Thursday, September 18, 2008

राष्ट्रगान का विज्ञापन

एक विज्ञापन है, जनहित का--- राष्ट्रगान का सम्मान- राष्ट्र का सम्मान। ख़ूबसूरत ऐड है- बहुत बढ़िया बना है। (पता नहीं कहीं और दिखता है या नहीं हमारे चैनल पर तो अक्सर दिखता है क्योंकि नए लॉंच हुए इस चैनल पर विज्ञापन हैं नहीं अभी) स्कूल से लौट रही एक बच्ची अपनी मां के पेट पर हाथ मारती है और ...... खिलाने के लिए खींच ले जाती है.... अपनी कुछ महिलाएं गोलगप्पे खा रही हैं- गोलगप्पे उड़ने लगते हैं, ज़मीन पर उल्टे पड़े भिखारी के पास कोई लड्डू रख जाता है कि तभी हवा चलने लगती है- अचेतन दिख रहा भिखारी नोट पकड़ता है.... घड़ीसाज़ एक आंख पर लेंस लगाए पुर्ज़े बैठा रहा है कि चाय में पानी की बूंद टपकती है। बारिश होने लगी है। एक बूढ़ा मोची अपना सामान संभालता है... पन्नी से ढकता है। उसके बगल में तीन बच्चे बैठे हैं.... वो हंस रहे हैं.... बारिश तेज हो रही है बूढ़ा मोची रेडियो ट्यून करता है.... उसमें शुभा मुद्गल राष्ट्रगान गा रही हैं.... वो बच्चों की ओर देखता है फिर उठने लगता है.... बैसाखी पर बूढ़ा हाथ कसता है... अपनी डेढ़ टांग के साथ वो खड़ा हो जाता है.... उसे देख तीनों बच्चे भी खड़े हो जाते हैं..... बूढ़े के पुराने चश्मे पर पानी की बूंदें हैं जिनसे पार शायद ही दिख रहा हो.... इन चारों के बगल में लोग भीगने से बचने के लिए खड़े हो रहे हैं..... इनके आगे से एक लड़का और लड़की बारिश से बचते हुए दौड़ते हैं.... सिर्फ़ यही तीन खड़े रहते हैं.... फिर एड की पंचलाइन आती है.... राष्ट्रगान का सम्मान, राष्ट्र का सम्मान। मेड बाय........... सवाल ये है कि क्या ये राष्ट्र सिर्फ़ गरीब बूढ़े और उसके जैसे ही गरीब बच्चों का है.... या इस राष्ट्र का सम्मान सिर्फ़ इन्हीं के मन में रह गया है.... हो सकता है कि सिर्फ़ यही लोग इस संदेश का सम्मान करते हों। मेरी जानकारी में कम ही लोग हैं जो राष्ट्रगान सुनते ही खड़े हो जाएं... इसकी वजह अलग-अलग हो सकती हैं। कुछ को समझ नहीं आता कि इससे राष्ट्र के लिए समर्पण कैसे पता चलता है। कुछ शैलेष मटियानी को कोट करते हुए इस गीत को राष्ट्रगान के लिए ग़लत चयन बताते हैं। कुछ के लिए राष्ट्रगान पर सावधान होने के बजाय दूसरी चीज़ें महत्वपूर्ण हैं, ये बहस भी हो सकती है और मस्ती भी। कुछ तो इस देश में ग़लती से फंसे हुए हैं... उन्हें या तो कहीं क्रांति में शरीक होना था, डॉलर बटोरने थे। उनके लिए या तो ये देश संवेदनहीन मध्यवर्ग का है या ज़मीन पर लोगों को कुचलते नवधनाढ्यों का या विज्ञापन में दर्शित गरीबों का.... बहरहाल उनका नहीं।

पहले तो राष्ट्रगान टीवी पर अक्सर बजता था, रेडियो पर कभी-भी सुनाई देता था, सिनेमाहॉलों में फ़िल्म देखने जाओ तो वहां भी मिलता था.... लेकिन अब तो ज़्यादातर को ठीक से याद नहीं कि राष्ट्रगान कब सुना था... न ही इसकी ज़रूरत महसूस होती है। सचमुच !

5 comments:

Shastri JC Philip said...

"लेकिन अब तो ज़्यादातर को ठीक से याद नहीं कि राष्ट्रगान कब सुना था"

सच है! लेकिन यह दुख की बात भी है. आलेख के लिये आभार !!


-- शास्त्री

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वर्षा said...

मुझे राष्ट्रगान के समय सावधान की मुद्रा में खड़े होने का औचित्य समझ नहीं आता। बैठे-बैठे भी तो राष्ट्रगान गुनगुनाया जा सकता है, इसमें कही भी देशप्रेम का भाव कम नहीं होता।

सुधीर राघव said...

असल में राष्ट्र प्रेम कोई अवधारणा नहीं एक फैशन था, जो गाहे-बगाहे दिख जाता है, ७० के दशक तक यह चरम पर था, ९० के बाद इससे बड़ी अवधारण (वैश्विक कुटुम्ब) पांव पसारने लगी। बड़ी अवधारणा के आगे छोटी अवधारणा के द्योतक के रूप में गरीब, अपाहिज और बूढ़े ही दिखाए जा सकते हैं, मुझे लगता है कि इस एड के पीछे भी इसके रचनाकार की यही मनसा रही होगी। कला दुनिया की तरह सिर्फ त्रिआयामी ही नहीं होती उसके और भी मायने हो सकते हैं। वैसे दुनिया के आयाम भी अनंत है, साइंस अब इस नई अवधारणा पर काम कर रही है। फिर भी आपके निट्ठल्ले चिंतन ने से एक अच्छा लेख बन पड़ा है। धन्यवाद

महेन said...

खड़े होकर या बैठकर जैसे भी, फ़र्क पड़ता है क्या? मगर यदि एक नियम बना दिया गया है कि इसे सुनते ही सावधान मुद्रा में खड़े हो जाना है तो उस नियम का पालन न करना इसका अपमान हो जाता है।
बहरहाल राष्ट्रगान तो मुझे ठीक से याद भी नहीं और जब याद था तब उसका मतलब नहीं मालूम था।

Ek ziddi dhun said...

rashtrbhakti takatvar tabke kee laathee hai, gareebo ko hanka jaata hai is se