बाल मज़दूरी मेरे लिए एक मुश्किल विषय है। कई दिन से मैं इस पर कुछ भी कहने से बच रहा हूं। दिक्कत ये है कि लिखने से तो बच सकते हैं लेकिन विषय का सामना करने से नहीं।
दरअसल पहाड़ के घरों में छोटू रखने का रिवाज नहीं है, कम से कम अब तक तो नहीं। मेरी किसी पहाड़ी परिचित के घर में गांव से लाया गया गरीब बच्चा काम करता नहीं दिखता। इसलिए मुझे अब भी घरेलू नौकर असहज भाव ही देते हैं। लेकिन पूरब में ऐसा नहीं है... वहां ये सामाजिक रूप से स्वीकार्य और शायद अनिवार्य भी है।
कुछ दिन पहले मेरी सास आई थीं अपने घरेलू नौकर, सोमू, के साथ। सोमू अब बाल मज़दूर नहीं है वो अट्ठारह साल का युवक है। स्वस्थ युवक। लेकिन मुझे लगता है कि वो वैसा नहीं जैसा कि उसे होना चाहिए था। बहुत छोटी उम्र में सोमू को घर लाया गया था... उसे घर का काम-काज सिखाया गया और पिछले 10-12 साल से वो यही कर रहा है। मेरी श्रीमती जी कहती हैं कि उन्होंने सोमू को पढ़ाने की कोशिश भी की थी लेकिन वो नहीं पढ़ा। लेकिन ऐसा सिर्फ़ एक नौकर के साथ ही हो सकता है कि वो रुचि न दिखाए तो न पढ़े। अपने बच्चे को तो पुचकार कर या मार कर पढ़ाया ही जाएगा। हालांकि मैं ये भी बताता चलूं कि यूं सोमू की स्थिति बेहतर है। वो कोक भी पीता है और सास-बहू सीरियर भी देखता है.. गालियां नहीं खाता.... लेकिन सोमू हिसाब भी नहीं कर सकता। वो घर का पता, फ़ोन नंबर याद नहीं रख पाता-
अपने एक मित्र रणविजय के घर भी एक मैंने एक बच्चे नौकर को देखा। ज़ाहिर है मैने सवाल पूछा.... तो उसका कहना था कि इसके साथ ज़्यादती बिल्कुल नहीं की जाती। हालांकि 10-12 साल का ये बच्चा रात को उसके लौटने पर रोकी सेकता है... लेकिन जैसा कि रणविजय ह रहा था उसे सभी सुविधाएं दी जा रही हैं, मैं ये मान जाता हूं-- लेकिन दिक्कत तो इस छोटू के भविष्य को लेकर है। रणविजय का कहना है कि वो छोटू को पढ़ाता है और जब तक वो जवान होगा तब तक इस काबिल बन जाएगा कि दसवीं-बारहवीं पास कर ले... कंप्यूटर ऑपरेटिंग करने लगे।
एक बच्चे को मैंने बीयर शॉप में देखा। वो ऑपरेटर की गाली खा रहा था। मैंने ऐतराज़ किया तो पता चला कि बच्चा कमचोर है- कहीं और जाकर माल उड़ाता है और खाने-पीने, कपड़े-लत्ते के अलावा 3 हज़ार रुपये महीने पाता है। 3 हज़ार रुपये कम नहीं हैं। बहुत संभव है कि वो छोटू ढाई-तीन हज़ार बचा लेता हो- घर भेजने के लिए। मैंने बच्चे से कहा कि बेटा अब गाली मत खाना.... वरना मैं शिकायत कर दूंगा और तेरी नौकरी चली जाएगी- इनका तो चाहे जो हो।
दरअसल मुश्किल यहीं है। मुझे कभी समझ नहीं आ पाया कि ये छोटू नौकरी नहीं करेंगे तो क्या करेंगे ? अगर मां-बाप पढ़ा सकते, खिला-पिला सकते तो क्या घर पर नहीं रहते ? सवाल ये भी है कि हमारा हस्तक्षेप, ऐतराज़ उसे नौकरी से हटाने के सिवा क्या देगा ? फिर जो बच्चा घर में है,चाय के ढाबे पर है वो किसी ज़री की फ़ैक्ट्री में पहुंच जाएगा जहां उसे धूप-हवा तक नसीब होना मुश्किल हो जाएगा। मुझे हमेशा डर लगता है कि अगर मैं उसे पाल नहीं सकता तो कम से कम नौकरी तो न छुड़वाऊं... कि घर पर कई छोटे भाई-बहन उसके भेजे पैसों से पल रहे हैं। और फिर वो तो मैं बस नियोक्ता को तमीज से बर्ताव करने को कहकर रह जाता हूं। ऐसे मौकों पर मुझे हमेशा बिहार में लालू यादव के शुरू किए चरवाहा स्कूल याद आते हैं। जिन बच्चों के लिए काम करना ज़रूरी है उनके लिए काम के साथ ही पढ़ने की व्यवस्था ही नहीं होनी चाहिए ? उन्हें पढ़ने के साथ ही जल्द धन अर्जन का हुनर नहीं सिखाया जाना चाहिए ? या हम यूं ही चलने दें बड़ी-बड़ी बातें करते हुए न्यूज़ चैनलों-अख़बारों के बाहर चाय पीते हुए, जहां बर्तन धो रहा छोटू हमें सिर्फ़ बाल-दिवस पर ही दिखेगा।



