Thursday, October 9, 2008

घुसेड़ेगो तो निकलोगे


मैंने अभी-अभी गाड़ी चलाना सीखा है। टू-व्हीलर चलाते तो 18-20 साल हो गए। इसलिए एक बार ट्रैफ़िक फिर परेशान करता है.... बाइक पर तो आदत हो चुकी थी और बिना सोचे ही बाइक घुसेड़ देते थे फिर आगे निकल जाते थे। कार में थोड़ा डर लगता है। लेकिन कुछ ही दिन में समझ आ गया कि घुसेडे़गो नहीं तो निकल नहीं पाओगे भैया। दिल्ली की मुख्य सड़कों पर हालत थोड़ी बेहतर होती है। इसका मतलब ये नहीं कि गाड़ी चलती जाती है, इसका मतलब ये है कि आप एक लाइन में रहते हैं, चलें या रुकें। लेकिन रिंग रोड से बाहर गलियों में या कॉलोनी, मुहल्लों के छोटे चौराहों में, नोएडा-गाज़ियाबाद में तो जो घुसा वही निकला वाला सिद्धांत काम करता है। चूंकि सभी इस थ्योरी पर अमल करते हैं अर्थात सभी घुसेड़ देने के मास्टर हैं इसलिए निकलने में औसत से कई गुना वक्त लगता है यानि कि मिनटों के घंटे हो जाते हैं। टू व्हीलर वाले ऐसे में मौज करते हैं, गाड़ियों के बीच में घुस-घुस कर निकलते जाते हैं लेकिन कार वाले (या उससे भी वड़े वाहन वाले) फंस जाते हैं... अब आप गाज़ीपुर की चढ़ाई पर अटके हुए हैं... नीचे उतरने वाले सत्तर फ़ीसदी साइड पर कब्ज़ा किए हैं... बाइक वाले, साइकिल वाले, और कारें भी सिर्फ़ नार्थ-साउथ नहीं जाती दिख रहीं वो नार्थ ईस्ट भी जा रही हैं और साउथ वेस्ट भी। यानि कि आड़े-तिरछे फंसे हैं कि जहां जगह मिले वहीं चल दें.... अब झींखते रहिए, चिल्लाते रहिए या मौका मिलते ही ज़रा से गैप में गाड़ी घुसेड़ दीजिए.... क्योंकि इस ट्रैफ़िक पर नियम काम नहीं करते, न ही हमें ट्रैफ़िक सेंस है.......

{तस्वीर साभार गूगल}

No comments: