Monday, May 13, 2013

नगीना और टाटा-गोदरेज

कल नगीना से मुलाकात हुई, अच्छा लगा. दरअसल अपने फ़न के माहिर किसी भी आदमी से मिलकर अच्छा लगता है.
नगीना एक मोची हैं.

दरअसल हुआ यूं कि मेरी घड़ी के पट्टे का लूप (चमड़े का घेरा जो पट्टे को बाहर भागने से रोकता है) टूट गया था. घड़ीसाज़ के पास गया (शोरूम नहीं- सस्ते में काम करने वाले के पास) तो पता चला कि लूप छुट्टे नहीं मिलते.
उसने सामने बैठे मोची की ओर इशारा किया, मैं वहां पहुंच गया.
मोची ने मेरी ज़रूरत को समझा और बताया कि वह नहीं कर सकता, अलबत्ता आगे जाकर चौराहे के पास एक मोची है वह कर देगा.
अपनी चप्पल या जूते सिलवा रहे एक सज्जन ने इसकी तस्दीक की और कहा कि वह बहुत बढ़िया कर देगा.

मैं कुछ भटकता हुआ, पूछता-ताछता पहुंचा.
मोची महोदय ने कहा- हो जाएगा ज़रा देर लगेगी.
कितनी?
जूता चिपकाना है, पॉलिश करनी है.
मैं बगल की पुलिया पर बैठ गया, देखने लगा.
जूता का तला- ऊपरी भाग से जुदा हो रहा था. उन्होंने सुलोचन (शायद यह सोल्यूशन का अपभ्रंश हो) से चिपकाया. फिर बॉंड से भी... मज़ा नहीं आया.
उन्होंने जूता वापस कर दिया. कहा यह कंप्रेशर मशीन से ही ठीक हो सकता है, एक ख़ास कैमिकल का भी उन्होंने नाम लिया था.

जूते वाले सज्जन के जाने के बाद मैंने पूछा कि क्या यह (कैमिकल) क्या है?
उन्होंने बताया- मेरे पास है, लेकिन यह जूता टिकेगा नहीं. बिना कंप्रेशर के नहीं पकड़ेगा. पूरा जूता खोलना पड़ेगा, फिर से चिपकाना होगा. कम से कम डेढ़-दो सौ रुपये का काम है. अगर कंपनी भेज देंगे तो चार-पांच सौ भी ले सकता है.

मैं- आप जूते बनाने का काम करते थे?
मोची- उन्होंने बताया कि हां डिज़ाइन बनाता था.
मुझे आश्चर्य हुआ.
बोले- यहां नहीं बंबई में था, यहां ज़्यादा काम नहीं है.
मैं- तो क्या उसमें पैसा ठीक नहीं मिलता.
मोची- नहीं, कुछ ज़्यादा नहीं देते.
मैंने जानना चाहा- जो लोग जूते बनाते हैं, उसमें तो अब ज़्यादा प्रोफ़िट होगा नहीं, लोग ब्रांडेड ही खरीद लेते हैं आजकल.
मोची- नहीं कुछ नहीं. अब हम भी बनाते हैं जूते. रखे हैं यहां. तीन-साढ़े तीन सौ का बेचते हैं हम. साढ़े तीन-चार सौ में से 50 रुपये बचते हैं सिर्फ़. उसमें भी दस बार काम करना पड़ता. ऐसा कैसे हो गया- फिर सिलो. उतने की सिलाई लग जाती है.
इस दौरान उन्होंने ब्राउन रंग मैच करके, चमके के मुलायम टुकड़े से लूप बना दिया और साइड में दिखने वाले क्रीम को उसे एक किस्म के रंग से दुरुस्त कर दिया. उस लूप को देखकर आसानी से कोई नहीं कह सकता कि यह एक मोची ने बनाया है.
इस दौरान एक और सज्जन आए पॉलिश करवाने, उन्होंने कहा कि इनका (मेरा) काम है उसके बाद ही होगा.

मैं उन मोची महोदय को क्यों पसंद कर रहा हूं-
1. उन्होंने अभी करता हूं- कहकर न मुझे, न दूसरे बंदे को रोकने की कोशिश की.
2. उन्होंने मुझसे पांच रुपये लिए और पॉलिश के लिए उन्हें कम से कम दस रुपये मिल सकते थे.
3. सबसे बड़ी बात वह आदमी एक उम्दा कारीगर है, उसके हाथ की सफ़ाई देखकर आपको समझ आता है कि हर कोई हर काम नहीं कर सकता.
4. इसके अलावा वह बेहद वाजिब दाम ले रहा है और आफ़्टर सेल सर्विस भी दे रहा है (जूता बेचने के बाद सिलाई जैसे काम)

इसीलिए मुझे गोदरेज और टाटा के वोल्टास की याद आती है. मैं अपने सभी जानकारों को कहता हूं कि वोल्टास और गोदरेज का सामान कभी मत लेना. यह लोग सिर्फ़ सामान बेचना जानते हैं, आफ़्टर सेल सर्विस जैसी चीज़ इन्हें अभी तक समझ नहीं आई. वोल्टास का एसी और गोदरेज का रेफ़्रिजरेटर इस्तेमाल करने के बाद मैं यह कह रहा हूं. मुझे उम्मीद नहीं है कि टोयोटा या हॉंडा की तरह कोई भारतीय कंपनी अपने प्रोडक्ट में दिक्कत का पता चलने पर उसे वापस लेगी या ठीक करेगी. निकट भविष्य में तो नहीं.

लेकिन नगीना करते हैं.

हां चलते-चलते उन्होंने कहा- अगर आप टाइम देते तो मैं इसे मशीन से बनाकर ले आता. बढ़िया बनता- घड़ी देने की भी ज़रूरत नहीं थी.
मैं- कहां से बनवाते
नगीना- घर से बनाकर लाता.
मैं- अगली बार, पक्का. वैसे बड़े भाई आपका नाम क्या है.
नगीना- हमारा नाम तो नगीना है.
मैं- नगीना (हंसते हुए), यह जनाना है कि मर्दाना
नगीना- (हंसते हुए) पता नहीं, जो मां-बाप ने रख दिया.....
हम दोनों हंसते हुए विदा होते हैं....
काश सभी भारतीय कंपनियां अपने ग्राहकों को इतना ही ख़ुश रख पातीं.






7 comments:

sushilnayal said...

bahut khub Bunty Bhai

बी एस पाबला said...

उम्दा शैली
सारगर्भित संस्मरण

Archana Chaoji said...

कई लोग साधारण होते हुए ही असाधारण रूप से प्रभावित कर जाते हैं ... ऐसे लोगों से सीख लेते हुए ही आगे बढ़ना अच्छा लगता है ....
ब्लॉग बुलेटिन से आपके ब्लॉग की लिंक मिली और यहाँ आना हुआ ...अच्छा लगा ...

विवेक रस्तोगी said...

वैसे ऐसे नगीने कम ही मिलते हैं, और ऐसे नगीने बहुत काम के होते हैं, क्यों पसंद है.. आपकी साफ़गोई बहुत पसंद आई ।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

अच्छा लगा। बातचीत वाले अंदाज में अच्छी सीख।

Madan Mohan Saxena said...

कितना अच्छा लिखा है आपने।
बहुत उत्कृष्ट अभिव्यक्ति.हार्दिक बधाई और शुभकामनायें!
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |सादर मदन

http://madan-saxena.blogspot.in/
http://mmsaxena.blogspot.in/
http://madanmohansaxena.blogspot.in/
http://mmsaxena69.blogspot.in/

kewal tiwari केवल तिवारी said...

पत्रकारिता के नाम पर अब ऐसे-ऐसे महान लोग आ गये हैं जिनमें जोशी जी जैसे लोग फिट नहीं हो पाते। अजीब बात तो यह है कि स्टेटस सिंबल हो गया है आपका लाव लश्कर। मैं कई क्राइम रिपोर्टर्स को जानता हूं जो एक छोटे से फंक्शन में भी अपने यहां डीसीपी, एसीपी और एमएलए आदि की लाइन लगा देते हैं। उनका तर्क है संस्थान भी तब तक पूछता है जब तक काम है। जब तक काम है तो तब तक नाम और नामा कमाओ चाहे इसी अंदाज में