कल DEJAVU देखी। देजा वू यानि कि पूर्वानुभव। कुछ दिन हुए ट्रेलर देखा था एक डीवीडी में... दो वजहों से देखना तय किया... एक तो साइंस फ़िक्शन है- टाइम ट्रेवलिंग पर बेस्ड। दूसरी- डेंज़ल वाशिंगटन। ये दोनों वजहें मूवी को देखने लायक बनाती हैं- ये देखने के बाद कह रहा हूं। प्लॉट यूं है कि एक बोट (फ़ेरी) में विस्फ़ोट के बाद एक एटीएफ़ एजेंट (वाशिंगटन) जांच में जुटता है। इसी दौरान उसे एक लड़की की लाश भी मिलती है- जो विस्फ़ोट से पहले मारी गई थी, लेकिन ये दिखाने की कोशिश थी कि वो विस्फ़ोट में मरी है। इसी दौरान जांच को एफ़बीआई अपने हाथ में ले लेती है और वाशिंगटन को उसमें शामिल किया जाता है। फिर वैज्ञानिकों की एक टीम टाइम ट्रैवल सिस्टम (बैक टू द फ़्यूटर की तरह कार नहीं) के साथ बैठी मिलती है, जो सिर्फ़ वक्त में पीछे जाकर देख सकते हैं- बेशक कुछ शर्तों के साथ.... अब जद्दोजहद, वाशिंगटन वक्त में वापस जाने में कामयाब हो जाता है.... वगैरा-वगैरा
साइंस फ़िक्शन मुझे हमेशा से अपील करता है (हालांकि बेसिक थ्योरी भी समझ नहीं आ पाती), ख़ासतौर पर टाइम ट्रैवल। शायद दुनिया में सबसे ज़्यादा पसंद की जाने वाली थ्योरी भी यही होगी..... हर आदमी अपनी ग़लतियां सुधार लेना चाहता है.... चाहे वो गांधी हो या हिटलर। लेकिन एक बार टाइम ट्रैवलिंग की सभी कहानियों (मेरे लिए फ़िल्मों) में एक समान है... वो ये कि टाइम ट्रैवलिंग ज़रूर घटनाओं का क्रम तय करती है। यानि कि अगर मैं अगर कुछ घटित हो चुका बदलने भूतकाल में जाता हूं तो होता ये है कि जो मैं बदलता हूं उसका असर पहले ही मेरे वर्तमान पर दिखाई देता है.... टर्मिनेटर, देजा वू, बैक टू द फ़्यूचर सबमें ये एक तथ्य कॉमन है...
अलबत्ता तजवीज़ ये है कि देजा वू देखी जाने योग्य फ़िल्म है।
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9 comments:
वाह!
वाह माने
भाई लोगो, आपमें जो अंग्रेजी फिल्म देखने के शौकीन हैं, वे यहां कुछ राय दें तो चर्चा बढ़े। अपना सोतड़ू तो इन फिल्मों का धसकी है। लेकिन इसे कहो कि अगली बार थोड़ा और धैर्य और ज्यादा डीटेल के साथ लिखे। सनक न जाए तो आदमी हट के है...
भाई सोतड़ू तुम जागते हो तो ब्लॉग पर एक फिल्म समीक्षा उड़ेल देते हो। पूरा मीडिया ही फिल्म समीक्षा में जुटा है। साइंस फिक्सन अच्छे हैं, मगर हॉलीवुड का नजरिया और हमारे धर्म गुरुओं का नजरिया साइंस को लेकर एक जैसा है। साइंस के सकारात्मक पहलू इन्हें नजर नहीं आते, किसी भी खोज की बात चले, इनके दो ही जवाब होते हैं, परिणाम आने से पहले यह कि, यह मानव जाति के लिए खतरनाक होगा, अगर परिणाम अच्छा रहे तो कहा जाता है कि यह ऋषि-मुनि पहले ही कह चुके हैं। साइंस पर आप इस लिए विश्वास कर सकते हो कि वह जो रचेगा, सबके लिए होगा। वह कोई बीजमंत्र नहीं कि जब तक गुरूजी के चरण न पकड़ो तब तक नहीं मिलेगा। साइंस आपको मानसिक गुलामी नहीं बांटती।
तुलसी भाई,
मैं फ़िल्में देखने का आदी हूं। अकेले (मतलब अक्सर बीवी के साथ) देखता हूं। फिर मुझे लगता है कि जो अच्छी चीज़ है उसके बारे में दोस्तों को भी बताना चाहिए... अच्छी किताब पढ़ूंगा, कहानी पढ़ूंगा, ब्लॉग देखूंगा, गाने सुनूंगा तो उनके बारे में भी कहूंगा।
हां एक बात और मेरा ब्लॉग दोस्तों से बातें करने के लिए है... ठीक वैसे ही जैसे कि तुम-हम फ़ोन पर, ईमेल पर बातें करते हैं.... कोई अच्छा चुटकुला आता है तो हम उसे फॉरवर्ड कर देते हैं.... तो अच्छी फ़िल्म (और अन्य चीज़ें) क्यों न शेयर की जाएं...
महेंद्र की तर्ज पर मैं कुछ गाने भी डालने की सोच रहा था लेकिन उसके लिए मेहनत ज़्यादा लगेगी.... तो फ़िल्म देखने, सोने के बाद जो वक्त बचता है उसमें फ़िलहाल तो यही कर पा रहा हूं...
अर्ज़ किया है....
कोई चर्चा करना या हिट बढ़ाना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि बात दोस्तों तक पहुंचनी चाहिए
अर्ज़ किया है...
चर्चा करना या हिट बढ़वाना मेरा मक़सद नहीं
कोशिश है कि बात दोस्तों तक पहुंचनी चाहिए
यानि कि हिट ब्लॉग के कंपीटीशन में पड़ने से क्या फ़ायदा.... मैं तो सोचता हूं कि किसी एक के ब्लॉग पर ही सब लिख लें.... लेकिन अपने-अपने कोने के लिहाज से ये बना लिया... अब जब तक चलता है ठीक है, वरना तुम लोगों के ब्लॉग हिट करवाने के लिए काम करेंगे
भाई सोतड़ू तुमने जो प्रतिक्रिया का सैलाब उगला, अच्छा लगा। वैसे आदमी कोई बहुत प्लांड नहीं हो सकता (संभव है कुछ लोग होते हैं), मुझे लगता है कि आदमी को जो आता है, या किसी समय में वह कर सकता है तो कर देता है। असल में मकसद और लोग निकालते रहते हैं। मकसद सिर्फ भ्रम है। वैसे भी दुनिया की पांच अरब आबादी के बीच आप प्लांड होकर कुछ करोगे तो कोई न कोई उस प्लान को चौपट करने वाला निकल ही आएगा। इस प्लान कुछ नहीं होता, कंपनियों में भी जो मकसद और प्लान की बात की जाती है, वह भी टीम को एक जुट रखने के लिए होती है। नतीजे हमेशा प्लान का परिणाम न होकर उसे अंजाम देने वाले लोगों द्वारा ऐन मौके पर प्लान से हटकर ले लिए गए निर्णय ही होते हैं। इन नायक बन जाने वालों का निर्णय भी प्लान्ड नहीं होता। गांधी जी भारत में वकालत में चल नहीं पाये, रोजी-रोटी के चलते अफ्रीका गए, उन्होंने कोई प्लान नहीं किया था कि वह वहां जाकर कोई आंदोलन खड़ा करेंगे। प्लान सिकंदर ने किया था, दुनिया जीतने का, पोरस को जीतने के बाद भी प्लान चौपट हो गया, वह मगध की ओर बढ़ने से पहले ही वापस लौट गया। मुझे लगता है, ईसा और बुद्ध ने भी कोई प्लान नहीं किया था।
khoob likhi hai film samiksha..time treaveling par tumne bahut sochkar achci baat dhoondi hai.
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