Saturday, December 6, 2008
शर्मनाक, शर्मनाक, शर्मनाक
वॉयस ऑफ़ इंडिया का सूत्र वाक्य है.... पैसे कमाओ, पैसे बचाओ - पत्रकारिता जाए तेल लेने। पत्रकारिता ही क्यों, प्रोफ़ेशनलिज़्म, नैतिकता, श्रम कानून सब तेल लेने जाएं। वीओआई के मालिकों ने साफ़ शब्दों में सभी अधिकारियों (चैनल हेड्स, ब्यूरो चीफ़) को साफ़ शब्दों में कह दिया था कि पत्रकारिता नहीं, बिज़नेस चाहिए... ख़बर नहीं, पैसे चाहिए। सबसे पहले आशीष मिश्रा ने इसकी मुख़ालिफ़त करते हुए इस्तीफ़ा दे दिया। एक दिन बाद बात मुकेश जी ने भी इस्तीफ़ा दे दिया लेकिन उन्होंने नोटिस भी दिया। तो वो अब भी नोटिस पीरियड में ही हैं। एक प्रोफ़ेशनल की तरह वो ऑफ़िस आते रहे, चुनाव के दौरान पावर प्ले नाम का प्रोग्राम भी कर रहे हैं। हालांकि उन्होंने पेड न्यूज़ (ख़बर के रूप में दिखाया जाने वाला विज्ञापन)में किसी भी तरह शरीक होने से इनकार कर दिया है।
ज़ाहिर है वीओआई के मालिक मुकेश जी से ख़ुश नहीं हैं। तो उन्होंने ये किया कि अपने एक पालतू को मुकेश जी पर शू कर दिया.... ये पालतू है प्रकाश पांडे.... इसके नाम से ज़्यादातर लोग वाकिफ़ होंगे... ये नाम पत्रकारिता पर एक धब्बे का है.... प्रकाश वही युवक है जिसने रातोंरात सफ़लता पाने के लिए उमा खुराना का फ़र्ज़ी स्टिंग ऑपरेशन किया था... करियर के लिए शॉर्टकट अपनाने के नाम पर इसने न सिर्फ़ उमा खुराना की ज़िंदगी तबाह की बल्कि दरियागंज के स्कूल में पढ़ने वाली सैकड़ों लड़कियों की ज़िंदगी को भी सवालों के घेरे में डाल दिया था... पता नहीं उनमें से कितनी बच्चियां और उनके मां-बाप उस हादसे से उबर पाए होंगे। अलबत्ता प्रकाश पांडे की कुछ भी कर सकने की काबिलियत वीओआई ने पहचान ली और उसे गेस्ट कोओर्डिनेशन में रख लिया... अपनी चारित्रिक विशेषताओं के कारण ये जल्द ही मालिकों का ख़ास बन गया....
अब मुकेश जी से परेशान वीओआई के मालिकों ने उसे ही मुकेश जी पर शू कर दिया.... पावर प्ले में एक गेस्ट को लेकर मुकेश जी ने प्रकाश को कुछ कहा तो उन्हीं पर चढ़ बैठा... गाली-गलौच करने लगा और उसने भरे न्यूज़ रूम में ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि कभी ज़ोर से न बोलने वाले मुकेश जी भी भड़क गए.... प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि वो तो मुकेश जी पर हाथव उठाने पर भी उतारू दिख रहा था (या दिखा रहा था)। इस दौरान एक, सिर्फ़ एक लड़के ने मुकेश जी के पक्ष में बोला तो वहीं खड़े मधुर मित्तल ने उसे ही डपट दिया। इसके बाद सब तमाशबीन बने रहे...
वीओआई के मालिक बिल्डर हैं.... शायद उनके काम करने के ढंग में शामिल है कि वो कुछ गुंडे पालते हैं... ज़मीन पर कब्ज़ा, मज़दूरों को धमकाने वगैरा के लिए... इनमें से कुछ से साबका तो वीओआई में काम करने वाले हर कर्मचारी का हुआ होगा क्योंकि ये एचआर और एकाउंट्स के अधिकारियों में भी हैं.... वो पत्रकारों से ऐसे बात करते हैं जैसे कि वो मज़दूर हों ये मुंशी... ऐतराज़ की बात तो ये भी है लेकिन शायद बेज़ुबान पत्रकार (जी हां इनकी आवाज़ सिर्फ़ दूसरों के लिए ही निकलती है)शायद सब सहते रहने को मजबूर हैं....
दरअसल जब भी कोई संकट आता है तो आदमी का मूल चरित्र सामने आता है.... अकाल, महामारी, युद्ध के वक्त कुछ लोग हमेशा कुछ लोगों की मौज आ जाती है, वो पावरफ़ुल हो जाते हैं.... वॉयस ऑफ़ इंडिया में भी ऐसा हो रहा है.... लेकिन मुझे लगता है कि इस वक्त वॉयस ऑफ़ इंडिया में जो भी अधिकारी के रूप में काम कर रहा है वो कम-ज़्यादा पाप का भागीदार है। ख़ासतौर पर बड़े अधिकारी..... कर्मचारी तो बेचारे मजबूर हैं.... सड़क पर आने से बेगार ही भली।
वॉयस ऑफ़ इंडिया में काम करना मेरे लिए आज तक का सबसे ख़राब अनुभव रहा.... लेकिन मुझे पता नहीं कि मैं ख़ुशनसीब हूं कि जब मुकेश जी का अपमान हुआ तब मैं वो देखने के लिए मौजूद नहीं था.... या मैं बदनसीब हूं कि वहां उतना सब हो गया और मैं विरोध करने के लिए मौजूद नहीं था....
बहरहाल मैं शर्मिंदा हूं और गुस्सा भी हूं.... बस अब मैं ये जानना चाहता हूं कि हम लोग क्या कर सकते हैं.... हम सभी...
Wednesday, November 12, 2008
ओबामा और माया
हाल ही में मायावती ने एक बहुत मज़ेदार बयान दिया था... जिस पर हमारे कई मित्रों ने सवाल उठाया था कि कोई भी नेता सार्वजनिक रूप से इतना बेवकूफ़ाना बयान दे कैसे सकता है.... वो बयान था- कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब किसी दलित की झोपड़ी में ठहरता है तो अगले दिन उसे एक विशेष साबुन से नहलाया जाता है। -- सचमुच ऐसा बयान सिर्फ़ मायावती ही दे सकती हैं... लेकिन आप-हम इसे चाहे कितना ही बेवकूफ़ाना मानें लेकिन विश्लेषक मानते हैं कि मायावती के वोटर उनकी बात पर यकीन करते हैं।
क्यों करते हैं इसके लिए आपको मैं ओबामा की बात सुनाना चाहूंगा...
ओबामा ने अपनी आत्मकथा 'ऑडैसटी ऑफ होप' में कहा है कि उनसे मिलने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर ने साबुन से हाथ धोए थे--- उन्हीं के सामने। आत्मकथा के अनुसार चार साल पहले वह (ओबामा) अन्य नवनिर्वाचित सीनेटरों के साथ राष्ट्रपति बुश से नाश्ते पर मिलने के लिए गए थे। बुश ओबामा को अलग ले गए और अपनी पत्नी लौरा से मिलवाया। उन्होंने लौरा से कहा, 'तुम्हें याद है ओबामा, इन्हें हमने टीवी पर देखा था। बहुत अच्छा परिवार। और आपकी पत्नी - प्यारी महिला हैं।' इसके बाद बुश और ओबामा ने हाथ मिलाए। ओबामा के मुताबिक इसके बाद बुश तुरंत अपने एक सहायक की तरफ मुड़े़ जिसने उनके दाहिने हाथ पर सैनिटाइजर डाला। बुश ने ओबामा से कहा, 'हाइजीन का ख्याल रखते हुए मैंने सैनिटाइजर डाला।'
ख़बर अभी (ये पोस्ट 11 तारीख को ही लिख ली थी- तकनीकि दिक्कत की वजह से आज पोस्ट कर रहा हूं)आई है और इस पर बुश की प्रतिक्रिया नहीं मिली है। अब अगर बुश इस बात का खंडन करते हैं और जितनी चाहे ज़ोर से करें अमेरिका और पूरी दुनिया के ब्लैक लोग ओबामा की बात पर यकीन करेंगे। वो भी करेंगे जिन्होंने रंगभेद को देखा है- झेला है और किया है।
अब शायद मायावती और ओबामा में संबंध साफ़ होने लगे।
Wednesday, November 5, 2008
संवाद नहीं एकालाप
अनिल जी नमस्कार
आपको शायद याद न हो पर कुछ बातें और कुछ लोग और भी हैं जिन्हें आपको अपने जन्मदिन पर याद करना चाहिए। ऐसे लोग जिन पर आपके व्यक्तित्व की अमिट छाप पड़ी है।
वर्ष 1998 में अमर उजाला का हरियाणा संस्करण शुरू हो रहा था। राजेश रपरिया जी संपादक थे और आप उनके दाहिने हाथ। मैं भी पंजाब केसरी से एक रेफ़रेंस लेकर पहुंचा था। आपने ने ही कॉपी लिखवाई थी- पास किया था। उसके बाद आपने मुझसे जल्द से जल्द जॉयन करने के लिए कहा था तो मैंने पूछा था कि पैसा और पद बता देते तो इस्तीफ़ा देते वक्त दिक्कत नहीं होती। आपने अपने श्रीमुख से कहा था- सब एडिटर, साढ़े चार हज़ार रुपये। पंजाब केसरी छोड़ने और अमर उजाला से जुड़ने के मोह के चलते मैं तीन दिन बाद ही जालंधर को हमेशा के लिए छोड़ यहां पहुंच गया। हां ये भी बता दूं कि मेरे लिए अमर उजाला अख़बार पत्रकारिता करने की शानदार जगह और आप शायद मेरे तब तक के सीनियर्स में सबसे तमीजदार (और आदर्श भी) लग रहे थे। {पर उसके बाद जो मोहभंग, दोनों ही पुरानी प्रतिष्ठा के आस-पास भी नहीं पहुंच पाए हो}
पहली तनख्वाह मिली तो पता चला कि मैं तो ट्रेनी हूं और वेतन 4 हज़ार रुपये मात्र है। इस पर मैं फिर आपसे मिला- आपने कहा- देखो राजेश जी अभी राजेश जी (रपरिया जी)लोगों को जांच रहे हैं, परख रहे हैं। सभी को तो सब एडिटर नहीं बनाया जा सकता। कुछ को सब एडिटर, कुछ को जूनियर सब, कुछ को सीनियर सब बनाया जाएगा। पैसा भी ठीक हो जाएगा। आपकी तो 'स्पीड' भी अच्छी है- अगले महीने सब ठीक हो जाएगा।
अगला महीना पूरा होने से पहले आप जर्मनी चल दिए थे- वॉयस ऑफ़ जर्मनी में अपनी प्रतिभा का झंडा गाड़ने।
इसके बाद रपरिया जी से मिले तो उन्होंने हाथ झाड़ दिए।
भई अनिल से पूछो।
सर वो तो चले गए....
तो मैंने तो नहीं कहा था न.... और फिर तुम लोग कोई बहुत अच्छे भी नहीं हो।
सर हम लोग या मैं...
भई मैं तो सबका हिसाब नहीं रख सकता....
बहरहाल इसी दौरान मुझे पता चला कि मैं ही नहीं मृत्युंजय, इंदु जी, शील भारद्वाज और हां शुक्ला जी भी आपके ही शिकार थे।
इसके बाद मुझे पता चला कि आप कभी काफ़ी विद्रोही थे
(जो आप शायद अब भी गा-बेच रहे हो)
लेकिन फिर दुनिया बदलने का आपका मोह भंग हो गया... पर्वत सी पीर नहीं पिघल पाई, तो आप दूसरी दिशा में भागने लगे, आप वो सियार हो गए जो शेर के लिए गधों को फंसाकर लाता था। पूरी दुनिया को परिवार बनने के बजाय आप अपने परिवार और उससे भी ज़्यादा अपने लिए सोचने-करने लगे।
अब मुझे लगता है कि आपके ब्लॉग का नाम बिल्कुल सही है एक हिंदुस्तानी की डायरी। सही है हम हिंदुस्तानी स्वभाव से ढोंगी ही होते हैं, ज़ुबां में कुछ दिल में कुछ वाले। मुझे लगता है कि आपके मुकाबले आपके पिताजी काफ़ी ईमानदार आदमी रहे होंगे और आप उनकी उम्मीदों से काफ़ी आगे निकल गए हैं....
देर से ही सही जन्मदिन मुबारक
(आप जैसे लोग ज़रूरी हैं- ताकि बूढ़े होते शिकारी भूखे न मर जाएं)
Wednesday, October 29, 2008
बट सोमू कान्ट कैलकुलेट साला
बाल मज़दूरी मेरे लिए एक मुश्किल विषय है। कई दिन से मैं इस पर कुछ भी कहने से बच रहा हूं। दिक्कत ये है कि लिखने से तो बच सकते हैं लेकिन विषय का सामना करने से नहीं।
दरअसल पहाड़ के घरों में छोटू रखने का रिवाज नहीं है, कम से कम अब तक तो नहीं। मेरी किसी पहाड़ी परिचित के घर में गांव से लाया गया गरीब बच्चा काम करता नहीं दिखता। इसलिए मुझे अब भी घरेलू नौकर असहज भाव ही देते हैं। लेकिन पूरब में ऐसा नहीं है... वहां ये सामाजिक रूप से स्वीकार्य और शायद अनिवार्य भी है।
कुछ दिन पहले मेरी सास आई थीं अपने घरेलू नौकर, सोमू, के साथ। सोमू अब बाल मज़दूर नहीं है वो अट्ठारह साल का युवक है। स्वस्थ युवक। लेकिन मुझे लगता है कि वो वैसा नहीं जैसा कि उसे होना चाहिए था। बहुत छोटी उम्र में सोमू को घर लाया गया था... उसे घर का काम-काज सिखाया गया और पिछले 10-12 साल से वो यही कर रहा है। मेरी श्रीमती जी कहती हैं कि उन्होंने सोमू को पढ़ाने की कोशिश भी की थी लेकिन वो नहीं पढ़ा। लेकिन ऐसा सिर्फ़ एक नौकर के साथ ही हो सकता है कि वो रुचि न दिखाए तो न पढ़े। अपने बच्चे को तो पुचकार कर या मार कर पढ़ाया ही जाएगा। हालांकि मैं ये भी बताता चलूं कि यूं सोमू की स्थिति बेहतर है। वो कोक भी पीता है और सास-बहू सीरियर भी देखता है.. गालियां नहीं खाता.... लेकिन सोमू हिसाब भी नहीं कर सकता। वो घर का पता, फ़ोन नंबर याद नहीं रख पाता-
अपने एक मित्र रणविजय के घर भी एक मैंने एक बच्चे नौकर को देखा। ज़ाहिर है मैने सवाल पूछा.... तो उसका कहना था कि इसके साथ ज़्यादती बिल्कुल नहीं की जाती। हालांकि 10-12 साल का ये बच्चा रात को उसके लौटने पर रोकी सेकता है... लेकिन जैसा कि रणविजय ह रहा था उसे सभी सुविधाएं दी जा रही हैं, मैं ये मान जाता हूं-- लेकिन दिक्कत तो इस छोटू के भविष्य को लेकर है। रणविजय का कहना है कि वो छोटू को पढ़ाता है और जब तक वो जवान होगा तब तक इस काबिल बन जाएगा कि दसवीं-बारहवीं पास कर ले... कंप्यूटर ऑपरेटिंग करने लगे।
एक बच्चे को मैंने बीयर शॉप में देखा। वो ऑपरेटर की गाली खा रहा था। मैंने ऐतराज़ किया तो पता चला कि बच्चा कमचोर है- कहीं और जाकर माल उड़ाता है और खाने-पीने, कपड़े-लत्ते के अलावा 3 हज़ार रुपये महीने पाता है। 3 हज़ार रुपये कम नहीं हैं। बहुत संभव है कि वो छोटू ढाई-तीन हज़ार बचा लेता हो- घर भेजने के लिए। मैंने बच्चे से कहा कि बेटा अब गाली मत खाना.... वरना मैं शिकायत कर दूंगा और तेरी नौकरी चली जाएगी- इनका तो चाहे जो हो।
दरअसल मुश्किल यहीं है। मुझे कभी समझ नहीं आ पाया कि ये छोटू नौकरी नहीं करेंगे तो क्या करेंगे ? अगर मां-बाप पढ़ा सकते, खिला-पिला सकते तो क्या घर पर नहीं रहते ? सवाल ये भी है कि हमारा हस्तक्षेप, ऐतराज़ उसे नौकरी से हटाने के सिवा क्या देगा ? फिर जो बच्चा घर में है,चाय के ढाबे पर है वो किसी ज़री की फ़ैक्ट्री में पहुंच जाएगा जहां उसे धूप-हवा तक नसीब होना मुश्किल हो जाएगा। मुझे हमेशा डर लगता है कि अगर मैं उसे पाल नहीं सकता तो कम से कम नौकरी तो न छुड़वाऊं... कि घर पर कई छोटे भाई-बहन उसके भेजे पैसों से पल रहे हैं। और फिर वो तो मैं बस नियोक्ता को तमीज से बर्ताव करने को कहकर रह जाता हूं। ऐसे मौकों पर मुझे हमेशा बिहार में लालू यादव के शुरू किए चरवाहा स्कूल याद आते हैं। जिन बच्चों के लिए काम करना ज़रूरी है उनके लिए काम के साथ ही पढ़ने की व्यवस्था ही नहीं होनी चाहिए ? उन्हें पढ़ने के साथ ही जल्द धन अर्जन का हुनर नहीं सिखाया जाना चाहिए ? या हम यूं ही चलने दें बड़ी-बड़ी बातें करते हुए न्यूज़ चैनलों-अख़बारों के बाहर चाय पीते हुए, जहां बर्तन धो रहा छोटू हमें सिर्फ़ बाल-दिवस पर ही दिखेगा।
Monday, October 27, 2008
जंग अभी दूर है....
ये पोस्ट मैंने फ़िल्म के बारे में कहने के लिए नहीं लिखी है। दरअसल मुझे लगता है कि अभी वो वक्त नहीं आया है कि दुनिया में दो ही किस्म के आदमी रह गए हैं-- संघी और वामपंथी। लेकिन जब ये दोनों बात करते हैं तो लगता है कि एक ओर वो हैं और दूसरी ओर सिर्फ़ दूसरी किस्म। यानि कि जो भी इनकी तरफ़ नहीं है वो अंधेरे में रहने वाला जीव है। मुझे नहीं लगता कि कम से कम अभी ये वक्त आ गया है कि बीच में लाइन खींचकर दोनों तरफ़ के लोगों को एक-दूसरे का दुश्मन करार दिया जाए। सांप्रदायिक दंगों, एमएनएस-शिवसेना के तांडव और आज मुंबई में राहुल राज की हत्या के बावजूद मुझे लगता है कि अभी शायद कुछ इंसानियत बाकी है.... बीच का रास्ता अभी बचा हुआ है इस पर कुछ लोगों को चलने दें...
ये कविता मुझे सैणी साब ने सुनाई थी और भेजी है, मुझे लगता है दोनों ओर के नब्बे फ़ीसदी लोगों में गुंजाइश है... जैसा कि नाज़िम हिक़मत कहते हैं....
उन्होंने हमें पकड़ लिया
उन्होंने हमें तालाबंद किया
मुझे दीवारों के भीतर,
तुम्हें बाहर.
मगर यह कुछ नहीं.
सबसे बुरा होता है
जब लोग जाने-अनजाने-
अपने भीतर कैदखाने लिए चलते हैं...
ज़्यादातर लोग ऐसा करने को मजबूर हुए हैं,
ईमानदार, मेहनती, भले लोग
जो उतना ही प्यार करने लायक हैं
जितना मैं तुम्हें करता हूं...
Sunday, October 19, 2008
हिम्मत की मिसाल गांगुली
जब से गांगुली ने इस्तीफ़ा देने की घोषणा की है तभी से कुछ कहना चाहता था। बहुत लोगों को ख़राब लगा है गांगुली के इस तरह रिटायर होने से- मुझे भी लगा है। आंकड़े बताते हैं कि सौरभ गांगुली भारतीय क्रिकेट के इतिहास के सबसे सफल कप्तान रहे हैं। सफल के साथ शानदार भी कहना ज़रूरी है। गांगुली के खेल के बारे में बहुत लोग बहुत कुछ लिख रहे हैं. मैं तारीफ़ करना चाहता हूं गांगुली के जज़्बे की। गांगुली की आक्रामकता ने भारतीय क्रिकेट को नया जोश दिया है। टीम को फ़ाइटर बनाया- जिसका अभाव शायद हमारी टीम की सबसे बड़ी कमज़ोरी रही थी। कप्तान में हिम्मत हो तो बाकी भी भिड़ने को तैयार होते हैं। भज्जी, ज़हीर अगर आज आस्ट्रेलिया के मदमस्त गोरों की आंख में आंख डालकर जवाब दे सकते हैं तो इसका कम-ज़्यादा श्रेय गांगुली को देना ही होगा... गांगुली टीम में वापस किन परिस्थियों में आए हैं ये हम सब जानते हैं और इसके लिए सिर्फ़ उनकी हिम्मत और लगन को ही श्रेय दिया जाना चाहिए। पेप्सी का ये एड गांगुली ने तब किया था जब वो टीम से बाहर थे और क्रिकेट की राजनीति का किला यानि कि बीसीसीआई उनके खिलाफ़ थी... तब शायद ही किसी को उम्मीद रही होगी कि वो वापसी कर पाएंगे- लेकिन उन्होंने की। और उससे पहले ये ऐड किया- बाकी चीज़ों को छोड़ भी दें तो सिर्फ़ इस ऐड के लिए मैं उन्हें शताब्दी के सबसे बहादुर लोगों में शामिल करना चाहूंगा।
सुधीर से बात के दौरान एक ज़िक्र निकला था उसे भी दर्ज करता चलूं। चैपल और उनके चपट्टों को, और भारतीय क्रिकेट की ठेकेदार बीसीसीआई को गांगुली से दिक्कत ये थी कि वो बोलते क्यों हैं। सही बात है इस देश में सिर्फ़ उसे नहीं बोलना है जिसे इसका हक़ है। बीसीसीआई का चपरासी भी क्रिकेट का विशेषज्ञ की तरह बयान दे सकता है, राजनीति करता रह सकता है लेकिन न बोलें खिलाड़ी और कोच। सचिन तेंडुलकर बोलते नहीं हैं तो क्या कोई भी न बोले। सब सचिन जैसे महान नहीं हो सकते और न ही शांत। लेकिन ये लोग सबको उनके ढांचे में ठोकने पर आमादा हैं क्योंकि वो ढांचा सबको सूट करता है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि गांगुली, कपिल, अज़हर को ज़लील कर बाहर कर दिया जाए और ऐसे नालायक बोलते रहें जिन्हें कतई खेल की तमीज नहीं है।
कमाल के कार्टूनिस्ट राजेंद्र धोपड़कर की एक टिप्पणी याद आती है। ये कार्टून शायद 2004 के ओलंपिक के वक्त छपा था। तब भारतीय दल में खिलाड़ियों से ज़्यादा अधिकारी थे--- कार्टून में खिलाड़ी दूर से देख रहा है और बाबू टाइप का एक पोडियम पर खड़ा है। खिलाड़ी कह रहा है-- बड़े बाबू ने कहा कि मेडल वही लेंगे वरना वो मुझे खेलने नहीं देंगे।
भारतीय खेल जगत का ये कड़वा और घिनौना सच है...
Friday, October 17, 2008
ब्लॉग चर्चा
मेरे लिए ब्लॉगिंग दोस्तों के साथ गप मारने की जगह है। जैसे एक गोल टेबल के चारों ओर दोस्त बैठे हों... हालांकि ये टेबल घर में नहीं है, ये एक बार में या एक कॉफ़ी हाउस में है। ऐसी जगह में कुछ भी पूरी तरह टेबल के गिर्द बैठे लोगों के बीच ही नहीं रह सकता.... ये निजी के साथ सार्वजनिक भी हो जाता है।
लेकिन तुलसी के लिए ये एक मंच की तरह है। वो इस पर खड़ा होकर भाषण दे रहा है, कविता सुना रहा है, लोगों को बहस के लिए पुकार रहा है। हालांकि बहुत बदतमीज़ ब्लॉगर जगत के लोग उसकी बात ही नहीं सुन रहे। लेकिन फिर भी अपना ये भाई अडिग है- लगातार बोले जा रहा है। जल्द ही ये रिकॉर्ड बना डालेगा ज़ीरो टिप्पणी वाली सबसे ज़्यादा पोस्ट के लिए... हंसना मत कोई सा, उसके ब्लॉग पर क्लिक्स की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। एक दिन कमेंट्स भी बढ़ेंगे- आमीन।
महेंद्र महता उर्फ़ महेन उर्फ़ दही इसके विपरीत स्थिति में है.... पहले भी मैं कह चुका हूं एकाधिक बार कि ब्लॉगिंग से पहले मैं उससे कभी प्रभावित नहीं रहा.... हां मुझे वो एक भला आदमी हमेशा लगता रहा... दरअसल मेरे जैसे बकलोल और ऊंची आवाज़ में बोलने वाले लोगों के सामने धीरे से बोलने वाले लोग शायद जल्दी न पहचाने जाते हों। ब्लॉगिंग ने इसे बहुत झकास मौका दिया.... मेरे अलावा (यकीनन) और भी कई लोगों ने माना होगा कि ये शानदार लिक्खाड़ है। ब्लॉगिंग में उसके ज़्यादातर जानकार यहीं मिले लोग हैं- नए दोस्त और यही ब्लॉगिंग की सफ़लता भी है।
महेंद्र कुछ भी लिख डालता है, 4-4 ब्लॉग चला रहा है (टाइम कहां से लाता है) तो देवेंद्र बाबू को समझ ही नहीं आता कि क्या लिखें। हालांकि वो रोज़ तीन अख़बारों में से ऐसी ख़बरें निकाल कर लाता है जो उल्लेखनीय होती हैं- अपनी विशेषज्ञ टिप्पणी के साथ। लेकिन उसे समझ नहीं आता कि क्या लिखूं-अलबत्ता धीरेश के ब्लॉग पर टोकेकर के साथ उसकी बहस उल्लेखनीय रूप से अच्छी थी। तो ये इन्हीं चीज़ों पर क्यों नहीं लिखता....
नीरज पांडे एक ब्लॉग बनाकर बैठा है- आज तक इसने उस पर कुछ नहीं डाला। हैं जी- आशुलिपि में हर साल पुरस्कार जीतने वाला कवि, अख़बारों को आर्टिकल न छापने के लिए कोसने वाला नीरस- ब्लॉग में कुछ नहीं लिख पाता... अजीबोगरीब है.... दरअसल अजीब नहीं गरीब। अज्ञात कारणों से घर पर इंटरनेट नहीं ले पा रहा और आजतक में ब्लॉगिंग-2 खेलने की आज़ादी कहां।
धीरेश सैणी ब्लॉग में भी वैसा ही दिखता है- जैसा वो है। ये बहुत बढ़िया बात है। इसलिए ब्लॉगिंग में उसके चाहने वाले भी वैसे ही हैं- जैसे हरियाणा, मुज़फ्फरनगर, दिल्ली में। बस स्वस्थ रहे- लोगों को गरियाता रहे।
महेंद्र के ब्लॉग का लिंक मुझे सुशील ने भेजा था, मैंने देखा नहीं। वर्षा और धीरेश ब्लॉगिंग पर चर्चा किए करते थे- मैं बाहर रहता था। बहरहाल मैं किसी के ब्लॉग पर टिप्पणी करूं इससे पहले वर्षा की ब्लॉगिंग में अपनी पहचान बन गई थी, जो कायम है....
बहरहाल कुछ लोग लिखना जानते हैं, कुछ पढ़ना, कुछ आते-जाते टिप्पणी करना और कुछ बस देख कर मुस्कुराना/कोने से निकल जाना... कई साल पहले मैंने महसूस किया था कि सबसे हर काम की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, न ही दबाव देना चाहिए (हालांकि ये विस्तार पाकर मौका न देने की दिशा में बढ़ सकता है- फिर भी) लोग अपने बच्चों के साथ ऐसा करते हैं और सैणी साब हर उस आदमी के साथ जिसे वो कुछ अच्छा समझते हैं।
मैं तो काफ़ी बोल गया... सोतड़ू हूं तो क्या नींद तो खुलती है न लेकिन अपने अलहदी महाराज हम जैसों के गुरू हैं.... बहुत आगे.... उम्मीद है इस बार कुछ बोलेंगे....
Thursday, October 9, 2008
नींद क्यों आ जाती है ?
दरअसल सोने के लिए मैं बहुत युक्तियां करता हूं- अंधेरा करता हूं- कमरे को साउंडप्रूफ़ (यथासंभव) बनाता हूं (इसीलिए नीरज को मेरा कमरा गुफ़ा सरीखा लगता था- निद्रा गुफा़) लेकिन यहां तो लाइटें भी जली हुई थीं और शोर (मतलब बहुत तेज़ आवाज़) भी थी, फिर भी नींद आ रही थी।
सोचने पर मुझे लगा कि शायद एमआरआई का शोर संगीतमय हो गया था। यानि कि एक ख़ास पैटर्न पर होने वाली आवाज़। अब अगर इसमें कोई बात नहीं है- यानि कि ऐसी भाषा जो आपको समझ नहीं आ रही सिर्फ़ कुछ आवाज़ें जो घूम-घूम कर फिर होने लगती हैं तो आपको नींद आ सकती है। शायद इसीलिए कुछ लोग ट्रैफ़िक के बीच पटरी पर सो पाते हैं (हालांकि मजबूरी और थकान से मैं इनकार नहीं कर रहा)। या फिर फ़िल्म देखते हुए लोगों के सोने का उदाहरण ठीक हो.... या फिर बस-ट्रेन का। अगर बस-ट्रेन सोते हुए नज़दीक से गुज़रे तो नींद टूट जाती है लेकिन इनके अंदर हों तो कुछ देर में नींद आने लगती है.... अभी तक तो यही समझ आ रहा है।
वैसे जिन लोगों को एमआरआई का अनुभव प्राप्त नहीं है या जिन्हें इसके बिना मेरी बात समझ नहीं आ रही उनके लिए ये साउंड क्लिप है.... एन्जॉय
घुसेड़ेगो तो निकलोगे

Monday, October 6, 2008
सलवा जुडूम की जीत
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी एक रिपोर्ट में नक्सलियों की गतिविधियों पर काबू पाने के लिए शुरू किए गए सलवा जुडूम को लेकर छत्तीसगढ़ सरकार को क्लीन चिट दे दी है। आयोग के तीन सदस्यीय पैनल ने 118 पृष्ठों की रिपोर्ट में कहा है कि कानून को लागू करने वाले जब स्वयं अप्रभावी हो या मौके पर मौजूद नहीं रहे तो ऐसी स्थिति में जनजातियों को आत्मरक्षा का अधिकार दिए जाने से इनकार नहीं किया जा सकता। उप महानिरीक्षक सुधीर चौधरी के नेतृत्व वाले दल ने नक्सलवाद से निपटने के लिए जनजातियों को हथियार देने पर छत्तीसगढ़ सरकार को क्लीन चिट दी है। रिपोर्ट के अनुसार सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं के विरूद्ध 550 शिकायतें मिलीं थी जिनमें से 168 की जांच गई और ये सभी शिकायतें फर्जी पाई गईं क्योंकि जिन ग्रामीणों के सलवा जुडूम अभियान के तहत या सुरक्षा बलों द्वारा मारे जाने की शिकायत की गई थी वास्तव में उनकी हत्या नक्सलियों ने की थी। रिपोर्ट में सलवा जुडूम की तारीफ करते हुए कहा गया है कि आंदोलन के कार्यकर्ताओं को नक्सली चुन चुन कर मार रहे हैं तथा सलवा जुडूम के नेताओं की रैलियों पर हमले हो रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार अनेक मामलों में दर्ज पुलिस प्राथमिकताओं की जांच करने पर पाया गया है कि जिन लोगों को मृत बताया गया है उनमें अनेक लोग जीवित हैं। बहुत से लोगों की स्वाभाविक मृत्यु भी फर्जी ढंग से आंदोलन कार्यकर्ताओं द्वारा हत्या बताई गई है। आयोग के दल ने अपनी रिपोर्ट में अहिंसक सलवा जुडूम आंदोलन को हिंसक बनाने की कोशिशों के लिए नक्सलियों को जिम्मेदार ठहराया है।
जी हां ये मानवाधिकार आयोग का बयान है संघ के सहयोगी दल का नहीं।
ख़ास बात ये है कि सलवा जुडूम आंदोलन माओवादियों की ज़्यादतियों के खिलाफ़ उभरा पूर्णत: स्वत: स्फूर्त आंदोलन है। 'सलवा-जुडूम बस्तर की गोंड़ी बोली का शब्द है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है। सलवा का अर्थ है शांति। जुडूम का मतलब होता है- जुड़ना, एकत्र होना, साथ-साथ आना। जब दोनों शब्द मिल जाते हैं, तब इसका अर्थ होता है, 'शांति अभियान। जैसा कि मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है.... ये शांतिपूर्ण आंदोलन था और नक्सली इसे हिंसक बनाने में लगे थे। तो सरकार क्योंकि नक्सल प्रभावित इलाकों में जाने में नाकाम रही इसलिए उसने लोगों के आंदोलन को समर्थन दे दिया। राज्य सरकार ने जनजातियों को नक्सलियों के विरूद्ध आत्मरक्षा के लिए हथियार दे दिए हैं।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका में उन आरोपों पर गंभीर रुख अपनाया था जिनमें कहा गया है कि सलमा जुडूम कार्यकर्ता निर्दोष लोगों पर जुल्म ढा रहे हैं और लोगों से जबरन धन वसूली में लिप्त हैं। मानवाधिकार आयोग ने कहा है कि नक्सली हिंसा की समस्या का मूल कारण लोगों का बेरोजगारी की वजह से सामाजिक आर्थिक विकास से वंचित रहना है। इस समस्या से निपटने के लिए बहुस्तरीय रणनीति बनाने की आवश्यकता है। आयोग के पैनल ने जनहित याचिका में लगाए गए आरोपों की कड़ी भर्त्सना की है। एक और उल्लेखनीय तथ्य रिपोर्ट में ये है कि इस अध्ययन के दौरान पैनल के सदस्यों पर नक्सलियों ने तीन बार हमला किया। शायद उन्हें पता लग गया था कि ये दल सच्चाई खोल देगा और इसे संघ का एजेंट साबित करना आसान भी नहीं होगा।
जगदलपुर (छत्तीसगढ़) के पूर्व विधायक वीरेंद्र पांडे का कहना है कि-----
पिछले पच्चीस वर्षों से नक्सली दक्षिण बस्तर में सक्रिय हैं। उनके अभेद्य गढ़ में सरकार भी जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती... लेकिन सलवा-जुडूम ने सब उलट-पुलट कर रख दिया.... सलवा-जुडूम की तेजी के चलते माओवादियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया है.... वे इस अभियान को किसी भी कीमत पर नेस्तनाबूद करना चाहते हैं... उनकी रणनीति का पहला अंग है आतंक...... माओवादियों की रणनीति का दूसरा हथियार है निंदा अभियान। समाचार माध्यमों में अपने प्रच्छन्न समर्थकों द्वारा सलवा-जुडूम के अत्याचार की झूठी कहानियां, रिपोर्ट छपवाना। सलवा-जुडूम बंद करने की मांग करना। इन सब निंदा अभियान का एक ही मकसद है, किसी भी प्रकार हो यह अभियान बंद हो जाए। माओवादियों को इस दिशा में कुछ सफलता तो जरूर हाथ लगी है। यह अभियान शिथिल हो गया है। तीसरा तरीका जो इन्होंने अपनाया है, वह है न्यायालय का उपयोग। नक्सली अपने कुछ संघम सदस्यों को सलवा-जुडूम पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करते हैं। झूठी कहानियां लेकर न्यायालय के दरवाजे जाते हैं। इससे भी उन्हें प्रचारात्मक लाभ मिलता है।
इसी सब के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने मानवाधिकार आयोग को मामले की जांच करने को कहा था जिसकी रिपोर्ट आज फ़ाइल की गई....
Thursday, October 2, 2008
डिज़्नी वालों का कमाल

Thursday, September 25, 2008
तस्वीर वही, नज़र अलग

ये तस्वीर बाढ़ पीड़ित उड़ीसा की है। उड़ीसा में भी बाढ़ आई है और इससे करीब 40 लाख लोग प्रभावित हुए हैं... करीब एक लाख लोगों तक अभी तक सहायता नहीं पहुंच पाई है, अब तक 50 लोगों की मौत हो गई है, 24 अरब रुपये का नुक्सान हुआ है।
लेकिन उड़ीसा की बाढ़ उस तरह ख़बर नहीं बन रही जैसे कि बिहार की।
क्या ये इसलिए कि बिहार की बाढ़ अप्रत्याशित थी, नई जगह आई थी और उड़ीसा का बाढ़ रुटीन है।
क्या ये इसलिए कि उड़ीसा की बाढ़ प्राकृतिक है और बिहार की बाढ़ आदमी की ग़लतियों का नतीजा है।
या ये इसलिए है कि मीडिया में उड़िया कम हैं, बिहारी ज़्यादा। हिंदी ब्लॉगिंग में भी।
तस्वीर वही, नज़र अलग
ये प्रचंड हैं। नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहाल यानि कि प्रचंड। प्रचंड नेपाली माओवादियों के नेता हैं और उन्हें शायद इस बात का मलाल होगा कि वो क्रांति करते-करते भी लोकतांत्रिक तरीक से ही सत्ता परिवर्तन कर सके। लेकिन सत्ता बहुत कुछ सिखाती है... और इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण ये तस्वीर है। सशस्त्र क्रांति के ये नेता सिर झुकाए जानते हैं न कहां खड़े हैं.... राजघाट पर।जी हां अहिंसा के पुजारी को सशस्त्र क्रांति के सेनापति का नमन।
है न ख़ूबसूरत
{तस्वीर- साभार बीबीसी}
तस्वीर वही, नज़र अलग

ग़लतियां ही आदमी की ख़ूबसूरती है।
Wednesday, September 24, 2008
सीईओ की मौत/update
मैं कंपनियों के प्रबंधन से अपील करता हूं कि कर्मचारियों के मामले में संवेदनशीलता से सोचें। स्थायी कर्मचारियों और ठेके के कर्मचारियों के वेतन में भारी अंतर होता है। कर्मचारियों के साथ इस तरह का व्यवहार नहीं करना चाहिए जिससे ग्रेटर नोएडा जैसी घटना फिर से घटे।
दुखद घटनाक्रम है...
सीईओ की मौत
मेरी जानकारी में ये हाल के वक्त में ये इस तरह की पहली घटना (दुर्घटना) है। वरना अक्सर गुड़गांव में होंडा कर्मचारियों की पिटाई जैसी ही वारदातें होती रही हैं। इसका मतलब ये कतई नहीं कि मैं चौधरी साहब की हत्या को जस्टीफ़ाई कर रहा हूं- ये कभी नहीं हो सकता। कोई नहीं, ख़ुद मज़दूर भी नहीं- जो कभी-भी बाहर धकेल दिए जाते हैं- इसका समर्थन कर सकते हैं। फिर ये भी सही है कि इस दुर्घटना से ज़्यादा कॉर्पोरेट जगत से ज़्यादा नुक्सान मज़दूरों का ही होगा।
उद्योग जगत ने इस दुर्घटना की निंदा की है। निवेश पर ख़राब असर पड़ने वाला बताया है। यूपी छोड़ देने की चेतावनी दी है। ये भी कहा जा रहा है कि ज़्यादातर कंपनियां ऐसी समस्याओं से जूझ रही हैं। संभव है कि ये सही हो और जैसे-जैसे अमेरिका से मंदी हमारी नौकरियों तक आएगी, ये दिक़्क़तें बढ़ेंगी ही- मज़दूर-मैनेजमेंट दोनों के लिए।
ऐसे में श्रम मंत्री का बयान आश्चर्यजनक और राहत भरा है। ऑस्कर फ़र्नांडीज़ ने इस दुर्घटना को मैनेजमेंट के लिए चेतावनी बताया है। पर सवाल ये है कि सरकार ऐसा कब तक होने देगी।
दिक्कत ये है कि जब तक काम की शर्तें साफ़ नहीं होंगी, खुला मोल-तोल चलने दिया जाएगा तब तक लाठी के ज़ोर पर चीज़ें तय करने की कोशिश भी रहेगी। ठेकेदार होंगे- लठैत होंगे, विद्रोही पनपेंगे। अब या तो आप वर्ग संघर्ष के ज़रिये क्रांति का इंतज़ार करें या ज़िम्मेदार राज्य के नाते शर्तें साफ़ करें- जिसमें वंचितों का ख़्याल रखा जाए।
असंगठित क्षेत्र के मजदूरों से संबंधित विधेयक को इसी मानसून सत्र में पेश किया जाना है। दरअसल ये पेश हो जाना चाहिए था, लेकिन विश्वास मत के चलते मानसून सत्र जुलाई-अगस्त के बजाय अक्टूबर नवंबर में पहुंच गया। इस विधेयक से माध्यम से सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि सभी राज्य सरकारें राज्यों के असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा देने के लिए योजनाएं तैयार करें। यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि जो योजनाएं तैयार की जाएं उन्हें ठीक तरीके से लागू किया जाए। इन मजदूरों के लिए पृथक श्रमिक बोर्ड के गठन का भी प्रस्ताव है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए केंद्र के स्तर पर भी एक बोर्ड का गठन होगा जो पूरे देश में इस दिशा में उठाए जा रहे कदमों की समीक्षा करेगा। ये काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था लेकिन महिला आरक्षण की तर्ज पर कुछ विधेयकों के लिए कभी देर नहीं होती। देर लगती है तो सांसदों, विधायकों के भत्ते बढ़ाने में।
असंगठित क्षेत्र में देश के 93 (अब 94) फ़ीसदी श्रमिक हैं। चूंकि ये असंगठित हैं इसलिए इनकी कोई सामूहिक ताकत नहीं। इसलिए जितना शोर छठे वेतन आयोग को लेकर होता है उसका शतांश भी असंगठित क्षेत्र के लिए प्रस्तावित विधेयक पर नहीं उठता।
इस मसले पर इंटरनेट पर ख़बरें देख रहा था तो एक उल्लेखनीय तथ्य ये मिला कि अमेरिका में सर्वाधिक कमाऊ युवा सीईओ में दो भारतीय (मूल के) भी हैं। प्रसिद्ध बिजनेस पत्रिका फोर्ब्स द्वारा तैयार इस सूची में प्रकाशन क्षेत्र की माहिर साफ्टवेयर कंपनी एडोब के शांतनु नारायणन को 5 वां तथा बीपीओ दिग्गज काग्नीजेंट के फ्रांसिस्को डिसूजा को 15वां स्थान मिला है।
एक तथ्य ये भी है कि टॉप मैनेजमेंट और कर्मचारी के बीच में फ़र्क बढ़ रहा है.... एक कल्पना है डेमोलिशन मैन नाम की फ़िल्म में। इसमें भविष्य की दुनिया की तस्वीर है.... बहुत साफ़-सुथरी, लोग होने वाले अपराधों के नाम तक भूल गए हैं। खाने के नाम पर भरी हुई थालियां नहीं बस मुट्ठी भर चीज़ें हैं- जिनमें शरीर के लिए ज़रूरी सब चीज़ें हैं। सेक्स के लिए ये लोग शारीरिक संपर्क नहीं करते बल्कि दिमाग से ही उसकी अनुभूति कर संतुष्ट हो जाते हैं। लेकिन उसी वक्त में ज़मीन के नीचे एक और दुनिया है। ये लोग हमारे (तीसरी दुनिया के) ही ढंग से जीते हैं। गरीब और गंदगी से भरे हुए। ये लोग कभी-कभी अंडरग्राउंड दुनिया से बाहर आकर खाने की चीज़ों के लिए साफ़-सुथरे लोगों पर हमला करते हैं।
कभी-कभी मुझे डर लगता है कि क्या ये डरावनी कल्पना सही होने जा रही है
Thursday, September 18, 2008
राष्ट्रगान का विज्ञापन
एक विज्ञापन है, जनहित का--- राष्ट्रगान का सम्मान- राष्ट्र का सम्मान। ख़ूबसूरत ऐड है- बहुत बढ़िया बना है। (पता नहीं कहीं और दिखता है या नहीं हमारे चैनल पर तो अक्सर दिखता है क्योंकि नए लॉंच हुए इस चैनल पर विज्ञापन हैं नहीं अभी) स्कूल से लौट रही एक बच्ची अपनी मां के पेट पर हाथ मारती है और ...... खिलाने के लिए खींच ले जाती है.... अपनी कुछ महिलाएं गोलगप्पे खा रही हैं- गोलगप्पे उड़ने लगते हैं, ज़मीन पर उल्टे पड़े भिखारी के पास कोई लड्डू रख जाता है कि तभी हवा चलने लगती है- अचेतन दिख रहा भिखारी नोट पकड़ता है.... घड़ीसाज़ एक आंख पर लेंस लगाए पुर्ज़े बैठा रहा है कि चाय में पानी की बूंद टपकती है। बारिश होने लगी है। एक बूढ़ा मोची अपना सामान संभालता है... पन्नी से ढकता है। उसके बगल में तीन बच्चे बैठे हैं.... वो हंस रहे हैं.... बारिश तेज हो रही है बूढ़ा मोची रेडियो ट्यून करता है.... उसमें शुभा मुद्गल राष्ट्रगान गा रही हैं.... वो बच्चों की ओर देखता है फिर उठने लगता है.... बैसाखी पर बूढ़ा हाथ कसता है... अपनी डेढ़ टांग के साथ वो खड़ा हो जाता है.... उसे देख तीनों बच्चे भी खड़े हो जाते हैं..... बूढ़े के पुराने चश्मे पर पानी की बूंदें हैं जिनसे पार शायद ही दिख रहा हो.... इन चारों के बगल में लोग भीगने से बचने के लिए खड़े हो रहे हैं..... इनके आगे से एक लड़का और लड़की बारिश से बचते हुए दौड़ते हैं.... सिर्फ़ यही तीन खड़े रहते हैं.... फिर एड की पंचलाइन आती है.... राष्ट्रगान का सम्मान, राष्ट्र का सम्मान। मेड बाय........... सवाल ये है कि क्या ये राष्ट्र सिर्फ़ गरीब बूढ़े और उसके जैसे ही गरीब बच्चों का है.... या इस राष्ट्र का सम्मान सिर्फ़ इन्हीं के मन में रह गया है.... हो सकता है कि सिर्फ़ यही लोग इस संदेश का सम्मान करते हों। मेरी जानकारी में कम ही लोग हैं जो राष्ट्रगान सुनते ही खड़े हो जाएं... इसकी वजह अलग-अलग हो सकती हैं। कुछ को समझ नहीं आता कि इससे राष्ट्र के लिए समर्पण कैसे पता चलता है। कुछ शैलेष मटियानी को कोट करते हुए इस गीत को राष्ट्रगान के लिए ग़लत चयन बताते हैं। कुछ के लिए राष्ट्रगान पर सावधान होने के बजाय दूसरी चीज़ें महत्वपूर्ण हैं, ये बहस भी हो सकती है और मस्ती भी। कुछ तो इस देश में ग़लती से फंसे हुए हैं... उन्हें या तो कहीं क्रांति में शरीक होना था, डॉलर बटोरने थे। उनके लिए या तो ये देश संवेदनहीन मध्यवर्ग का है या ज़मीन पर लोगों को कुचलते नवधनाढ्यों का या विज्ञापन में दर्शित गरीबों का.... बहरहाल उनका नहीं।
पहले तो राष्ट्रगान टीवी पर अक्सर बजता था, रेडियो पर कभी-भी सुनाई देता था, सिनेमाहॉलों में फ़िल्म देखने जाओ तो वहां भी मिलता था.... लेकिन अब तो ज़्यादातर को ठीक से याद नहीं कि राष्ट्रगान कब सुना था... न ही इसकी ज़रूरत महसूस होती है। सचमुच !
Wednesday, September 17, 2008
टाइम ख़राब (द सीज)
कल 'द सीज' नाम की फ़िल्म देखी।
डेंज़ल वाशिंगटन और ब्रूस विलिस के चक्कर में ले गया था.... लेकिन अफ़सोस
हिंदी मसाला फ़िल्म की तरह ऊटपटांग। थोड़ी सी और आगे जाती तो मिथुन चक्रवर्ती की फ़िल्म हो जाती। सौ फ़ीसदी टाइम ख़राब
आतंकवाद अमेरिका में बहुत बिकने वाला विषय है। ख़ासतौर पर ९-११ के बाद। ये न सिर्फ़ लोगों की भावनाओं से जुड़ता है बल्कि इसमें एक्शन की भी भरपूर गुंजाइश होती थी। इस विषय पर कुछ अच्छी फ़िल्में भी बनी हैं... उनके नाम फिर कभी। तो इस विषय में पूरी गुंजाइश थी एक अच्छी-एंटरटेनिंग फ़िल्म बनने की। डेंज़ल वाशिंगटन, ब्रूस विलिस के अलावा सहायक रोल में एक्टर (नाम पता नहीं) बहुत अच्छी टीम बनती थी.... लेकिन कहानी का ही अता-पता नहीं। सिर्फ़ सब्जेक्ट से ही तो फ़िल्म नहीं बन जाती भाई।
ये वो वक्त भी नहीं कि लोगों के पास विकल्प नहीं होते थे रामानन्द सागर ने ऐतिहासिक रूप से घटिया प्रोडक्शन कर रामायण के नाम पर ऐतिहासिक कमाई कर डाली.... महाभारत भी बिका- पर उसका प्रोडक्शन अपेक्षाकृत बेहतर था। अब केकता कपूर तमाम मसालों के बावजूद कमाल नहीं कर पा रही....
हालांकि मुझे पता नहीं कि ये फ़िल्म अमेरिका में कितनी चली पर उम्मीद तो कर ही सकता हूं कि सुधी दर्शकों ने नकार दी होगी...
तो अगर मेरे अनुभव से फ़ायदा लेना है कि कृपया इस सीज़ से बचें।
Tuesday, September 9, 2008
dejavu
साइंस फ़िक्शन मुझे हमेशा से अपील करता है (हालांकि बेसिक थ्योरी भी समझ नहीं आ पाती), ख़ासतौर पर टाइम ट्रैवल। शायद दुनिया में सबसे ज़्यादा पसंद की जाने वाली थ्योरी भी यही होगी..... हर आदमी अपनी ग़लतियां सुधार लेना चाहता है.... चाहे वो गांधी हो या हिटलर। लेकिन एक बार टाइम ट्रैवलिंग की सभी कहानियों (मेरे लिए फ़िल्मों) में एक समान है... वो ये कि टाइम ट्रैवलिंग ज़रूर घटनाओं का क्रम तय करती है। यानि कि अगर मैं अगर कुछ घटित हो चुका बदलने भूतकाल में जाता हूं तो होता ये है कि जो मैं बदलता हूं उसका असर पहले ही मेरे वर्तमान पर दिखाई देता है.... टर्मिनेटर, देजा वू, बैक टू द फ़्यूचर सबमें ये एक तथ्य कॉमन है...
अलबत्ता तजवीज़ ये है कि देजा वू देखी जाने योग्य फ़िल्म है।
Monday, September 1, 2008
धर्म
Wednesday, August 27, 2008
वहां और यहां
वहां मोह है
यहां मोहभंग है।
वहां स्थायित्व है, ठहराव है
यहां विकल्प हैं, बेचैनी है।
वहां विकल्पहीनता है, कुंठा है
यहां रह जाने की पीड़ा है, कुंठा है।
वहां दायरा सीमित है, घनिष्ठ है
यहां दायरा है भी तो इतना बड़ा
कि पता नहीं
आप कहां हैं।

