Wednesday, October 29, 2008

बट सोमू कान्ट कैलकुलेट साला


बाल मज़दूरी मेरे लिए एक मुश्किल विषय है। कई दिन से मैं इस पर कुछ भी कहने से बच रहा हूं। दिक्कत ये है कि लिखने से तो बच सकते हैं लेकिन विषय का सामना करने से नहीं।

दरअसल पहाड़ के घरों में छोटू रखने का रिवाज नहीं है, कम से कम अब तक तो नहीं। मेरी किसी पहाड़ी परिचित के घर में गांव से लाया गया गरीब बच्चा काम करता नहीं दिखता। इसलिए मुझे अब भी घरेलू नौकर असहज भाव ही देते हैं। लेकिन पूरब में ऐसा नहीं है... वहां ये सामाजिक रूप से स्वीकार्य और शायद अनिवार्य भी है।

कुछ दिन पहले मेरी सास आई थीं अपने घरेलू नौकर, सोमू, के साथ। सोमू अब बाल मज़दूर नहीं है वो अट्ठारह साल का युवक है। स्वस्थ युवक। लेकिन मुझे लगता है कि वो वैसा नहीं जैसा कि उसे होना चाहिए था। बहुत छोटी उम्र में सोमू को घर लाया गया था... उसे घर का काम-काज सिखाया गया और पिछले 10-12 साल से वो यही कर रहा है। मेरी श्रीमती जी कहती हैं कि उन्होंने सोमू को पढ़ाने की कोशिश भी की थी लेकिन वो नहीं पढ़ा। लेकिन ऐसा सिर्फ़ एक नौकर के साथ ही हो सकता है कि वो रुचि न दिखाए तो न पढ़े। अपने बच्चे को तो पुचकार कर या मार कर पढ़ाया ही जाएगा। हालांकि मैं ये भी बताता चलूं कि यूं सोमू की स्थिति बेहतर है। वो कोक भी पीता है और सास-बहू सीरियर भी देखता है.. गालियां नहीं खाता.... लेकिन सोमू हिसाब भी नहीं कर सकता। वो घर का पता, फ़ोन नंबर याद नहीं रख पाता-

अपने एक मित्र रणविजय के घर भी एक मैंने एक बच्चे नौकर को देखा। ज़ाहिर है मैने सवाल पूछा.... तो उसका कहना था कि इसके साथ ज़्यादती बिल्कुल नहीं की जाती। हालांकि 10-12 साल का ये बच्चा रात को उसके लौटने पर रोकी सेकता है... लेकिन जैसा कि रणविजय ह रहा था उसे सभी सुविधाएं दी जा रही हैं, मैं ये मान जाता हूं-- लेकिन दिक्कत तो इस छोटू के भविष्य को लेकर है। रणविजय का कहना है कि वो छोटू को पढ़ाता है और जब तक वो जवान होगा तब तक इस काबिल बन जाएगा कि दसवीं-बारहवीं पास कर ले... कंप्यूटर ऑपरेटिंग करने लगे।

एक बच्चे को मैंने बीयर शॉप में देखा। वो ऑपरेटर की गाली खा रहा था। मैंने ऐतराज़ किया तो पता चला कि बच्चा कमचोर है- कहीं और जाकर माल उड़ाता है और खाने-पीने, कपड़े-लत्ते के अलावा 3 हज़ार रुपये महीने पाता है। 3 हज़ार रुपये कम नहीं हैं। बहुत संभव है कि वो छोटू ढाई-तीन हज़ार बचा लेता हो- घर भेजने के लिए। मैंने बच्चे से कहा कि बेटा अब गाली मत खाना.... वरना मैं शिकायत कर दूंगा और तेरी नौकरी चली जाएगी- इनका तो चाहे जो हो।

दरअसल मुश्किल यहीं है। मुझे कभी समझ नहीं आ पाया कि ये छोटू नौकरी नहीं करेंगे तो क्या करेंगे ? अगर मां-बाप पढ़ा सकते, खिला-पिला सकते तो क्या घर पर नहीं रहते ? सवाल ये भी है कि हमारा हस्तक्षेप, ऐतराज़ उसे नौकरी से हटाने के सिवा क्या देगा ? फिर जो बच्चा घर में है,चाय के ढाबे पर है वो किसी ज़री की फ़ैक्ट्री में पहुंच जाएगा जहां उसे धूप-हवा तक नसीब होना मुश्किल हो जाएगा। मुझे हमेशा डर लगता है कि अगर मैं उसे पाल नहीं सकता तो कम से कम नौकरी तो न छुड़वाऊं... कि घर पर कई छोटे भाई-बहन उसके भेजे पैसों से पल रहे हैं। और फिर वो तो मैं बस नियोक्ता को तमीज से बर्ताव करने को कहकर रह जाता हूं। ऐसे मौकों पर मुझे हमेशा बिहार में लालू यादव के शुरू किए चरवाहा स्कूल याद आते हैं। जिन बच्चों के लिए काम करना ज़रूरी है उनके लिए काम के साथ ही पढ़ने की व्यवस्था ही नहीं होनी चाहिए ? उन्हें पढ़ने के साथ ही जल्द धन अर्जन का हुनर नहीं सिखाया जाना चाहिए ? या हम यूं ही चलने दें बड़ी-बड़ी बातें करते हुए न्यूज़ चैनलों-अख़बारों के बाहर चाय पीते हुए, जहां बर्तन धो रहा छोटू हमें सिर्फ़ बाल-दिवस पर ही दिखेगा।

Monday, October 27, 2008

जंग अभी दूर है....

कल फिर एक हॉलीवुडी फ़िल्म देखी I AM LEGEND औसत फ़िल्म है। अगले ज़मानों की सोचने वालों को एक डर है कि आदमी के ग़लतियों से ऐसा कोई वायरस अटैक होगा कि सारी दुनिया नष्ट हो जाएगी। तो I AM LEGEND का हीरो वायरस अटैक के बाद दुनिया में बच गए चंद लोगों में से एक है। न्यूयॉर्क में वो अकेला ज्ञात ज़िंदा व्यक्ति है। बाकी लोग वायरस के शिकार होकर सिर्फ़ रात में निकल सकने वाले आदमखोर हो चुके हैं।

ये पोस्ट मैंने फ़िल्म के बारे में कहने के लिए नहीं लिखी है। दरअसल मुझे लगता है कि अभी वो वक्त नहीं आया है कि दुनिया में दो ही किस्म के आदमी रह गए हैं-- संघी और वामपंथी। लेकिन जब ये दोनों बात करते हैं तो लगता है कि एक ओर वो हैं और दूसरी ओर सिर्फ़ दूसरी किस्म। यानि कि जो भी इनकी तरफ़ नहीं है वो अंधेरे में रहने वाला जीव है। मुझे नहीं लगता कि कम से कम अभी ये वक्त आ गया है कि बीच में लाइन खींचकर दोनों तरफ़ के लोगों को एक-दूसरे का दुश्मन करार दिया जाए। सांप्रदायिक दंगों, एमएनएस-शिवसेना के तांडव और आज मुंबई में राहुल राज की हत्या के बावजूद मुझे लगता है कि अभी शायद कुछ इंसानियत बाकी है.... बीच का रास्ता अभी बचा हुआ है इस पर कुछ लोगों को चलने दें...

ये कविता मुझे सैणी साब ने सुनाई थी और भेजी है, मुझे लगता है दोनों ओर के नब्बे फ़ीसदी लोगों में गुंजाइश है... जैसा कि नाज़िम हिक़मत कहते हैं....


उन्होंने हमें पकड़ लिया
उन्होंने हमें तालाबंद किया
मुझे दीवारों के भीतर,
तुम्हें बाहर.
मगर यह कुछ नहीं.
सबसे बुरा होता है
जब लोग जाने-अनजाने-
अपने भीतर कैदखाने लिए चलते हैं...
ज़्यादातर लोग ऐसा करने को मजबूर हुए हैं,
ईमानदार, मेहनती, भले लोग
जो उतना ही प्यार करने लायक हैं
जितना मैं तुम्हें करता हूं...

Sunday, October 19, 2008

हिम्मत की मिसाल गांगुली

जब से गांगुली ने इस्तीफ़ा देने की घोषणा की है तभी से कुछ कहना चाहता था। बहुत लोगों को ख़राब लगा है गांगुली के इस तरह रिटायर होने से- मुझे भी लगा है। आंकड़े बताते हैं कि सौरभ गांगुली भारतीय क्रिकेट के इतिहास के सबसे सफल कप्तान रहे हैं। सफल के साथ शानदार भी कहना ज़रूरी है। गांगुली के खेल के बारे में बहुत लोग बहुत कुछ लिख रहे हैं. मैं तारीफ़ करना चाहता हूं गांगुली के जज़्बे की। गांगुली की आक्रामकता ने भारतीय क्रिकेट को नया जोश दिया है। टीम को फ़ाइटर बनाया- जिसका अभाव शायद हमारी टीम की सबसे बड़ी कमज़ोरी रही थी। कप्तान में हिम्मत हो तो बाकी भी भिड़ने को तैयार होते हैं। भज्जी, ज़हीर अगर आज आस्ट्रेलिया के मदमस्त गोरों की आंख में आंख डालकर जवाब दे सकते हैं तो इसका कम-ज़्यादा श्रेय गांगुली को देना ही होगा... गांगुली टीम में वापस किन परिस्थियों में आए हैं ये हम सब जानते हैं और इसके लिए सिर्फ़ उनकी हिम्मत और लगन को ही श्रेय दिया जाना चाहिए। पेप्सी का ये एड गांगुली ने तब किया था जब वो टीम से बाहर थे और क्रिकेट की राजनीति का किला यानि कि बीसीसीआई उनके खिलाफ़ थी... तब शायद ही किसी को उम्मीद रही होगी कि वो वापसी कर पाएंगे- लेकिन उन्होंने की। और उससे पहले ये ऐड किया- बाकी चीज़ों को छोड़ भी दें तो सिर्फ़ इस ऐड के लिए मैं उन्हें शताब्दी के सबसे बहादुर लोगों में शामिल करना चाहूंगा।

सुधीर से बात के दौरान एक ज़िक्र निकला था उसे भी दर्ज करता चलूं। चैपल और उनके चपट्टों को, और भारतीय क्रिकेट की ठेकेदार बीसीसीआई को गांगुली से दिक्कत ये थी कि वो बोलते क्यों हैं। सही बात है इस देश में सिर्फ़ उसे नहीं बोलना है जिसे इसका हक़ है। बीसीसीआई का चपरासी भी क्रिकेट का विशेषज्ञ की तरह बयान दे सकता है, राजनीति करता रह सकता है लेकिन न बोलें खिलाड़ी और कोच। सचिन तेंडुलकर बोलते नहीं हैं तो क्या कोई भी न बोले। सब सचिन जैसे महान नहीं हो सकते और न ही शांत। लेकिन ये लोग सबको उनके ढांचे में ठोकने पर आमादा हैं क्योंकि वो ढांचा सबको सूट करता है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि गांगुली, कपिल, अज़हर को ज़लील कर बाहर कर दिया जाए और ऐसे नालायक बोलते रहें जिन्हें कतई खेल की तमीज नहीं है।

कमाल के कार्टूनिस्ट राजेंद्र धोपड़कर की एक टिप्पणी याद आती है। ये कार्टून शायद 2004 के ओलंपिक के वक्त छपा था। तब भारतीय दल में खिलाड़ियों से ज़्यादा अधिकारी थे--- कार्टून में खिलाड़ी दूर से देख रहा है और बाबू टाइप का एक पोडियम पर खड़ा है। खिलाड़ी कह रहा है-- बड़े बाबू ने कहा कि मेडल वही लेंगे वरना वो मुझे खेलने नहीं देंगे।

भारतीय खेल जगत का ये कड़वा और घिनौना सच है...

Friday, October 17, 2008

ब्लॉग चर्चा

कई चीज़ें दिमाग में घुमड़ रही थीं, एक-एक करके डालूंगा। पहली चीज़ तो ये है कि ब्लॉगिंग में मेरा पहला परिचित महेंद्र महता आज मुझे नारी नाम के कम्यूनिटी ब्लॉग पर भी दिखा। तो सोचा सबसे पहले ब्लॉगिंग पर ही लिख डालूं।
मेरे लिए ब्लॉगिंग दोस्तों के साथ गप मारने की जगह है। जैसे एक गोल टेबल के चारों ओर दोस्त बैठे हों... हालांकि ये टेबल घर में नहीं है, ये एक बार में या एक कॉफ़ी हाउस में है। ऐसी जगह में कुछ भी पूरी तरह टेबल के गिर्द बैठे लोगों के बीच ही नहीं रह सकता.... ये निजी के साथ सार्वजनिक भी हो जाता है।
लेकिन तुलसी के लिए ये एक मंच की तरह है। वो इस पर खड़ा होकर भाषण दे रहा है, कविता सुना रहा है, लोगों को बहस के लिए पुकार रहा है। हालांकि बहुत बदतमीज़ ब्लॉगर जगत के लोग उसकी बात ही नहीं सुन रहे। लेकिन फिर भी अपना ये भाई अडिग है- लगातार बोले जा रहा है। जल्द ही ये रिकॉर्ड बना डालेगा ज़ीरो टिप्पणी वाली सबसे ज़्यादा पोस्ट के लिए... हंसना मत कोई सा, उसके ब्लॉग पर क्लिक्स की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। एक दिन कमेंट्स भी बढ़ेंगे- आमीन।
महेंद्र महता उर्फ़ महेन उर्फ़ दही इसके विपरीत स्थिति में है.... पहले भी मैं कह चुका हूं एकाधिक बार कि ब्लॉगिंग से पहले मैं उससे कभी प्रभावित नहीं रहा.... हां मुझे वो एक भला आदमी हमेशा लगता रहा... दरअसल मेरे जैसे बकलोल और ऊंची आवाज़ में बोलने वाले लोगों के सामने धीरे से बोलने वाले लोग शायद जल्दी न पहचाने जाते हों। ब्लॉगिंग ने इसे बहुत झकास मौका दिया.... मेरे अलावा (यकीनन) और भी कई लोगों ने माना होगा कि ये शानदार लिक्खाड़ है। ब्लॉगिंग में उसके ज़्यादातर जानकार यहीं मिले लोग हैं- नए दोस्त और यही ब्लॉगिंग की सफ़लता भी है।
महेंद्र कुछ भी लिख डालता है, 4-4 ब्लॉग चला रहा है (टाइम कहां से लाता है) तो देवेंद्र बाबू को समझ ही नहीं आता कि क्या लिखें। हालांकि वो रोज़ तीन अख़बारों में से ऐसी ख़बरें निकाल कर लाता है जो उल्लेखनीय होती हैं- अपनी विशेषज्ञ टिप्पणी के साथ। लेकिन उसे समझ नहीं आता कि क्या लिखूं-अलबत्ता धीरेश के ब्लॉग पर टोकेकर के साथ उसकी बहस उल्लेखनीय रूप से अच्छी थी। तो ये इन्हीं चीज़ों पर क्यों नहीं लिखता....
नीरज पांडे एक ब्लॉग बनाकर बैठा है- आज तक इसने उस पर कुछ नहीं डाला। हैं जी- आशुलिपि में हर साल पुरस्कार जीतने वाला कवि, अख़बारों को आर्टिकल न छापने के लिए कोसने वाला नीरस- ब्लॉग में कुछ नहीं लिख पाता... अजीबोगरीब है.... दरअसल अजीब नहीं गरीब। अज्ञात कारणों से घर पर इंटरनेट नहीं ले पा रहा और आजतक में ब्लॉगिंग-2 खेलने की आज़ादी कहां।
धीरेश सैणी ब्लॉग में भी वैसा ही दिखता है- जैसा वो है। ये बहुत बढ़िया बात है। इसलिए ब्लॉगिंग में उसके चाहने वाले भी वैसे ही हैं- जैसे हरियाणा, मुज़फ्फरनगर, दिल्ली में। बस स्वस्थ रहे- लोगों को गरियाता रहे।
महेंद्र के ब्लॉग का लिंक मुझे सुशील ने भेजा था, मैंने देखा नहीं। वर्षा और धीरेश ब्लॉगिंग पर चर्चा किए करते थे- मैं बाहर रहता था। बहरहाल मैं किसी के ब्लॉग पर टिप्पणी करूं इससे पहले वर्षा की ब्लॉगिंग में अपनी पहचान बन गई थी, जो कायम है....
बहरहाल कुछ लोग लिखना जानते हैं, कुछ पढ़ना, कुछ आते-जाते टिप्पणी करना और कुछ बस देख कर मुस्कुराना/कोने से निकल जाना... कई साल पहले मैंने महसूस किया था कि सबसे हर काम की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, न ही दबाव देना चाहिए (हालांकि ये विस्तार पाकर मौका न देने की दिशा में बढ़ सकता है- फिर भी) लोग अपने बच्चों के साथ ऐसा करते हैं और सैणी साब हर उस आदमी के साथ जिसे वो कुछ अच्छा समझते हैं।
मैं तो काफ़ी बोल गया... सोतड़ू हूं तो क्या नींद तो खुलती है न लेकिन अपने अलहदी महाराज हम जैसों के गुरू हैं.... बहुत आगे.... उम्मीद है इस बार कुछ बोलेंगे....

Thursday, October 9, 2008

नींद क्यों आ जाती है ?

नींद क्यों रात भर नहीं आती- के जवाब में एक हज़ार एक कारण हो सकते हैं... नींद न आने के कारण होने वाली दिक्कतें भी इससे ज़्यादा हो सकती हैं.... लेकिन मैं बात करना चाहता हूं नींद आने पर। यूं भी मैं बहुत सोता हूं। एक बार नीरज पांडे ने कहा था (जब हम एक साथ एक फ्लैट में रहते थे) कि न जाने कैसे मेरा कमरा सोने के लिए परफ़ेक्ट बन जाता है। हालांकि मैने उसे समझाया था कि इसके लिए मैं बहुत यत्न करता हूं पर उसके लिए ये एक मज़ेदार विषय था। तो मैं सोता बहुत हूं- या ग़लत वक्त पर सोता हूं- इसलिए ज़्याता सोता दिखता हूं पर ये तय है कि मुझ आलसी के लिए नींद महत्वपूर्ण है। कल मैं पहली बार एमआरआई रूम में था। जिसने भी एमआरआई करवाया है- वो मशीन की घनघोर आवाज़ से परिचित होगा। बहुत लाउड- कानों में रुई देने के बावजूद आप आधे घंटे तक सुन्न रहते हैं। कमाल की बात ये है कि इसके बावजूद मुझे नींद आ रही थी। यही नहीं श्रीमती जी की भी- जो कि एमआरआई मशीन के अंदर घुसी हुई थी- की आंखें भारी थीं.... आश्चर्य।
दरअसल सोने के लिए मैं बहुत युक्तियां करता हूं- अंधेरा करता हूं- कमरे को साउंडप्रूफ़ (यथासंभव) बनाता हूं (इसीलिए नीरज को मेरा कमरा गुफ़ा सरीखा लगता था- निद्रा गुफा़) लेकिन यहां तो लाइटें भी जली हुई थीं और शोर (मतलब बहुत तेज़ आवाज़) भी थी, फिर भी नींद आ रही थी।
सोचने पर मुझे लगा कि शायद एमआरआई का शोर संगीतमय हो गया था। यानि कि एक ख़ास पैटर्न पर होने वाली आवाज़। अब अगर इसमें कोई बात नहीं है- यानि कि ऐसी भाषा जो आपको समझ नहीं आ रही सिर्फ़ कुछ आवाज़ें जो घूम-घूम कर फिर होने लगती हैं तो आपको नींद आ सकती है। शायद इसीलिए कुछ लोग ट्रैफ़िक के बीच पटरी पर सो पाते हैं (हालांकि मजबूरी और थकान से मैं इनकार नहीं कर रहा)। या फिर फ़िल्म देखते हुए लोगों के सोने का उदाहरण ठीक हो.... या फिर बस-ट्रेन का। अगर बस-ट्रेन सोते हुए नज़दीक से गुज़रे तो नींद टूट जाती है लेकिन इनके अंदर हों तो कुछ देर में नींद आने लगती है.... अभी तक तो यही समझ आ रहा है।
वैसे जिन लोगों को एमआरआई का अनुभव प्राप्त नहीं है या जिन्हें इसके बिना मेरी बात समझ नहीं आ रही उनके लिए ये साउंड क्लिप है.... एन्जॉय

घुसेड़ेगो तो निकलोगे


मैंने अभी-अभी गाड़ी चलाना सीखा है। टू-व्हीलर चलाते तो 18-20 साल हो गए। इसलिए एक बार ट्रैफ़िक फिर परेशान करता है.... बाइक पर तो आदत हो चुकी थी और बिना सोचे ही बाइक घुसेड़ देते थे फिर आगे निकल जाते थे। कार में थोड़ा डर लगता है। लेकिन कुछ ही दिन में समझ आ गया कि घुसेडे़गो नहीं तो निकल नहीं पाओगे भैया। दिल्ली की मुख्य सड़कों पर हालत थोड़ी बेहतर होती है। इसका मतलब ये नहीं कि गाड़ी चलती जाती है, इसका मतलब ये है कि आप एक लाइन में रहते हैं, चलें या रुकें। लेकिन रिंग रोड से बाहर गलियों में या कॉलोनी, मुहल्लों के छोटे चौराहों में, नोएडा-गाज़ियाबाद में तो जो घुसा वही निकला वाला सिद्धांत काम करता है। चूंकि सभी इस थ्योरी पर अमल करते हैं अर्थात सभी घुसेड़ देने के मास्टर हैं इसलिए निकलने में औसत से कई गुना वक्त लगता है यानि कि मिनटों के घंटे हो जाते हैं। टू व्हीलर वाले ऐसे में मौज करते हैं, गाड़ियों के बीच में घुस-घुस कर निकलते जाते हैं लेकिन कार वाले (या उससे भी वड़े वाहन वाले) फंस जाते हैं... अब आप गाज़ीपुर की चढ़ाई पर अटके हुए हैं... नीचे उतरने वाले सत्तर फ़ीसदी साइड पर कब्ज़ा किए हैं... बाइक वाले, साइकिल वाले, और कारें भी सिर्फ़ नार्थ-साउथ नहीं जाती दिख रहीं वो नार्थ ईस्ट भी जा रही हैं और साउथ वेस्ट भी। यानि कि आड़े-तिरछे फंसे हैं कि जहां जगह मिले वहीं चल दें.... अब झींखते रहिए, चिल्लाते रहिए या मौका मिलते ही ज़रा से गैप में गाड़ी घुसेड़ दीजिए.... क्योंकि इस ट्रैफ़िक पर नियम काम नहीं करते, न ही हमें ट्रैफ़िक सेंस है.......

{तस्वीर साभार गूगल}

Monday, October 6, 2008

सलवा जुडूम की जीत

माओवादियों के लिए एक ख़राब ख़बर छत्तीसगढ़ से है... उम्मीद कम है कि इसे टीवी, अख़बार की हेडलाइन्स में जगह मिल पाए इसलिए यहां दे रहा हूं...

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी एक रिपोर्ट में नक्सलियों की गतिविधियों पर काबू पाने के लिए शुरू किए गए सलवा जुडूम को लेकर छत्तीसगढ़ सरकार को क्लीन चिट दे दी है। आयोग के तीन सदस्यीय पैनल ने 118 पृष्ठों की रिपोर्ट में कहा है कि कानून को लागू करने वाले जब स्वयं अप्रभावी हो या मौके पर मौजूद नहीं रहे तो ऐसी स्थिति में जनजातियों को आत्मरक्षा का अधिकार दिए जाने से इनकार नहीं किया जा सकता। उप महानिरीक्षक सुधीर चौधरी के नेतृत्व वाले दल ने नक्सलवाद से निपटने के लिए जनजातियों को हथियार देने पर छत्तीसगढ़ सरकार को क्लीन चिट दी है। रिपोर्ट के अनुसार सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं के विरूद्ध 550 शिकायतें मिलीं थी जिनमें से 168 की जांच गई और ये सभी शिकायतें फर्जी पाई गईं क्योंकि जिन ग्रामीणों के सलवा जुडूम अभियान के तहत या सुरक्षा बलों द्वारा मारे जाने की शिकायत की गई थी वास्तव में उनकी हत्या नक्सलियों ने की थी। रिपोर्ट में सलवा जुडूम की तारीफ करते हुए कहा गया है कि आंदोलन के कार्यकर्ताओं को नक्सली चुन चुन कर मार रहे हैं तथा सलवा जुडूम के नेताओं की रैलियों पर हमले हो रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार अनेक मामलों में दर्ज पुलिस प्राथमिकताओं की जांच करने पर पाया गया है कि जिन लोगों को मृत बताया गया है उनमें अनेक लोग जीवित हैं। बहुत से लोगों की स्वाभाविक मृत्यु भी फर्जी ढंग से आंदोलन कार्यकर्ताओं द्वारा हत्या बताई गई है। आयोग के दल ने अपनी रिपोर्ट में अहिंसक सलवा जुडूम आंदोलन को हिंसक बनाने की कोशिशों के लिए नक्सलियों को जिम्मेदार ठहराया है।
जी हां ये मानवाधिकार आयोग का बयान है संघ के सहयोगी दल का नहीं।
ख़ास बात ये है कि सलवा जुडूम आंदोलन माओवादियों की ज़्यादतियों के खिलाफ़ उभरा पूर्णत: स्वत: स्फूर्त आंदोलन है। 'सलवा-जुडूम बस्तर की गोंड़ी बोली का शब्द है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है। सलवा का अर्थ है शांति। जुडूम का मतलब होता है- जुड़ना, एकत्र होना, साथ-साथ आना। जब दोनों शब्द मिल जाते हैं, तब इसका अर्थ होता है, 'शांति अभियान। जैसा कि मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है.... ये शांतिपूर्ण आंदोलन था और नक्सली इसे हिंसक बनाने में लगे थे। तो सरकार क्योंकि नक्सल प्रभावित इलाकों में जाने में नाकाम रही इसलिए उसने लोगों के आंदोलन को समर्थन दे दिया। राज्य सरकार ने जनजातियों को नक्सलियों के विरूद्ध आत्मरक्षा के लिए हथियार दे दिए हैं।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका में उन आरोपों पर गंभीर रुख अपनाया था जिनमें कहा गया है कि सलमा जुडूम कार्यकर्ता निर्दोष लोगों पर जुल्म ढा रहे हैं और लोगों से जबरन धन वसूली में लिप्त हैं। मानवाधिकार आयोग ने कहा है कि नक्सली हिंसा की समस्या का मूल कारण लोगों का बेरोजगारी की वजह से सामाजिक आर्थिक विकास से वंचित रहना है। इस समस्या से निपटने के लिए बहुस्तरीय रणनीति बनाने की आवश्यकता है। आयोग के पैनल ने जनहित याचिका में लगाए गए आरोपों की कड़ी भ‌र्त्सना की है। एक और उल्लेखनीय तथ्य रिपोर्ट में ये है कि इस अध्ययन के दौरान पैनल के सदस्यों पर नक्सलियों ने तीन बार हमला किया। शायद उन्हें पता लग गया था कि ये दल सच्चाई खोल देगा और इसे संघ का एजेंट साबित करना आसान भी नहीं होगा।
जगदलपुर (छत्तीसगढ़) के पूर्व विधायक वीरेंद्र पांडे का कहना है कि-----
पिछले पच्चीस वर्षों से नक्सली दक्षिण बस्तर में सक्रिय हैं। उनके अभेद्य गढ़ में सरकार भी जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती... लेकिन सलवा-जुडूम ने सब उलट-पुलट कर रख दिया.... सलवा-जुडूम की तेजी के चलते माओवादियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया है.... वे इस अभियान को किसी भी कीमत पर नेस्तनाबूद करना चाहते हैं... उनकी रणनीति का पहला अंग है आतंक...... माओवादियों की रणनीति का दूसरा हथियार है निंदा अभियान। समाचार माध्यमों में अपने प्रच्छन्न समर्थकों द्वारा सलवा-जुडूम के अत्याचार की झूठी कहानियां, रिपोर्ट छपवाना। सलवा-जुडूम बंद करने की मांग करना। इन सब निंदा अभियान का एक ही मकसद है, किसी भी प्रकार हो यह अभियान बंद हो जाए। माओवादियों को इस दिशा में कुछ सफलता तो जरूर हाथ लगी है। यह अभियान शिथिल हो गया है। तीसरा तरीका जो इन्होंने अपनाया है, वह है न्यायालय का उपयोग। नक्सली अपने कुछ संघम सदस्यों को सलवा-जुडूम पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करते हैं। झूठी कहानियां लेकर न्यायालय के दरवाजे जाते हैं। इससे भी उन्हें प्रचारात्मक लाभ मिलता है।
इसी सब के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने मानवाधिकार आयोग को मामले की जांच करने को कहा था जिसकी रिपोर्ट आज फ़ाइल की गई....

Thursday, October 2, 2008

डिज़्नी वालों का कमाल


ये फ़ोटो मुझे वॉल्ट डिज़्नी की साइट पर मिली.... इस कैप्शन के साथ
Walt Disney, with a dignitary, on a Jungle Cruise Boat.
बोले तो ये कमबख़्त क्या नेहरू को नहीं पहचानते....
या ये वही तरीका है जो हमारे यहां कुछ मीडिया हाउस के मालिक इस्तेमाल करते हैं। ...श्री सोनिया के साथ, ...श्री मनमोहन के साथ, ...श्री आडवाणी के साथ । लेकिन ये तो ऐतिहासिक कमाल कर दिया वॉल्ट डिज़्नी के चेलों-चपाटों ने।
इस साइट का लिंक है.... http://www.justdisney.com/walt_disney/pictures/pictures.html