बीबीसी में फ्रीलॉंसिंग (ओसी) के दौरान एक बात फिर से समझ आई है. भ्रष्टाचार, अनुशासन की तरह तमीज भी ऊपर से नीचे की ओर ही चलती है.
निजी रूप से मुझे इस बात से थोड़ी तकलीफ़ भी होती थी कि जिस मूल तमीज के लिए मैं जिन छह संस्थाओं (या पत्रकारिता की दुकानों) में तरसता रहा वह अंग्रेजों की एक संस्था में में ही नज़र आई है.
यह ठीक है कि मैंने बहुत शानदार जगहों पर काम नहीं किया लेकिन जहां काम किया (पंजाब केसरी, अमर उजाला, दैनिक जागरण, सहारा, वीओआई और साधना) वह सभी सबसे ख़राब नहीं थे.
यूं भी अन्य संस्थाओं (या पत्रकारिता की दुकानों) में काम करने वाले मित्रों के साथ बातचीत में पता चलता रहता है कि मूल तमीज करीब-करीब हर जगह से गायब है.
पिछले दो-तीन साल में मैंने बार-बार यह कहा है कि पत्रकारिता या कम से कम हिंदी पत्रकारिता किसी मूल्य या दृष्टि के बजाय व्यक्ति की सनक या अहम् से निर्देशित हो रही है.
अक्सर वह व्यक्ति संपादक होता है या दिखता है ( और दरअसल लाला होता है).
ऐसे में मिक स्लैटर से मिलना एक सुखद और आश्चर्यजनक अनुभव रहा.
मिक स्लैटर ने बीबीसी में 25 साल किया है और वह रिपोर्टर से मैनेजिंग एडिटर तक रहे हैं.
अब वह अपने दो साथियों के साथ मिलकर उन्होंने एक कंपनी बनाई है जो संपादकीय प्रशिक्षण, सलाह जैसे काम करती है.
हालांकि मुझे इस पर आश्चर्य होता है कि भारत में बीबीसी के अलावा कौन उनकी सेवाएं लेना चाहेगा.
अपनी बेहद संक्षिप्त मुलाकात के दौरान मैंने यह पूछ भी लिया- और बदले में उन्होंने मुझे अपना विज़िटिंग कार्ड दिया, कि अगर हमें कभी ज़रूरत हो तो ज़रूर बताएं.
मैंने मिक को यह नहीं कहा कि प्रशिक्षण की ज़रूरत तो सबको है यहां- ख़ासतौर पर शीर्ष नेतृत्व को. पत्रकारिता की बाद में मूल संस्कार के प्रशिक्षण की पहले.
न ही मैंने उन्हें यह बताया कि एक अंग्रेज से प्रशिक्षण शिविर तो सब आयोजित करवाना चाहेंगे, क्योंकि इसका काफ़ी अच्छा प्रभाव पड़ता है, लेकिन पैसे उन्हें कोई नहीं (शायद नहीं- यह तय है) देना चाहेगा.
शायद यह बीबीसी के ही संस्कार रहे होंगे कि बीबीसी में मैनेजिंग एडिटर जैसे पद पर रह चुका व्यक्ति इतना विनम्र हो कि वह यहां सबसे छोटे पद -ओसी (बोले तो स्ट्रिंगर)- पर काम कर रहे व्यक्तियों के साथ खड़ा होकर बात कर सके और उसकी बात भी सुन सके.. (या कम से कम ऐसा महसूस करा सके).
हालांकि यह कहा जा सकता है कि उन्हें पैसा मिल रहा होगा, जिसके लिए वह काम कर रहे हैं.
यकीनन यह सही है लेकिन सवाल यह है कि जो संपादक अपने यहां बदतमीजी की नित नई मिसालें कायम करे हैं क्या उन्हें पैसा नहीं मिल रहा?
मैं कह रहा हूं- मिल ही नहीं रहा, पूरी टीम का पैसा सिर्फ़ कुछ ही लोगों को मिल रहा है.
बहरहाल पत्रकारिता में काम कर रहे लोगों के पास इस तर्क के समर्थन में उदाहरणों की कमी नहीं होगी- इसलिए मैं उनके चक्कर में नहीं पड़ रहा हूं.
अब मैं जोशी जी को याद करना चाहता हूं.
गढ़वाल के जौनसार बाबर के चकराता में अमर उजाला के स्ट्रिंगर हैं नारायण दत्त जोशी या एनडी जोशी.
वह अख़बार शुरू होने के समय से ही अमर उजाला से जुड़े हुए हैं.
दैनिक जागरण शुरू हुआ तो उसने जोशी जी को अपने साथ आने का प्रलोभन भी दिया लेकिन ईमानदारी (या वफादारी) के चलते जोशी ने उससे इनकार कर दिया.
उन्होंने अपने परिवार में (संयुक्त परिवार में) किसी बच्चे को पुलिस की नौकरी में नहीं जाने दिया- ताकि लोग इसका ग़लत अर्थ न निकालें.
उन्होंने किसी बच्चे को राज्य सरकार की नौकरी में जाने को प्रोत्साहित नहीं किया क्योंकि इससे संदेश ग़लत जा सकता था.
करीब तीन साल पहले चकराता की यात्रा के दौरान जोशी जी से मुलाकात हुई थी.
चकराता जैसी छोटी जगह में जोशी जी की छोटी सी प्रिंटिंग प्रेस थी. यह प्रेस अख़बार में जुड़ने से पहले की ही, तब की जब वह अमर उजाला में नियमित चिट्ठियां लिखा करते थे.
वह तब (जब हमसे मिले थे) दो-तीन जोड़ी कपड़ों में ही रहते थे, जो वह साप्ताहिक बाज़ार में मिलने वाले सस्ते कपड़ों के ढेर में से छांटकर लेते थे.
हर रिपोर्टर की तरह जोशी के पास भी कई किस्से हैं कि कैसे उनकी ख़बर का असल हुआ था. लेकिन यह किस्से उनके प्रभाव को नहीं बताते बल्कि हर बार यह बताते हैं कैसे पत्रकारिता के माध्यम से लोगों की मदद की जा सकती है.
जोशी जी जैसे पत्रकारों के लिए समय दिन ब दिन मुश्किल होता जा रहा है.
फिलहाल यहां- जोशी जी के दो किस्से...
एक बार एक वृद्ध दंपत्ति चकराता बाज़ार के पास आए. उनके बच्चों ने उन्हें घर से निकाल दिया था. चकराता में पड़ने वाली भारी ढंग में उनके पास ढंग के कपड़े तक नहीं थे.
जोशी जी को पता चला तो सबसे पहले तो उन्होंने अपने घर से एक कंबल निकाला और दस रुपये (वह कहते हैं जो मेरी जेब में थे) वृद्ध दंपत्ति को थमाए.
इसके बाद और भी कपड़े और पैसे इकट्ठे हुए. एक दुकानदार ने कमरे में रुकने का इंतज़ाम भी कर दिया. इसके बाद प्रशासन और लोगों ने मिलकर बच्चों को समझाया और माता-पिता को ससम्मान वापस पहुंचाया.
बहलहार जोशी जी का अखबार (अमर उजाला- जो मुझे अब जोशी जी जैसे आदमियों का नहीं लगता) बहुत पहले देहरादून से निकलना शुरू हो चुका था.
कई संपादक बदल चुके थे, चकराता में भी युवा पत्रकारों की एक टोली खड़ी हो चुकी थी.
जोशी जी वहीं थे और वही थे लेकिन पत्रकारिता तेजी से बदल रही थी और बहुत ज़्यादा बदल चुकी थी.
राज्य में दूसरे चुनाव से पहले सभी रिपोर्टरों, स्ट्रिंगरों को देहरादून बुलाया गया.
यहां नए संपादक थे. युवा थे, तेज तर्रार माने जाते थे, साहित्यकार टाइप भी गिने जाते थे.
लेकिन दरअसल वह थे दिल्ली में बैठने वाले मुख्य संपादक के लग्गे-भग्गे.
जोशी जी का कहना था कि उन्हें अंदाज़ था कि क्या होगा, लेकिन इसका सामना पहली बार होने जा रहा था.
मीटिंग में सबको चुनाव विज्ञापन के लिए टार्गेट दिया जा रहा था. उत्साही रिपोर्टर खुद बढ़ा-चढ़ा कर टार्गेट बता रहे थे. जोशी जी यथासंभव छुपे हुए चुपचाप बैठे रहे.
संपादक चिढ़ गया. उसने चिल्ला कर पूछा कि आप कुछ क्यों नहीं बोल रहे हैं जोशी जी (जी शायद उम्र का ख़्याल करके, हो सकता है न भी कहा हो).
जोशी जी ने कहा मैं क्या बोल सकता हूं- जो आप तय कर देंगे वह कर देंगे.
बहरहाल जोशी जी को भी एक टार्गेट दिया गया.
लेकिन उन्होंने तय कर लिया था कि न वो किसी से विज्ञापन मांगने जाएंगे और न ही पैसे अपने हाथ से लेंगे.
देहरादून से एक मार्केटिंग का बंदा भेज दिया गया था, जो जोशी जी के असहयोग के बावजूद इलेक्शन में पैसे जुटाता रहा.
साफ़ है कि मैनेजमेंट जोशी जी से ख़ुश नहीं हुआ लेकिन जोशी जी पहले ही अंतिम छोर पर थे इसलिए उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया.
मेरी जानकारी में जोशी जी अब भी अपने ढंग से काम कर रहे हैं और पत्रकारिता के माध्यम से लोगों की मदद कर रहे हैं.
कोठी-बंगले कमाने वाले, अधिकारी-मंत्री बनाने वाले पत्रकारों के किस्से तो आपने बहुत सुने होंगे लेकिन जोशी जी जैसे लोगों के किस्से कम ही सुने-सुनाए जाते हैं.
तो मैं मिक स्लैटर और बीबीसी का शुक्रिया अदा करता हूं हिंदी पत्रकारों की बेहतर स्थिति दिखाने के लिए और
जोशी जी को सलाम करता हूं मुश्किल परिस्थितियों में भी पत्रकारिता और इंसानियत की लौ जलाए रखने के लिए.
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