Monday, October 6, 2008

सलवा जुडूम की जीत

माओवादियों के लिए एक ख़राब ख़बर छत्तीसगढ़ से है... उम्मीद कम है कि इसे टीवी, अख़बार की हेडलाइन्स में जगह मिल पाए इसलिए यहां दे रहा हूं...

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी एक रिपोर्ट में नक्सलियों की गतिविधियों पर काबू पाने के लिए शुरू किए गए सलवा जुडूम को लेकर छत्तीसगढ़ सरकार को क्लीन चिट दे दी है। आयोग के तीन सदस्यीय पैनल ने 118 पृष्ठों की रिपोर्ट में कहा है कि कानून को लागू करने वाले जब स्वयं अप्रभावी हो या मौके पर मौजूद नहीं रहे तो ऐसी स्थिति में जनजातियों को आत्मरक्षा का अधिकार दिए जाने से इनकार नहीं किया जा सकता। उप महानिरीक्षक सुधीर चौधरी के नेतृत्व वाले दल ने नक्सलवाद से निपटने के लिए जनजातियों को हथियार देने पर छत्तीसगढ़ सरकार को क्लीन चिट दी है। रिपोर्ट के अनुसार सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं के विरूद्ध 550 शिकायतें मिलीं थी जिनमें से 168 की जांच गई और ये सभी शिकायतें फर्जी पाई गईं क्योंकि जिन ग्रामीणों के सलवा जुडूम अभियान के तहत या सुरक्षा बलों द्वारा मारे जाने की शिकायत की गई थी वास्तव में उनकी हत्या नक्सलियों ने की थी। रिपोर्ट में सलवा जुडूम की तारीफ करते हुए कहा गया है कि आंदोलन के कार्यकर्ताओं को नक्सली चुन चुन कर मार रहे हैं तथा सलवा जुडूम के नेताओं की रैलियों पर हमले हो रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार अनेक मामलों में दर्ज पुलिस प्राथमिकताओं की जांच करने पर पाया गया है कि जिन लोगों को मृत बताया गया है उनमें अनेक लोग जीवित हैं। बहुत से लोगों की स्वाभाविक मृत्यु भी फर्जी ढंग से आंदोलन कार्यकर्ताओं द्वारा हत्या बताई गई है। आयोग के दल ने अपनी रिपोर्ट में अहिंसक सलवा जुडूम आंदोलन को हिंसक बनाने की कोशिशों के लिए नक्सलियों को जिम्मेदार ठहराया है।
जी हां ये मानवाधिकार आयोग का बयान है संघ के सहयोगी दल का नहीं।
ख़ास बात ये है कि सलवा जुडूम आंदोलन माओवादियों की ज़्यादतियों के खिलाफ़ उभरा पूर्णत: स्वत: स्फूर्त आंदोलन है। 'सलवा-जुडूम बस्तर की गोंड़ी बोली का शब्द है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है। सलवा का अर्थ है शांति। जुडूम का मतलब होता है- जुड़ना, एकत्र होना, साथ-साथ आना। जब दोनों शब्द मिल जाते हैं, तब इसका अर्थ होता है, 'शांति अभियान। जैसा कि मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है.... ये शांतिपूर्ण आंदोलन था और नक्सली इसे हिंसक बनाने में लगे थे। तो सरकार क्योंकि नक्सल प्रभावित इलाकों में जाने में नाकाम रही इसलिए उसने लोगों के आंदोलन को समर्थन दे दिया। राज्य सरकार ने जनजातियों को नक्सलियों के विरूद्ध आत्मरक्षा के लिए हथियार दे दिए हैं।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका में उन आरोपों पर गंभीर रुख अपनाया था जिनमें कहा गया है कि सलमा जुडूम कार्यकर्ता निर्दोष लोगों पर जुल्म ढा रहे हैं और लोगों से जबरन धन वसूली में लिप्त हैं। मानवाधिकार आयोग ने कहा है कि नक्सली हिंसा की समस्या का मूल कारण लोगों का बेरोजगारी की वजह से सामाजिक आर्थिक विकास से वंचित रहना है। इस समस्या से निपटने के लिए बहुस्तरीय रणनीति बनाने की आवश्यकता है। आयोग के पैनल ने जनहित याचिका में लगाए गए आरोपों की कड़ी भ‌र्त्सना की है। एक और उल्लेखनीय तथ्य रिपोर्ट में ये है कि इस अध्ययन के दौरान पैनल के सदस्यों पर नक्सलियों ने तीन बार हमला किया। शायद उन्हें पता लग गया था कि ये दल सच्चाई खोल देगा और इसे संघ का एजेंट साबित करना आसान भी नहीं होगा।
जगदलपुर (छत्तीसगढ़) के पूर्व विधायक वीरेंद्र पांडे का कहना है कि-----
पिछले पच्चीस वर्षों से नक्सली दक्षिण बस्तर में सक्रिय हैं। उनके अभेद्य गढ़ में सरकार भी जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती... लेकिन सलवा-जुडूम ने सब उलट-पुलट कर रख दिया.... सलवा-जुडूम की तेजी के चलते माओवादियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया है.... वे इस अभियान को किसी भी कीमत पर नेस्तनाबूद करना चाहते हैं... उनकी रणनीति का पहला अंग है आतंक...... माओवादियों की रणनीति का दूसरा हथियार है निंदा अभियान। समाचार माध्यमों में अपने प्रच्छन्न समर्थकों द्वारा सलवा-जुडूम के अत्याचार की झूठी कहानियां, रिपोर्ट छपवाना। सलवा-जुडूम बंद करने की मांग करना। इन सब निंदा अभियान का एक ही मकसद है, किसी भी प्रकार हो यह अभियान बंद हो जाए। माओवादियों को इस दिशा में कुछ सफलता तो जरूर हाथ लगी है। यह अभियान शिथिल हो गया है। तीसरा तरीका जो इन्होंने अपनाया है, वह है न्यायालय का उपयोग। नक्सली अपने कुछ संघम सदस्यों को सलवा-जुडूम पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करते हैं। झूठी कहानियां लेकर न्यायालय के दरवाजे जाते हैं। इससे भी उन्हें प्रचारात्मक लाभ मिलता है।
इसी सब के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने मानवाधिकार आयोग को मामले की जांच करने को कहा था जिसकी रिपोर्ट आज फ़ाइल की गई....

7 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

bahut achcha laga yah padhkar, maovadion ka mukabla aise hi kiya jaa sakta hai

वर्षा said...

उड़ीसा को भी एक सलवा जुडूम की जरूरत है

एस. बी. सिंह said...

chalie achchhaa huaa. varanaa tathaakathit manavaadhikaarvaadiyo ko to keval aparaadhiyon aur atankiyon ke hi adhikaar dikhaayi dete hain.

Unknown said...

बिलकुल ठीक कह रहे है आप।
1.समाज मे अपने संगठन के प्रति आतंक और दहशत सृजना कर माओवादी अपने संगठन को शक्तिशाली बनाते है। आम लोगो को सशक्तिकृत कर के ही माओवादीयो का मुकाबला किया जा सकता है।
2.नेपाल का अनुभव भी यही दिखाता है की जब तराई मे लोगो ने हतियार उठाए तो माओवादीयो की शक्ति क्षीण हो गई। लेकिन माओवादीयो ने अपनी रणनिती बदलते हुए उनमे बिखराव लाने का प्रयास किया। पहाडी=मधेसी वर्ग संघर्ष की कोशीश की जो अंततः मओवादीयो के लिए नुक्सानदेह साबित होने वाली है।
3.माओवादी स्वस्फुर्त आन्दोलन नही है। निश्चित ही इनको धन एवम योजना किसी शत्रु राज्य से प्राप्त होती है। इन जालिमो का सामना निहेत्थे लोग कैसे करेगे।
4.सलवा जुडुम के विरुद्ध एन=डी=टी=भी/समय टीभी चैनल और और जे=एन=यु के प्राध्यापक अक्सर विष वमन करते रहते। यह स्पष्ट करता है की माओवादी किस साम्राज्यवादी शक्ति के हित मे काम कर रहे है।

रवि रतलामी said...

धन्यवाद जो आपने ये जानकारी दी. वाकई समाचार माध्यमों ने इसे गोल कर दिया था.

और, आपका टैगलाइन मुझे भी बहुत पसंद है - आराम बड़ी चीज है. मुश्किल से टिप्पणी दे रहा हूं, वरना आराम कर रहा था...

सुधीर राघव said...

भाई सोतड़ू इस सबमें बहुत राजनीति है। इसके चक्कर में मत पड़ो। तुम्हारी वह फिल्म समीक्षा ठीक है। अगर हिन्दी फिल्मों की समीक्षा में दिक्कत न हो तो वेलकम टू सज्जनपुर की करना। हिन्दी सिनेमा में पहली बार इतना सुंदर साहित्यक प्रयोग देखा है। श्याम बेनेगल ने कमाल किया है।

सोतड़ू said...

बहुत नहीं- ये राजनीति ही है।
तुम सूर-तुलसी और कमेंट्स-क्लिक्स की चिंता से मुक्त हो गए क्या? तुम तो जानते हो हो, जो मन कहेगा कहूंगा ही।
हां श्याम बेनेगल की ज़ुबैदा देखी थी उसमें बेनेगल साहब ने इतना निराश किया कि फिर से उन्हें देखने का उत्साह जाता रहा...