दिल्ली में 15 जनवरी की रात केजरीवाल के कानून मंत्री ने जो गैरकानूनी काम किया उसके क्या मायने हैं?
पहला तो यह कि उनमें और मुलायम, लालू, मोदी के मंत्रियों की मानसिकता में कोई फ़र्क नहीं। कैमरे में वह भी ठीक बात कर रहे पुलिस अधिकारी को वैसे ही धमकाते नज़र आ रहे हैं जैसे कि इस देश का कोई और मंत्री धमकाता रहा है। दूसरा केजरीवाल, योगेंद्र यादव, मनीष सिसौदिया के नैतिकता के बड़े-बड़े दावों के बावजूद सत्ता मिलने पर आप के मंत्री उतने ही मदांध हो गए हैं जितना कि कोई और होता।
तीसरा कि महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान को अपनी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखने का दावा करने वाली पार्टी बेहद डरावनी हद तक महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। और सबसे ख़तरनाक अर्थ यह है कि 15 जनवरी को की गई हरकत किसी भी तर्क से पूरी तरह तालिबानी है।
15 जनवरी की रात से 21 जनवरी का शाम तक देश की राजधानी दिल्ली में जो हुआ वह हर लिहाज से देश को कम से कम सौ साल पीछे ले गया। सोमनाथ भारती ने जब खिड़की एक्सटेंशन में विदेशी महिलाओं पर, जो इत्तेफ़ाकन अश्वेत नहीं थीं, पर बिना किसी सबूत के देह व्यापार का आरोप लगाया तो उन्होंने क्या किया। उन्होंने सामाजिक और कानूनी नियमों को तो तोड़ा ही, उन्होंने महिला सम्मान के मूलभूत कायदे की भी धज्जियां उड़ा दीं।
इसके बाद निहायत तालिबानी अंदाज़ में आप के "अति भद्र" कार्यकर्ता उन महिलाओं को जबरन अस्पताल ले गए मेडिकल टेस्ट जैसी अपमानजनक स्थिति से गुज़रने पर मजबूर किया। किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के यह भी एक तरह का बलात्कार ही था।
अगर आपको अब भी समझ न आ रहा हो कि दरअसल यह स्थिति कितनी ख़तरनाक है तो अफ़गानिस्तान के तालिबानी शासन को याद करें, जहां बिना किसी सबूत के सिर्फ़ एक या ज़्यादा लोगों के कहने पर कोड़ों से पीटने या हाथ-पैर काटने की सज़ा दी जाती रही है। या याद करें कि अपने ही देश के किसी गांव में कुछ प्रभावशाली लोगों के कहने पर किसी भी कमज़ोर महिला को डायन कहकर नंगा घुमाया जाता है, पीटा जाता है, जला दिया जाता है।
यकीनन इन चीज़ों को भी लोगों का समर्थन मिलता है और उसी के बल पर यह पाशविक हरकतें की जाती हैं। अगर अब भी किसी को कल्पना करने में दिक्कत हो रही हो तो वह फ़िल्म बैंडिट क्वीन के उस दृश्य को याद करे जब ठाकुर श्रीराम फूलन देवी को नंगा कर कुएं से पानी लाने को कहता है।
यह अजीब नहीं है कि सोमनाथ भारती की शक्ल मुझे उसी ठाकुर श्रीराम से मिलती लग रही है।
यूं भी जिसे आम आदमी पार्टी जनता की आवाज़ कह रही है दरअसल वह भीड़ का दबाव है जिसे लोकतंत्र में वोट की राजनीति भी कहा जाता है। इस आवाज़ या दबाव या राजनीति में आम आदमी पार्टी महिला के सम्मान की मूलभूत बातें भी भूल गई। भूल गई या उसने वोटों के लिए औरत के सम्मान की सबसे पहली बात की परवाह नहीं की।
16 तारीख की सुबह से जो हुआ वह और ज़्यादा ख़तरनाक है। यह वोटों के लिए, बहुसंख्यक के गुस्से की तुष्टि के लिए होने दिए गए गुजरात दंगों या दिल्ली के सिख नरसंहार से भी ख़तरनाक है।
यह एक बेहद सोची समझी, शातिर रणनीति थी-जिसके तहत एक ऐसे वर्ग को चुना गया जिसके समर्थन में कोई खड़ा हो। गरीब अफ़्रीकी देशों के अश्वेत- जिन्हें हब्शी से भी ज़्यादा ख़राब नामों से पुकारा जाता है, जिनके ख़िलाफ़ रंगभेद रगों में बहता है- से आसान शिकार कौन हो सकता था। इनके अपमान की बिसात पर आम आदमी पार्टी ने अपनी गोटियां सजाईं और बाकी विश्लेषक कुछ भी कहें 21 जनवरी की शाम केजरीवाल ने पहली बाजी जीत ली है।
पुलिस व्यवस्था के प्रति सारे असंतोष, गुस्से, उसके सुधरने के प्रति निराशा के बावजूद मैं कहता हूं कि यह ठीक नहीं हुआ। यह हरियाणा सरकार द्वारा खेमका के प्रति किए जा रहे व्यवहार से भी ख़राब है क्योंकि कम से कम खेमका को किसी मंत्री ने सरेआम चुनौती तो नहीं दी, अपमानित तो नहीं किया।
मैं मानता हूं कि दिल्ली ही नहीं पूरे देश की पुलिस भ्रष्ट है, बदतमीज है, क्रूर है। लेकिन मैं किसी भी मंत्री, चाहे वह जनता की उम्मीदों की लहर पर सवार केजरीवाल ही क्यों न हों, के पुलिस कमिश्नर को खुलेआम- देख लूंगा- की धमकी का समर्थन नहीं कर सकता।
एक बात और है कि सोमनाथ भारती के बहाने केजरीवाल के नेतृत्व और चरित्र की भी पड़ताल की जा सकती है। भारती केजरीवाल सरकार का चेहरा बदतमीज चेहरा हैं- मालिक की सीटी पर हमला करने वाले किसी खूंखार कुत्ते की तरह। उसकी बदतमीजी के पीछे बाकी सभी तमीजदार बने रह सकते हैं। जैसे कि सोनिया और राहुल कांग्रेसियों की बदतमीजियों पर ख़ामोश रहकर खुद को अलग कर सकते हैं। उसी तरह केजरीवाल जजों की बैठक बुलाने, वकालत के दौरान गलत साक्ष्य पेश करने, जेटली के मुंह पर थूकने जैसे बयानों को दरकिनार कर कांग्रेस और बीजेपी को गाली देते रह सकते हैं।
साफ़ है कि बीजेपी और कांग्रेस से यह देश उकता गया है। केजरीवाल तब तो कम से कम सही होते हैं जब वह कहते हैं कि यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
यह भी सही है कि महिलाओं की, कमज़ोर वर्गों की सुरक्षा और इज्ज़त की इन दोनों दलों से उम्मीद करना ग़लत साबित हो चुका है लेकिन केजरीवाल जो कर रहे हैं क्या वह लोगों को समझ नहीं आएगा? क्या लोगों को यह समझ आते-आते देर हो जाएगी कि शायद इस मुखौटे के पीछे भी वही चेहरा है? क्या जब तक नई बोतल में पुरानी शराब को पहचानेंगे तब तक उनके हाथ से उनके भाग्यविधाता वोट निकल चुके होंगे ?
शायद हां- क्योंकि खिड़की एक्सटेंशन की अश्वेत महिलाओं की तरह केजरीवाल अपने शिकार बहुत सावधानी से चुन रहे हैं।
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1 comment:
अच्छा लिखा है। समाधान है कि एक नया दल बना लो।
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