Monday, October 27, 2008

जंग अभी दूर है....

कल फिर एक हॉलीवुडी फ़िल्म देखी I AM LEGEND औसत फ़िल्म है। अगले ज़मानों की सोचने वालों को एक डर है कि आदमी के ग़लतियों से ऐसा कोई वायरस अटैक होगा कि सारी दुनिया नष्ट हो जाएगी। तो I AM LEGEND का हीरो वायरस अटैक के बाद दुनिया में बच गए चंद लोगों में से एक है। न्यूयॉर्क में वो अकेला ज्ञात ज़िंदा व्यक्ति है। बाकी लोग वायरस के शिकार होकर सिर्फ़ रात में निकल सकने वाले आदमखोर हो चुके हैं।

ये पोस्ट मैंने फ़िल्म के बारे में कहने के लिए नहीं लिखी है। दरअसल मुझे लगता है कि अभी वो वक्त नहीं आया है कि दुनिया में दो ही किस्म के आदमी रह गए हैं-- संघी और वामपंथी। लेकिन जब ये दोनों बात करते हैं तो लगता है कि एक ओर वो हैं और दूसरी ओर सिर्फ़ दूसरी किस्म। यानि कि जो भी इनकी तरफ़ नहीं है वो अंधेरे में रहने वाला जीव है। मुझे नहीं लगता कि कम से कम अभी ये वक्त आ गया है कि बीच में लाइन खींचकर दोनों तरफ़ के लोगों को एक-दूसरे का दुश्मन करार दिया जाए। सांप्रदायिक दंगों, एमएनएस-शिवसेना के तांडव और आज मुंबई में राहुल राज की हत्या के बावजूद मुझे लगता है कि अभी शायद कुछ इंसानियत बाकी है.... बीच का रास्ता अभी बचा हुआ है इस पर कुछ लोगों को चलने दें...

ये कविता मुझे सैणी साब ने सुनाई थी और भेजी है, मुझे लगता है दोनों ओर के नब्बे फ़ीसदी लोगों में गुंजाइश है... जैसा कि नाज़िम हिक़मत कहते हैं....


उन्होंने हमें पकड़ लिया
उन्होंने हमें तालाबंद किया
मुझे दीवारों के भीतर,
तुम्हें बाहर.
मगर यह कुछ नहीं.
सबसे बुरा होता है
जब लोग जाने-अनजाने-
अपने भीतर कैदखाने लिए चलते हैं...
ज़्यादातर लोग ऐसा करने को मजबूर हुए हैं,
ईमानदार, मेहनती, भले लोग
जो उतना ही प्यार करने लायक हैं
जितना मैं तुम्हें करता हूं...

4 comments:

Ek ziddi dhun said...

भोलापन हमेशा भली चीज नहीं है।

वर्षा said...

कई बार बीच का रास्ता ही मंज़िल पर पहुंचाता है,extremist खतरनाक लगते हैं। संघी-वामपंथी भी इसी श्रेणी में आ गए हैं।

देवेंद्र said...

दरअसल वामपंथियों और संघियों ने इतनी बार लकीर खींची है कि वो काफी चौड़ी हो गई है। इतनी चौड़ी कि सिर्फ लकीर पर सारा हिंदुस्तान आ जाए। बाईं तरफ खड़े वामपंथियों को लगता है कि लकीर उनकी जायजाद है दाईं ओर खड़े संघियों को लगता है कि ये उनकी प्रापर्टी है। लकीर पर कब्जे के लिए दोनों हिंसा का सहारा लेते हैं। कब्जे के लिए एक क्रांति के नाम पर हिंसा फैलाता है तो दूसरा सांप्रदायिकता के नाम पर। दोनों अपने-अपने हित साधने में माहिर हैं। मुझे लगता है कि दिनों-दिन लकीर मोटी होती जाएगी और दोनों ओर के लोग भी एक दिन इस लकीर में शामिल हो जाएंगे। शायद ये मेरा दिवास्वप्न है लेकिन मुझे उस दिन का इंतजार है कि जब इस देश में फिल्म "वाटर" की शूटिंग भी हो.. और तस्लीमा नसरीन भी देश में मेहमान बनकर रहें।

सुधीर राघव said...

यह फिल्म पिछले साल मैंने भी देखी। बच्चों के साथ। देखने गया था, तब ऐसा नहीं सोचा था, पर इससे एक फायदा हुआ। बच्चे अब भूत के नाम से नहीं वायरस से डरते हैं। फिल्म के दूसरे दिन मुझे कुछ फायदा दिखा। छह साल का बेटा मेरा लेपटाप ऑन कर उसपर जपाक डाट काम लगाए बैठा था। मैंने देखा तो डाटा अपनी मर्जी से इसे मत चलाया करो, वायरस आ गया तो सब क्रप्ट हो जाएगा। बेटा डर कर दूर हट गया। तीन साल की बेटी भी डर गई, बोली लेपटॉप में वायरस आता है, मैंने कहा हां। तब से दोनों अकेले में कंप्यूटर पर इंटरनेट आन नहीं करते। संघियों और वामपंथियों के लिए भी किसी लिविंग लीजंड की जरूरत है। परिस्थितियां वह बना रही हैं। जिस आग को यह भड़कातें हैं, वे इनके नियंत्रण से निकल रही ही। नियंत्रण से इसलिए क्योंकि इनकी जानकारियां बहुत अपडेट नहीं है, नई चीज के बारे में ये जानने की कोशिश कम और उसे अपने पुराने ढांचे में फिट करने की जुगत में ज्यादा रहते हैं। पुराने ढांचे के मुताबिक उसे तोड़ा-मरोड़ा जा सका तो बात को उतना बदल कर स्वीकार कर लेंगे, नहीं तो सिरे से खारिज कर देंगे। इनके तोड़ने-मरोड़ने से समाज की गति नहीं रुकने वाली। वह तो बदलेगी ही।