्पीड ब्रेकर अपने यहां बहुतायत में पाए जाते हैं.
लेकिन इन्हें सिर्फ़ स्पीड ब्रेकर कहना भी उचित नहीं है. यह ब्रेकर हैं जो कई तरह की चीज़ें ब्रेक कर सकते हैं- पहली चीज़ तो स्पीड ही है. दूसरी चीज़ आपकी गाड़ी हो सकती है और तीसरी चीज़ आपकी हड्डी हो सकती है.
एक रिसर्च के अनुसार (कुछ अरसा पहले स्टार न्यूज़ पर दिखाई गई) सड़कों पर दोनों प्रकार के ब्रेकरों से रोज़-ब-रोज़ शनै-शनै हड्डियों का जो क्षरण होता है वह बड़ी दिक्कत पैदा कर सकता है.
पहली प्रकार के ब्रेकर सड़क पर ऐसे खड़े होते हैं कि आप सोचने लगते हैं कि मैं इस सड़क से क्यों आया. लेकिन अलग-अलग रास्तों से गुज़रते हुए जैसे-जैसे आपकी जानकारी बढ़ती है आपको पता चलता है कि सभी सड़कों का यही हाल है.
अपने देश में हासिल विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रताओं में एक प्रमुख है, सड़कों के इस्तेमाल की स्वतंत्रता.
कई प्रकार के समारोह के लिए आप बेझिझक तंबू तान कर इनका इस्तेमाल कर सकते हैं, कई प्रकार के व्यवसाय भी इन पर चला सकते हैं और स्थानीय पुलिस/अधिकारी/नेता के आशीर्वाद से बाकायदा पर्ची काट कर गाड़ियां पार्क करवा सकते हैं.
मौलिक सोच के स्वामी भारतीयों ने देश के हित में पिछले कुछ समय से सड़कों पर मनचाहे स्पीड ब्रेकर बनाना भी शुरू कर दिया है.
ईंट,सीमेंट से तो ब्रेकर बनते ही थे अब तो रेडीमेड लोहे के ब्रेकर भी आने लगे हैं. लाओ, पेच ठोको और हो गया. कॉलोनी के आगे, स्कूल के आगे, मंदिर के आगे- जहां चाहे ठोको और निश्चिंत हो जाओ.
आप पूछ सकते हैं कि क्या यह कानून सम्मत है. तो भैया कॉलोनी, स्कूल और मंदिर ही कानून सम्मत होंगे इसकी भी कोई गारंटी नहीं है.
बहरहाल दूसरे तरह के ब्रेकर (गड्ढे) तो स्वतः ही बनते हैं. कई बार यह इतनी गहरे और विशाल होते हैं कि सड़क पर न हों तो इन्हें खड्ड कहा जाए.
आप सोचते हैं कि गाड़ी के बजाय मैंने ट्रक ही लिया होता तो बेहतर रहता.
लेकिन मैं उन गड्ढों को सलाम करता हूं ट्रक भी जिनसे घबरा के चलते हैं.
इन गड्ढों की वजह वजह से सड़क दुर्घटना के किस्से अनगिनत होंगे लेकिन आप इस पहलू को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि यह कहीं न कहीं इन्हें कम भी कर रहे हैं.

Monday, May 13, 2013

नगीना और टाटा-गोदरेज

कल नगीना से मुलाकात हुई, अच्छा लगा. दरअसल अपने फ़न के माहिर किसी भी आदमी से मिलकर अच्छा लगता है.
नगीना एक मोची हैं.

दरअसल हुआ यूं कि मेरी घड़ी के पट्टे का लूप (चमड़े का घेरा जो पट्टे को बाहर भागने से रोकता है) टूट गया था. घड़ीसाज़ के पास गया (शोरूम नहीं- सस्ते में काम करने वाले के पास) तो पता चला कि लूप छुट्टे नहीं मिलते.
उसने सामने बैठे मोची की ओर इशारा किया, मैं वहां पहुंच गया.
मोची ने मेरी ज़रूरत को समझा और बताया कि वह नहीं कर सकता, अलबत्ता आगे जाकर चौराहे के पास एक मोची है वह कर देगा.
अपनी चप्पल या जूते सिलवा रहे एक सज्जन ने इसकी तस्दीक की और कहा कि वह बहुत बढ़िया कर देगा.

मैं कुछ भटकता हुआ, पूछता-ताछता पहुंचा.
मोची महोदय ने कहा- हो जाएगा ज़रा देर लगेगी.
कितनी?
जूता चिपकाना है, पॉलिश करनी है.
मैं बगल की पुलिया पर बैठ गया, देखने लगा.
जूता का तला- ऊपरी भाग से जुदा हो रहा था. उन्होंने सुलोचन (शायद यह सोल्यूशन का अपभ्रंश हो) से चिपकाया. फिर बॉंड से भी... मज़ा नहीं आया.
उन्होंने जूता वापस कर दिया. कहा यह कंप्रेशर मशीन से ही ठीक हो सकता है, एक ख़ास कैमिकल का भी उन्होंने नाम लिया था.

जूते वाले सज्जन के जाने के बाद मैंने पूछा कि क्या यह (कैमिकल) क्या है?
उन्होंने बताया- मेरे पास है, लेकिन यह जूता टिकेगा नहीं. बिना कंप्रेशर के नहीं पकड़ेगा. पूरा जूता खोलना पड़ेगा, फिर से चिपकाना होगा. कम से कम डेढ़-दो सौ रुपये का काम है. अगर कंपनी भेज देंगे तो चार-पांच सौ भी ले सकता है.

मैं- आप जूते बनाने का काम करते थे?
मोची- उन्होंने बताया कि हां डिज़ाइन बनाता था.
मुझे आश्चर्य हुआ.
बोले- यहां नहीं बंबई में था, यहां ज़्यादा काम नहीं है.
मैं- तो क्या उसमें पैसा ठीक नहीं मिलता.
मोची- नहीं, कुछ ज़्यादा नहीं देते.
मैंने जानना चाहा- जो लोग जूते बनाते हैं, उसमें तो अब ज़्यादा प्रोफ़िट होगा नहीं, लोग ब्रांडेड ही खरीद लेते हैं आजकल.
मोची- नहीं कुछ नहीं. अब हम भी बनाते हैं जूते. रखे हैं यहां. तीन-साढ़े तीन सौ का बेचते हैं हम. साढ़े तीन-चार सौ में से 50 रुपये बचते हैं सिर्फ़. उसमें भी दस बार काम करना पड़ता. ऐसा कैसे हो गया- फिर सिलो. उतने की सिलाई लग जाती है.
इस दौरान उन्होंने ब्राउन रंग मैच करके, चमके के मुलायम टुकड़े से लूप बना दिया और साइड में दिखने वाले क्रीम को उसे एक किस्म के रंग से दुरुस्त कर दिया. उस लूप को देखकर आसानी से कोई नहीं कह सकता कि यह एक मोची ने बनाया है.
इस दौरान एक और सज्जन आए पॉलिश करवाने, उन्होंने कहा कि इनका (मेरा) काम है उसके बाद ही होगा.

मैं उन मोची महोदय को क्यों पसंद कर रहा हूं-
1. उन्होंने अभी करता हूं- कहकर न मुझे, न दूसरे बंदे को रोकने की कोशिश की.
2. उन्होंने मुझसे पांच रुपये लिए और पॉलिश के लिए उन्हें कम से कम दस रुपये मिल सकते थे.
3. सबसे बड़ी बात वह आदमी एक उम्दा कारीगर है, उसके हाथ की सफ़ाई देखकर आपको समझ आता है कि हर कोई हर काम नहीं कर सकता.
4. इसके अलावा वह बेहद वाजिब दाम ले रहा है और आफ़्टर सेल सर्विस भी दे रहा है (जूता बेचने के बाद सिलाई जैसे काम)

इसीलिए मुझे गोदरेज और टाटा के वोल्टास की याद आती है. मैं अपने सभी जानकारों को कहता हूं कि वोल्टास और गोदरेज का सामान कभी मत लेना. यह लोग सिर्फ़ सामान बेचना जानते हैं, आफ़्टर सेल सर्विस जैसी चीज़ इन्हें अभी तक समझ नहीं आई. वोल्टास का एसी और गोदरेज का रेफ़्रिजरेटर इस्तेमाल करने के बाद मैं यह कह रहा हूं. मुझे उम्मीद नहीं है कि टोयोटा या हॉंडा की तरह कोई भारतीय कंपनी अपने प्रोडक्ट में दिक्कत का पता चलने पर उसे वापस लेगी या ठीक करेगी. निकट भविष्य में तो नहीं.

लेकिन नगीना करते हैं.

हां चलते-चलते उन्होंने कहा- अगर आप टाइम देते तो मैं इसे मशीन से बनाकर ले आता. बढ़िया बनता- घड़ी देने की भी ज़रूरत नहीं थी.
मैं- कहां से बनवाते
नगीना- घर से बनाकर लाता.
मैं- अगली बार, पक्का. वैसे बड़े भाई आपका नाम क्या है.
नगीना- हमारा नाम तो नगीना है.
मैं- नगीना (हंसते हुए), यह जनाना है कि मर्दाना
नगीना- (हंसते हुए) पता नहीं, जो मां-बाप ने रख दिया.....
हम दोनों हंसते हुए विदा होते हैं....
काश सभी भारतीय कंपनियां अपने ग्राहकों को इतना ही ख़ुश रख पातीं.






Friday, February 15, 2013

ऑफ़िस की यात्रा के नाम

सालों बाद ऑफ़िस टाइम में यात्रा करनी पड़ रही है.... मैं एक बार फिर सलाम करता हूं उन लोगों को जो सालों से रोज़ यह काम कर रहे हैं। बहुत हिम्मत चाहिए ऐसे यात्रा करने के लिए या चाहिए सिर्फ़ मजबूरी !
इंदिरापुरम से उद्योग भवन तक का सफ़र मुझे बार-बार प्याज और कोड़े वाली कहानी याद दिलाता है। मैट्रो में खड़े-खड़े यात्रा कर पैर दुखने लगते हैं तो लगता है कि बाइक से आना बेहतर है... बाइक से आओ तो जाम की घिटपिच से परेशान हो मैट्रो ही बेहतर लगने लगती है।
मैट्रो का सफ़र दिल्ली (मतलब एनसीआर) के सार्वजनिक परिवहन से बस थोड़ा ही अलग है.... बस इस मायने में कि इसके दरवाज़े बंद होते हैं और यह एसी है। लेकिन अब इसमें भी भीड़ भरे सफ़र के वही मज़े आने लगे हैं जो ब्ल्यू लाइन बसों में या भीड़ भरी ट्रेनों में आते हैं।
दरअसल पिछले कुछ वक्त से दिमाग शांत है। ज़िम्मेदारियां तो हैं लेकिन यह विश्वास भी है कि निबाह लेंगे। इसलिए अब रास्ते की भीड़ को देखकर गुस्सा नहीं आता मज़ा आता है।
आजकल मैट्रो की भीड़ को देखकर भी मज़ा आता है और एक सी रफ़्तार में एक-दूसरे से होड़ लगाती, टेढ़ी-मेढ़ी चलती गाड़ियों-बाइकों को देखकर भी।
वैसे मज़ा मैट्रो में ज़्यादा आता है। भीड़ है न, इसके अपने मज़े हैं।
यहां आपको सूट पहने हुए लोग भी मिलते हैं और प्लास्टिक की चप्पल पहने हुए भी।
ज़्यादातर लोग खुद ही बोरों की तरह डब्बे में ठुंस जाते हैं। लगता है कि एक अघोषित सोच व्याप्त हो गई है- यही आखिरी मौका है, चढ़ लो फिर पता नहीं मौका मिले न मिले।
मैं खुद भी अगली मैट्रो का इंतज़ार करना पसंद नहीं करता, क्योंकि मुझे पता है कि मैट्रो से ज़्यादा लोग हैं। मैट्रो तो दो मिनट में एक आती है लोग हर मिनट में सैकड़ों।
पिछले तीन हफ़्ते की मैट्रो की यात्रा ने ने सालों पुरानी यादें ताज़ा कर दी हैं। लोग अब भी वैसे ही हैं जैसे रेड लाइन लाइन बसों के वक्त थे (बस वाहन और उसका ऑपरेटर बदला हुआ है।
लोग तो कुछ ऐसे हैं कि खुद घुस गए तो बाहर वालों को अगली गाड़ी में आने की सलाह देने लगते हैं।
कुछ ऐसे हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए इसमें घुस कर ही मानेंगे।
कुछ को भीड़ से ऐतराज होता है।
कुछ भीड़ में मज़े लेते हैं- हाथ छोड़ देते हैं, भीड़ के साथ झूलते रहते हैं।
कुछ भीड़ में भी अकेले व्यक्ति को ढूंढ लेते हैं और धक्का देने की तमीज सिखाने लगते हैं।
ऐसे लोग भी हैं जो यह मानकर चलते हैं कि उन्हीं जैसों को मैट्रो जैसी साफ़ और शानदार सवारी में घुसने की इजाज़त होनी चाहिए- सबको नहीं। ऐसे लोग सबसे आसानी से पहचाने जाते हैं।
इस सबके बीच आप शांत रहें तो आपको बहुत से मज़ेदार पल जीने को मिल सकते हैं।
आप देख सकते हैं कि कैसे लोग मैट्रो में जबरन घुस रहे हैं और फिर इस कोशिश में लगे हैं कि बस किसी तरह दरवाज़ा बंद हो जाए। दरवाज़ा बंद तो आप इस गाड़ी वाले हो गए।
दरवाज़ा बंद न हो रहा हो तो कम से कम दो आवाज़ें ज़रूर आएंगी कि अगली गाड़ी में आ जाना भाई, यही अकेली थोड़े है। हालांकि यह बोलने वाले खुद गाड़ी छोड़ते होंगे इसमें मुझे संदेह रहता है।
बंद होते दरवाज़े के बीच में हाथ डालना दंडनीय अपराध है, लेकिन लिफ़्ट की तरह मैट्रो के गेट को भी रोज़ सैकड़ों या हज़ारों बार बंद होने से रोका जाता है- कभी हाथ डालकर, कभी पैर डालकर, कभी खुद पूरा आधा बीच में घुसकर। एक बार तो एक युवती ने तो अपना सिर डालकर गेट को बंद होने से रोका- बाकी का शरीर पता नहीं रह गया था।
बहरहाल मैट्रो ने दिल्ली वालों का तमीज वाला पक्ष उजागर किया है। मैंने कभी किसी को महिला के लिए सीट देने में आनाकानी करते नहीं देखा।
हालांकि अब मैट्रो में अक्सर यह सुनाई देने लगा है कि मैट्रो और ब्ल्यू लाइन में कोई फ़र्क नहीं रह गया। लेकिन हम सब जानते हैं कि दरअसल फर्क बहुत है।
मैट्रो के प्रशासन-संचालन-भीड़ से इतर एक सवाल मुझे समझ नहीं आ रहा- मेरा मैट्रो या मेरी ?